धर्म के लिए हंसते-हंसते बलिदान करते थे महर्षि दयानंद

punjabkesari.in Saturday, Dec 18, 2021 - 06:08 PM (IST)

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आर्य समाजियों में देश, धर्म और समाज के लिए प्राण देने वालों की काफी बड़ी शृंखला है। क्रांतिकारियों में भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, श्यामकृष्ण वर्मा, भाई परमानंद एवं लाला हरदयाल आदि अनेकों आर्य समाजियों ने देश के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए या जेलों में रहकर कठिन यातनाएं सहीं। वैदिक धर्म की रक्षा एवं उसके प्रसार के लिए तथा शुद्धि कार्य को करने के लिए भी आर्य समाजियों के बलिदान कम नहीं हैं। सबसे पहले आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद ने ही वैदिक धर्म को फैलाने के लिए तथा सत्य से विचलित न होने के लिए अपने प्राण दिए, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। स्वामी जी के बाद भी पांच महापुरुषों ने अपने प्राण, वैदिक धर्म की रक्षा व फैलाने के लिए हंसते-हंसते समर्पित किए जिनमें से पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानंद व महाशय राजपाल को तो काफी स्वाध्याय शील व्यक्ति जानते हैं परन्तु दो आर्य समाजी जिनके नाम श्रीयुत तुलसी राम व म. रामचंद्र हैं, उनके साथ हम बड़ा अन्याय कर रहे हैं।

पं. लेखराम-पं. लेखराम आर्य मुसाफिर, आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब के एक अत्यंत उत्साही और निर्भीक उपदेशक थे। उन्होंने उर्दू भाषा में वैदिक धर्म संबंधी अनेक पुस्तकें लिखीं। उन्होंने महर्षि दयानंद सरस्वती की एक जीवनी भी लिखी। उनके निर्भयतापूर्वक वैदिक धर्म प्रचार तथा शुद्धि के कार्यों से कुछ विजातीय चिढ़ गए और 6 मार्च 1896 को पं. लेखराम जी पर अपने काले कम्बल में छिपाए छुरे से उन पर वार कर दिया जिससे घायल होकर उनके प्राण-पखेरू उड़ गए। इस प्रकार महर्षि दयानंद के बाद पं. लेखराम का धर्म के लिए पहला बलिदान हुआ। इनके बाद पंजाब प्रांत के फरीदकोट रियासत के निवासी श्रीमत तुलसीराम जी नामक सज्जन का बलिदान स्मरण रखने योग्य है। वह स्टेशन मास्टर होते हुए समय निकाल कर धर्म प्रचार में लगे रहते थे। इनके विरोधियों ने उन्हें एक दिन रात के समय सड़क पर जाते हुए घेर लिया और मिर्च मिली रेत उनके ऊपर फैंक कर तथा डंडे मारकर उन्हें मार डाला। यह एक आर्य समाजी का धर्म के लिए दूसरा बलिदान था।

इसके बाद महाशय रामचंद्र नामक एक जम्मू प्रांत वासी सज्जन जो रियासत में खजांची का काम करते थे, ने अपना बलिदान दिया। वह अछूतोद्धार के लिए बहुत प्रयत्न करते थे। इनके प्रयास से दूसरे लोगों ने भी उस विषय में खास कोशिश शुरू कर दी थी। कई लोगों को यह बात बुरी लगी, उन्होंने मं. रामचंद्र पर लाठियों से वार कर दिया और उनके प्राण ले लिए। इस प्रकार दलितोद्धार और धर्म-प्रचार का पवित्र कार्य करते हुए इनका बलिदान अपने ही भूले-भटके भाइयों के हाथ केवल 26 वर्ष की उम्र में हुआ। इनके बलिदान का परिणाम यह हुआ कि दलितोद्धार का काम खूब जोर-शोर से होने लगा। पूज्यपाद स्वामी श्रद्धानंद जी का बलिदान दिल्ली में 23 दिसम्बर 1926 को एक विजातीय मतान्ध के हाथों हुआ था। इसका विशेष कारण श्री स्वामी जी का शुद्धि-विषयक आंदोलन को जोर से चलाना था। श्री स्वामी जी के पास इस तरह के बहुत पत्र भी आते थे जिनमें उन्हें शुद्धि कार्य को बंद करने और ऐसा न करने पर मारे जाने की धमकी दी जाती थी, पर स्वामी श्रद्धानंद जी एक निर्भीक, धर्मवीर संन्यासी थे। वह ऐसी धमकियों की जरा भी परवाह न करते हुए धर्म का काम किए चले जाते थे।

उनका एक विजातीय विरोधी श्री स्वामी जी के मकान पर 23 दिसम्बर सन् 1926 को आया और पानी पीने को मांगा। पानी पी कर उसने स्वामी जी पर चार गोलियां चलाईं और उनके पवित्र जीवन का अंत कर दिया। यह महर्षि दयानंद के बाद चौथा बलिदान था। एक अन्य बलिदान लाहौर के एक प्रसिद्ध आर्य पुस्तकालय के संचालक महाशय राजपाल जी का 6 अप्रैल 1828 को एक मतान्ध के हाथों लाहौर में हुआ। यह महर्षि दयानंद के बाद धर्म के लिए पांचवां बलिदान था।
 


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Content Writer

Jyoti

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