Lala Jagat Naryan story: राजनीति की राह छोड़ लाला जी ने अपनाया समाज सेवा का रास्ता
punjabkesari.in Sunday, Dec 22, 2024 - 08:19 AM (IST)
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लाला जी पंजाब के एक और विभाजन के विरुद्ध थे। अपने सम्पादकीय ‘मैं पंजाबी सूबा के विरुद्ध क्यों हूं?’ में उन्होंने लिखा था :
‘‘मैं जिस वातावरण में रहा हूं, उसमें हिन्दू-सिख एक माता-पिता की संतान माने जाते हैं... मैंने हिन्दू-सिख में कभी अंतर अपने दिल के अंदर पैदा नहीं होने दिया। यदि होता तो मैं 1952 में सरदार प्रताप सिंह कैरों को अपना नेता न मानता... श्री सच्चर साहिब आर्य समाजी थे तथा मैं भी आर्य समाजी था लेकिन मैंने उन्हें अपना नेता स्वीकार नहीं किया... जहां मैं हिन्दू और सिख में अंतर नहीं मानता, वहां मैं भारत-पाक विभाजन के बाद विशाल पंजाब का समर्थक था।’’
हिन्दी व गुरमुखी संबंधी अपने विचारों को प्रकट करते हुए आगे उन्होंने लिखा :
‘‘मैं गुरमुखी पढ़ने के विरुद्ध नहीं हूं। गुरमुखी में हमारे श्रेष्ठतम धर्मग्रंथ लिखे हुए हैं। उनको पढ़ना हमारा धर्म है परंतु मैं इस पक्ष में नहीं कि गुरमुखी को सारे राज्य की भाषा घोषित कर दिया जाए... प्रत्येक को अधिकार है कि वह अपनी मातृभाषा हिन्दी या गुरमुखी लिखवाए...’’
‘‘मैं पंजाब का विभाजन किसी रूप में नहीं चाहता। मुझे इस बात से कोई सरोकार नहीं कि पंजाब का मुख्यमंत्री कौन बनता है- सिख या हिन्दू। मैं तो केवल यह चाहता हूं कि जो भाई पंजाब का मुख्यमंत्री हो, वह देश भक्त हो, भ्रष्ट न हो... मैं पंजाब के विभाजन को देश के लिए हानिकारक समझता हूं इसलिए विरोध करता हूं तथा करता रहूंगा।’’
(पंजाब केसरी : 21 अक्तूबर, 1965)
परंतु 1966 में पंजाब का एक और विभाजन हो गया। उनकी बात अनसुनी कर दी गई। उस समय कामरेड राम किशन पंजाब के मुख्यमंत्री थे तथा स. दरबारा सिंह पंजाब के गृह मंत्री। लाला जी को गिरफ्तार भी कर लिया गया था उनके इस प्रखर विरोध के कारण। यह लाला जी थे जिन्होंने ‘खालिस्तान’ के भावी संकट का अनुमान लगा लिया था क्योंकि वह दूरदर्शी थे। उन्होंने सरकार को चेतावनी भी दी। अपने विचारों, अपनी धारणाओं पर वह अडिग रहते थे। उन्होंने समझौता करना नहीं सीखा था। वह पंजाब और पंजाबियों के शुभचिंतक थे। 1967 में जब पहली बार पंजाब में संयुक्त सरकार (अकाली दल व जनसंघ) बनी तो लाला जी ने उसे भरपूर समर्थन दिया।
यह क्रम आगे भी बढ़ता गया। संकीर्ण मानसिकता व क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों से ग्रस्त राजनीतिज्ञों की बदौलत पंजाब को चिरकाल तक उग्रवाद व आतंकवाद की आग में से गुजरना पड़ा। अकाली दल की अपनी आंतरिक फूट थी, गुटबंदी थी, व्यक्तिगत अहम थे। कई ग्रुप बन गए थे, लोंगोवाल ग्रुप, तलवंडी ग्रुप। इस बीच उदय हुआ संत भिंडरावाला का। पंजाब कांग्रेस के शीर्ष राजनीतिज्ञों की आपसी प्रतिद्वंद्विता का परिणाम था यह।
