लक्ष्मण के सवालों का कुछ इस तरह से जवाब दिया भगवान राम ने

punjabkesari.in Wednesday, May 29, 2019 - 11:30 AM (IST)

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हिंदू धर्म में ऐसे बहुत से ग्रंथ हैं जिसे पढ़ने और सुनने से मन को एक अलग ही शांति का अनुभव होता है। श्री रामचरित्र मानस के बारे में तो सबने सुना ही होगा, जिसकी रचना तुलसीदास जी ने की थी। इसमें ऐसे बहुत से प्रसंग हैं, जिसके बारे में शायद ही कोई जानता होगा। ऐसे ही इसमें एक प्रसंग ऐसा है जिसमें लक्ष्मण जी ने भगवान राम से कुछ प्रश्न किए, जिसे अगर कोई व्यक्ति अपने जीवन में अपना ले तो उसके जीवन पूरी तरह से बदल सकता है। तो चलिए जानते हैं उनके बारे में-
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लक्ष्मण जी ने पंचवटी में भगवान राम जी पूछा कि ज्ञान क्या है? इस पर भगवान राम ने बड़े ही प्रेम से कहा कि जो बहुत प्रकांड पंडित हो, शास्त्रों को जानता हो, बड़ा ही अच्छा प्रवचन कर सकता हो, दृष्टांत के साथ सिद्धांत को समझाएं, संस्कृत तथा अन्य बहुत सी भाषाओं का जिसे ज्ञान हो वही ज्ञानी होता है। पंडित और ज्ञानी में अन्तर है, उसे पंडित कह सकते हैं लेकिन ज्ञानी नहीं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने बड़ी अद्भुत व्याख्या की है ज्ञानी की- ग्यान मान जहं एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माहीं।। अर्थात- ज्ञान उसको कहते हैं- जहां मान न हो अर्थात् जो मान-अपमान के द्वन्द्व से रहित हो और सबमें ही जो ब्रह्म को देखे। 

आगे लक्ष्मण जी ने कहा कि वैराग्य किसको कहते हैं? 
राम जी ने कहा कि हमारी भाषा में वैरागी वहीं होता है जिसने भगवें कपड़े पहने हो, संसार जिसने छोड़ दिया हो, सिर पर जटाएं, माथे पर तिलक और हाथ में माला उसे वैरागी कहते हैं। आगे भगवान कहते हैं कि कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी।। अर्थात- परम वैरागी वह है, जिसने सिद्धियों को तृन अर्थात् तिनके के समान तुच्छ समझा। जो सिद्धियों के चक्कर में नहीं फंसता और तीनि गुन त्यागी अर्थात् तीन गुण प्रकृति का रूप यह शरीर है- उससे जो ऊपर उठा अर्थात् शरीर में भी जिसकी आसक्ति नहीं रही- वही परम वैरागी है।
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तीसरा प्रश्न लक्ष्मण जी पूछचते हैं कि माया का स्वरूप बतलाइये? 
इस पर भगवान कहते हैं कि मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया।। अर्थात- मैं, मेरा और तेरा - यही माया है, केवल छह शब्दों में बता दिया। मैं अर्थात् जब ''मैं'' आता है तो ''मेरा'' आता है और जहां ''मेरा'' होता है वहां ''तेरा'' भी होता है- तो ये भेद माया के कारण होता है। वैसे माया के दो भेद बताए गए हैं एक विद्या और दूसरा अविद्या। अविद्या रूपी माया जीव को जन्म-मरण के चक्कर में फंसाती है, जिससे कि जीव भटकता रहता है और दूसरी विद्या रूपी माया मुक्त करवाती है।

आगे लक्ष्मण जी ने पूछा कि भक्ति के साधन बताइए और ये कैसे प्राप्त हो सकती है?
भगवान ने कहा कि भगति कि साधन कहउं बखानी। सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी।। प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती।। एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा।। श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाही। मम लीला रति अति मन माहीं।। अर्थात- भक्ति के साधन बता रहा हूं, जिससे प्राणी मुझे बड़ी सरलता से पा लेता है। सबसे पहले विप्रों के चरण विपरें। विप्र का अर्थ है, जिसका जीवन विवेक प्रदान हो, ऐसे विप्रों के चरण विपरें। वेदों के बताए मार्ग पर चलें, अपने कर्तव्य-कर्म का पालन करें। इससे विषयों में वैराग्य होगा तथा वैराग्य उत्पन्न होने पर भगवान के (भागवत) धर्म में प्रेम होगा। 
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पांचवां प्रश्न लक्ष्मण जी ने किया कि जीव और ईश्वर में भेद क्या है?
भगवान कहते हैं माया ईस न आपु कहुं जान कहिअ सो जीव। बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव।। अर्थात् जो माया को, ईश्वर को और स्वयं को नहीं जानता- वह जीव और जीव को उसके कर्मानुसार बंधन तथा मोक्ष देने वाला- ईश्वर है।


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