मस्जिद की वास्तुशिल्प पर बना अर्की का लक्ष्मी नारायण मंदिर

Wednesday, Mar 18, 2020 - 09:55 AM (IST)

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बाघल रियासत का ऐतिहासिक लक्ष्मी नारायण मंदिर अर्की राजवंश के प्रमाणों के अनुसार उस समय का है जब राणा समाचंद ने 1643 ई. में धुन्दन से राजधानी बदलकर अर्की को राजधानी बनाया था। राजधानी बदलने के कारण बाघल की सीमाओं पर कहलूर की छेड़छाड़ और अर्की के प्राकृतिक संसाधन थे। राजवंश के लिए यह एक सुरक्षित स्थान भी था। प्रारंभ में कच्चे राजमहलों का निर्माण वर्तमान ‘गौशाला’ परिसर में किया गया जिसे समाचंद के पश्चात राणा पृथ्वी चंद ने अर्की बाजार का निर्माण करवाकर महलों का कार्य पूर्ण किया था। राणा पृथ्वी चंद (1670-1727) ने वर्तमान महलों के साथ सुरक्षा की दृष्टि से पक्के किले का निर्माण शुरू किया था जिसे बाद के शासकों मेहर चंद राणा (1727-1743 ई.) तथा राणा भूप चंद्र ने (1743-1778) महलों के निर्माण के साथ पूरा किया।

स्वाभाविक था कि बाघल का प्रथम शासक इस नए स्थान पर अपने ईष्ट देवता एवं कुल देवता का देव स्थान निर्मित करता, अत: समाचंद ने ‘गौशाला’ परिसर के पास अपने ईष्ट देवता लक्ष्मी-नारायण के मंदिर की स्थापना की तथा एक सुंदर नए शैली शिल्प पर इस मंदिर का निर्माण करवाया।

वास्तु शिल्प : हिमाचल प्रदेश में वैष्णव धर्म के ऐसे प्राचीन मंदिर बहुत कम मिलेंगे जो मस्जिद की वास्तु शिल्प शैली पर बने हों। यह मंदिर मस्जिदनुमा सपाट छत और विशाल जगमोहन एवं गलियारे से संयुक्त है। यह भारतीय वास्तु कला के शिखर शैली के मंदिरों के शिल्प से भिन्न है। किंतु अपनी भव्यता एवं सुंदर खुले प्रांगण में यह आज भी नया लगता है। मंदिर की ऊंचाई लगभग 12 फुट है जिसमें समतल छत है। मंदिर 35 फुट और 35 फुट के चबूतरे पर निर्मित है। चबूतरा भूमि से 3 फुट ऊंचाई लिए हुए है। मंदिर की परिक्रमा 5 फुट चौड़ाई लिए है। मंदिर की चारों दिशाओं में मध्य में आले हैं जो दीपों के लिए हैं। इनमें कोई मूर्ति स्थापित नहीं है। परिक्रमा के सामने 3 स्तम्भों पर मुख्य मंदिर की छत के साथ एक और सपाट छत है। स्तम्भों से गुजरते हुए मंदिर में प्रवेश किया जा सकता है। इस प्रकार जगमोहन की चौड़ाई 15 फुट तक विस्तृत है। अर्की क्षेत्र में किसी अन्य मंदिर का इतना बड़ा परिक्रमा पथ नहीं है। लगता है कि अर्की के प्रारंभिक शासक ने किसी मध्य भारतीय मुस्लिम कारीगर से मुगल शैली मिश्रित अनुकरण पर यह मंदिर निर्मित करवाया था। मंदिर चूने-सुर्खी एवं पक्की ईंटों से बनाया गया था।

मूर्तियां : मंदिर में भगवान विष्णु की 9  इंच लंबी अष्टधातु की चतुर्भुज मूर्ति है जो आसन की मुद्रा में हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किए हैं। साथ में एक हाथ में सांप पकड़े हैं। यह मूर्ति अर्की राजवंश के इष्टदेव के रूप में पूज्य है। राज वंशावली के अनुसार अर्की का प्रारंभिक शासक अजय देव (14वीं शती ई.) अपने साथ लक्ष्मी नारायण की मूर्ति, खाण्डा, छड़ी, नगाड़ा एवं स्वर्ण छत्र आदि लाए थे। छत्र बहुमूल्य था जिसे इस वंश के अंतिम राजा राजेंद्र सिंह पंवार ने 1962 ई. में चीनी आक्रमण के पश्चात भारतीय रक्षा कोष के लिए दान दे दिया था। कहते हैं मूल मूर्ति के ऊपर स्वर्ण मुकुट, कुंडल तथा मुकुट में अमूल्य हीरा चमकता था। 