1975 में जब देश में आपातकाल घोषित हुआ तब भी लाला जी स्वतंत्रता के अधिकार के प्रहरी बन कर सामने आए। समाचार पत्रों पर सैंसर लागू कर दिया गया। प्रेस की स्वतंत्रता का ऐसा दमन तो लाला जी ने ब्रिटिश काल में भी नहीं देखा था। उनका मन आहत हो उठा स्वतंत्र भारत में इस दमन चक्र से।
वह गिरफ्तार कर लिए गए परंतु उनकी गिरफ्तारी का समाचार छापने की अनुमति नहीं थी। इन काले दिनों की याद करते हुए उन्होंने लिखा :
‘‘लोक नायक जय प्रकाश नारायण चंडीगढ़ जेल में थे लेकिन चंडीगढ़ के लोग भी यह नहीं जानते थे... मेरे गिरते हुए स्वास्थ्य के बारे में मेरे घर वालों को कुछ पता नहीं था... सच्चाई यह है कि आजाद भारत में प्रैस का गला घोंट दिया गया है। ऐसा तो विदेशी शासन में भी नहीं हुआ था।’’
(पंजाब केसरी : 22 फरवरी, 1977)
1977 में वह जेल से रिहा हुए। 1977 के आम चुनावों की घोषणा हुई तो उन्होंने सभी प्रतिपक्षी दलों को संगठित करने तथा केंद्र में ‘जनता पार्टी’ की सरकार बनाने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई। चाहे स्वास्थ्य ठीक नहीं था परंतु उन्होंने दिन में 18 घंटों तक भी कार्य किया। परंतु जनता पार्टी की सरकार अधिक समय नहीं चल पाई। नेताओं की महत्वाकांक्षाएं इस पतन का कारण बनीं। लाला जी के प्रयासों पर भी पानी सा फिर गया तथा उन्हें दुख व निराशा भी हुई। राजनीति सत्ता प्राप्ति का खेल या ‘किस्सा कुर्सी का’ तक सीमित हो चुकी थी। राजनीति से उनका मोह भंग हो चुका था। उन्होंने अपना ध्यान राजनीति की गंदगी से हटा कर धर्म, अध्यात्म व समाज सेवा में लगा लिया। अब वह ज्यादा अंतर्मुखी हो गए थे। समाज सेवा के कार्यों में उन्हें मानसिक शांति व आनंद मिलता था। वह विभिन्न स्थानों पर आंखों के कैम्पों, रक्तदान कैम्पों, मैडीकल चैकअप कैम्पों व जन कल्याण कार्यक्रमों में भाग लेते तथा सामाजिक व स्वयंसेवी संस्थाओं को प्रोत्साहन व मार्गदर्शन देते थे।
पंजाब में उग्रवादी व आतंकवादी शक्तियां सक्रिय हो रही थीं। राष्ट्र की एकता व अखंडता के लिए उभरते इस नए संकट के विरुद्ध उन्होंने पंजाब व केंद्र सरकार को रह-रह कर चेतावनी दी। धर्म व राजनीति का घाल-मेल उन्हें स्वीकार्य नहीं था लेकिन वोटों की राजनीति का गणित हावी होता गया तथा पंजाब की हरी-भरी धरती निर्दोषों के खून से रंगी जाने लगी।
1980 के दशक में पंजाब की स्थिति भयावह होनी शुरू हो गई। उग्रवाद का भयंकर साया पंजाब पर फैलता चला गया। सत्ता और शासन मूक दर्शक बने रहे। धीरे-धीरे स्थिति नियंत्रण से बाहर होती गई। वर्षों से चली आ रही हिन्दू-सिख एकता भी खतरे में पड़ गई। साम्प्रदायिकता का विष वातावरण में घुलने लगा। प्रेम व सहयोग का स्थान घृणा व संदेह ने लिया।
लाला जगत नारायण इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से बहुत दुखी रहते थे। राजनीतिक संरक्षण व प्रभाव के आगे पुलिस व कानून व्यवस्था तंत्र भी पंगु हो चुका था। गांधी की अहिंसा कहीं खो गई थी। दिखाई दे रहा था हिंसा व हत्या का खूनी खेल। सुनाई दे रहा था असहाय व अनाथ बच्चों का क्रंदन, विधवाओं की सिसकियां। लाला जी ईश्वर से पूछते थे ‘‘तैं की दर्द न आया।’’