जानिए, क्या है भक्ति का वास्तविक अर्थ

punjabkesari.in Tuesday, Jun 27, 2017 - 12:54 PM (IST)

ईश्वरे परमं प्रेम, भक्तिरित्यभिधीयते।
आसक्तिविषय प्रेम देहदारगृहादिषु।। 6।।


ईश्वर के प्रति जो परम प्रेम है उसे ही भक्ति कहते हैं। अपनी देह अथवा पत्नी अथवा घर या अन्य विषयों के प्रति जो प्रेम है उसे आसक्ति कहते हैं।अब हम यह देखेंगे कि क्या भक्ति एक क्रिया है अथवा भक्ति क्या कोरी भावुकता है या फिर भक्ति के लक्षण क्या हैं। ‘नारद भक्ति-सूत्र’ में कहा गया है कि ‘परमात्मा’ के प्रति परम प्रेम को भक्ति कहते हैं। परम प्रेम किसे कहते हैं-यह हम आगे देखेंगे। यहां कहा गया है कि ईश्वर के प्रति परम प्रेम भक्ति है तो फिर लौकिक विषयों के प्रति जो हमारा प्रेम है वह क्या है? उत्तर दिया गया है कि वह प्रेम आसक्ति है। शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गंध विषयों के प्रति जो प्रेम है या अपने शरीर से, पत्नी से, गाड़ी अथवा अन्य भोग्य वस्तुओं से जो हमारी प्रीति है उसे आसक्ति कहते हैं। इन दोनों में जो भेद है उसे समझने की चेष्टा करें। भक्ति नि:संदेह प्रेमरूपा है। किंतु हर प्रकार का और हर किसी से किया गया प्रेम भक्ति नहीं है। हमारे घर में बहुत-सी वस्तुएं और प्राणी हैं। पर हम यह तो नहीं कहते कि मेरे कुत्ते के ऊपर अथवा मेरे घर के प्रति मेरी बड़ी भक्ति है। चीजें मुझे अच्छी लगती हैं, चेतन प्राणियों के लिए हम कहेंगे-यह मुझे प्रिय है। 

प्रेमी-प्रेमिका को परस्पर भक्ति नहीं होती, उनमें प्रीति होती है। हां, मातृभक्ति, पितृभक्ति, देशभक्ति और ईशभक्ति का प्रयोग हम करते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जिसमें प्रेम के साथ श्रद्धा जुड़ी हुई है उसे भक्ति कहते हैं। किसी बड़े, आदरणीय, पूज्य, श्रद्धेय के प्रति ही भक्ति होती है। प्रेम हम वहां करते हैं जहां से हमें आनंद मिलता है-चाहे वह व्यक्ति हो या वस्तु। इसके विपरीत जिससे हमको दुख या क्लेश होता है या होने लगता है उसको हम धीरे-धीरे छोड़ने लगते हैं तो जो जन आनंद का स्रोत है वही प्रेम का विषय होता है।

अब देखें कि यह ‘परम’ क्या है। ‘पर’ शब्द का अर्थ होता है निरतिशयम्, जिसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती, जिससे बढ़कर कोई नहीं है। परम प्रेम वह है जो वस्तु, देश, काल, व्यक्ति, परिस्थिति पर आश्रित नहीं है। जैसे रेगिस्तान में मई के मास में यदि कोई हमें शाल या कम्बल से सम्मानित करे तो हमें वह अच्छा नहीं लगेगा परन्तु जब ठंड लगती हो या ठंडे प्रदेश में हमें गर्म कपड़े बहुत अच्छे लगते हैं तो विषयों का अच्छा लगना देश-काल पर आश्रित है, परन्तु परम प्रेम वह है जो देशकाल पर आश्रित नहीं है, उनसे निरपेक्ष है। वह सदैव यथावत है। अब थोड़ी गंभीरता से सोचें तो पाएंगे कि बाहर की कोई भी वस्तु परम आनंद का स्रोत नहीं है, उनसे निरपेक्ष है। वह सदैव यथावत है। अब थोड़ी और गंभीरता से सोचें तो पाएंगे कि बाहर की कोई भी वस्तु परम आनंद का स्रोत नहीं हो सकती क्योंकि कोई भी वस्तु हमेशा के लिए समान रूप से अच्छी नहीं लग सकती तो परम प्रेम केवल परम आनंद के स्रोत के प्रति ही हो सकता है। ऐसा परम प्रेम जो ईश्वर के प्रति है उसे भक्ति कहते हैं।

ईश्वर कौन है या क्या है? इसके पहले हम यह खोजें कि कौन-सा ऐसा प्रेम है जो किसी चीज पर आश्रित नहीं है। अपने आपसे जो प्रेम होता है वह बिल्कुल निरपेक्ष और निरतिशय होता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने आप से बहुत प्रेम करता है इसलिए तो दर्पण में अपनी छवि बार-बार निहारता है, अपना नाम, अपना चित्र अखबार में छपा हुआ देखना चाहता है। जिन दूसरी वस्तुओं से हम प्रेम करते हैं वस्तुत: वे सब भी अपने सुख के लिए होती हैं लेकिन अपने ऊपर जो हम प्रेम करते हैं वह किसी दूसरे के लिए नहीं होता। क्या ऐसा कोई व्यक्ति मिलेगा जो यह कहता हो कि मैं सुबह अपने से प्रेम करता हूं, शाम को नहीं करता या कि भारत में मैं अपने से प्रेम करता हूं लेकिन अमेरिका में नहीं करता या गर्मियों में प्रेम करता हूं, सर्दिंयों में नहीं?

इस प्रकार हमारे स्वयं के प्रति जो हमारा प्रेम है वह देश, काल, परिस्थिति पर निर्भर नहीं करता, उनसे परे है। अब यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि जो परम आनंद स्वरूप है वही परम प्रेम का विषय हो सकता है तो इसलिए मैं क्या हूं? मैं हूं परम आनंद स्वरूप और जब यह कहा कि ईश्वर से ही परम प्रेम हो सकता है और परम प्रेम तो मेरे साथ ही है तो इसका अर्थ यह हुआ कि ईश्वर मेरी आत्मा है। ईश्वर मुझसे अलग नहीं है परन्तु हम हैं कि सोचते हैं कि हम बड़े दुखी हैं और हमें आनंद चाहिए तथा वह भी बाहर से आनंद आए। कितना बड़ा अज्ञान है यह।
 


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