Muni Shri Tarun Sagar: अपना अतीत और औकात कभी मत भूलिए

punjabkesari.in Thursday, Jun 17, 2021 - 02:17 AM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

कड़वे प्रवचन...लेकिन सच्चे बोल

दुनिया में और कुछ आए न आए, कोई हर्ज नहीं पर एडजस्ट करना जरूर आना चाहिए। सामने वाला कैसा भी हो अगर हमें एडजस्ट करना आता है तो हमें कोई दुखी नहीं कर सकता। सामने वाला नहीं बदलेगा तुम्हें ही अपने आपको बदलना होगा। तुम दूसरे को बदल भी नहीं सकते और अपने को बदलने के लिए तुम स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र नागरिक हो। फिर दूसरे को बदलने की कुचेष्टा भी तो एक हिंसा है।

PunjabKesari  tarun sagar ji

मैंने पूछा, स्वर्ग किसे-किसे चाहिए? सबने अपना हाथ ऊपर कर दिया। मैंने फिर पूछा, ‘‘स्वर्गीय कौन-कौन होना चाहता है?’’ इस बार एक भी हाथ ऊपर नहीं उठा। बस यही जिंदगी का विरोधाभास है जो हमें सुख से वंचित रखता है। हम स्वर्ग तो चाहते हैं पर पुण्य के काम करना नहीं चाहते। अगर हम जीते-जी स्वर्ग चाहते हैं तो स्वभाव को सरल बनाएं। मीठा भले ही न खाएं स्वभाव को मीठा जरूर बनाएं।

आज आदमी बच्चों को कम गलतफहमियों को ज्यादा पाल रहा है। वह झूठी अकड़ में घूम रहा है। कुछ लोग गुब्बारे की तरह होते हैं। गुब्बारा चंद सांसों में फूल जाता है, आदमी को भी जरा सी शोहरत मिलती है और अपनी औकात भूल जाता है। अपना अतीत और औकात कभी मत भूलिए। अहंकारी आदमी फूल तो सकता है लेकिन फैल नहीं सकता। आदमी को फैमिली से पहले अपनी गलतफहमी को सुधारना जरूरी है।

कहते हैं जीवन में भक्ति आ जाए तो प्रभु खुद चले आते हैं। केवट के जीवन में भक्ति आई, प्रभु राम खुद चले आए। मीरा के जीवन में भक्ति आई, प्रभु श्रीकृष्ण खुद चले आए।  चंदन बाला के जीवन में भक्ति आई, प्रभु महावीर खुद चले आए। इन लोगों ने टैलीफन करके थोड़ी न बुलाया था। प्रभु का एक नाम अंतर्यामी है। वह बिना बोले सब समझते हैं। प्रार्थना में आशा नहीं, भाव चाहिए, अर्घ्य नहीं, आंसू चाहिएं।

रामायण के एक पात्र का नाम है मंथरा। मंथरा वह जो दिलों में दूरियां पैदा करे। कैकेयी जो राम पर प्रेम न्यौछावर करती थी पर मंथरा ने उसके मन में नफरत का ऐसा जहर घोला कि देखते ही देखते पासा पलट गया और उन्हें चौदह वर्ष का वनवास दिला दिया। रामायण में मंथरा की मृत्यु का कहीं उल्लेख नहीं है। इसका मतलब साफ है कि मंथरा आज भी जिंदा है जो लोगों के दिलों में दूरियां बढ़ा रही है।

देश की खुशकिस्मती है कि हम सब भगवान ‘को’ मानते हैं पर बदकिस्मती यह है कि हम सब भगवान ‘की’ एक भी नहीं मानते। इस ‘को’ और ‘की’ में बड़ा अंतर है। ‘को’ से ‘की’ ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि ताला ‘को’ से नहीं ‘की’ (चाबी) से खुलता है। जिंदगी में हर एक समस्या का ताला अध्यात्म की ‘की’ से ही खोला जा सकता है।

तुम्हें पता है :  दुनिया में भगवान को चाहने वाले कम और भगवान से चाहने वाले ज्यादा हैं।

PunjabKesari tarun sagar ji


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Content Writer

Niyati Bhandari

Recommended News

Related News