लक्ष्मी, विष्णु के अतिरिक्त मंदिर में गोपाल, गणेश तथा हनुमान की संगमरमर निर्मित आदमकद मूर्तियां स्थापित हैं। इनके अतिरिक्त विष्णु की एक छोटी तांबा मिश्रित मूर्ति, एक तीन इंच लंबी पीतल की विष्णु मूर्ति भी विराजमान है जो संभवत: दान में प्राप्त की गई होगी। दो अन्य लक्ष्मी, विष्णु की धातु मूर्तियां दोनों ओर आलों में रखी गई हैं। एक अष्टधातु की दुर्गा की मूर्ति और भगवान गरुड़ की छोटी मूर्ति भी पूजा स्थल में विराजमान हैं। इन समस्त मूर्तियों की पूजा नियमित होती रही है।

पर्व एवं पूजा-अर्चना: प्राचीन महासू की 18 ठकुराइयों में बाघल-अर्की में दशहरा पर्व 15वीं शती से मनाने की परंपरा मिलती है जिसे राणा समाचंद ने 1643 ई. में प्रारंभ किया था। यह सियासत का सबसे बड़ा एवं भव्य धार्मिक आयोजन होता था। ऐतिहासिक दस्तावेजों में विवरण मिलता है कि दशहरे के शुभ अवसर पर राजा अर्की ने लक्ष्मी-नारायण की मूल मूर्ति, खाण्डा तथा छड़ी ध्वज आदि पालकी में सजाकर अपने पुरोहितों के गांव बातल ले जाने की परंपरा प्रारंभ की थी। बातल के मध्य खेतों के बीच रावण, कुंभकर्ण एवं मेघनाद के पुतलों का दहन किया जाता था। रावण दहन से पूर्व निशानेबाजी का आयोजन होता था जिसमें दो धड़े मचान पर रखकर सर्वप्रथम राजा अर्की निशाना लगाते थे। निशाने की परंपरा 19वीं शताब्दी से शुरू हुई थी जबकि दशहरा पहले से मनाया जाता रहा। ग्रामवासी लक्ष्मी-नारायण की पालकी की पूजा-अर्चना करते तथा फसल के नए उत्पाद भेंट करते। आज भी दशहरा मनाने की परंपरा जीवंत है। आज भी अर्की से बातल तक सजी देवताओं की पालकी के साथ जनसाधारण जुलूस की शक्ल में शंख, घंटियां तथा ढोल नगाड़े के साथ बातल पहुंचते हैं तथा मेला आयोजित होता है जो दो दिन तक चलता है। 

शरद पूर्णिमा के दिन मंदिर परिसर गौशाला में प्राचीन काल से ‘कृष्ण लीला’ नाटक खेलने की परंपरा रही। यह पर्व रियासत में श्रद्धा एवं पूजा अर्चना के साथ आयोजित होता रहा है। आज इस दिन क्षेत्र के अनेक स्थानों पर लोक नाट्य बरलाज एवं करियाला आयोजित होता है। राजा की ओर से इस मंदिर में महंत की नियुक्ति की गई थी। राजा सुरेंद्र सिंह के समय महंत साधु राम इसके पुजारी थे। इसके बाद भी गोविंद राम इसके पुजारी रहे। वर्तमान में इसी परिवार के श्री कुलराज किशोर इसके संरक्षक तथा पुजारी हैं जो इस क्षेत्र के सुप्रसिद्ध गायक कलाकार भी हैं।

मुगल वास्तुशिल्प का अनूठा उदाहरण यह भव्य मंदिर जहां रियासत के 400 वर्षों का इतिहास अपने अंदर समेटे क्षेत्र के लोगों व पर्यटकों को अर्की के महान इतिहास से परिचित करवा रहा है वहीं मंदिर में कम चहल-पहल एक चिंता का विषय है जिसके लिए सरकार को आने वाले समय में कदम उठाने चाहिएं जिससे इसे धार्मिक पर्यटन की दृष्टि से विकसित किया जा सके। 

Niyati Bhandari

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