Inspirational Story: भाग्य को वे ही कोसते हैं, जो परिश्रम नहीं करते
punjabkesari.in Sunday, Jan 26, 2025 - 01:05 PM (IST)
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
Inspirational Story: भारतीय मनीषा पुनर्जन्म में विश्वास करती है। यह विश्वास आत्मा की अमरता की पुष्टि करता है। शरीर वस्त्र की तरह हर जन्म में बदल जाता है पर आत्मा अनश्वर और अपरिवर्तनीय होने के कारण वही रहती है। पूर्व जन्म का पुरुषार्थ ही शास्त्र की भाषा में ‘प्रारब्ध’ कहलाता है। यह ‘प्रारब्ध’ कर्मों का संचित कोष है, इसे तत्परता से उत्साहपूर्वक किए गए कर्मों से बदला भी जा सकता है। जो कर्म शास्त्र विरुद्ध होते हैं, उन्हें अशुभ या पाप कर्म और जो शुभ कर्म होते हैं वे शास्त्र सम्मत अर्थात पुण्य कर्म कहलाते हैं। ‘प्रारब्ध’ के खाते में दोनों दर्ज होते हैं।
स्थूल शरीर के नष्ट होने पर आत्मा सूक्ष्म शरीर के साथ गमन कर जाती है। जिन कर्मों का फल नष्ट हुए शरीर द्वारा नहीं भोगा जा सका यानी जो भोग शेष रह गया, उसे भोगने के लिए ही जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करता है। कर्म जीवात्मा को शरीर में बने रहने को विवश करते हैं और वासना अथवा अतृप्त आकांक्षाएं पुन: उनकी पूर्ति के लिए दोबारा जन्म लेने को विवश करती हैं। जिस तरह सजा भोग रहे कैदी को जेल में उसके अच्छे आचरण के कारण जेलर की अनुशंसा पर सरकार उसे निर्धारित अवधि से पहले ही मुक्त कर देती है, उसी तरह का लाभ परमात्मा भी जीवात्मा को देता है। सद् और असद् कर्मों का फल सुख और दुख के रूप में हमें भोगना ही पड़ता है।
गृहस्थ संत मदन केशव आमडेकर गुरु जी महाराज कहते थे, ‘‘वर्षा का होना तो नहीं रोका जा सकता पर गुरु की कृपा छाते की तरह व्यक्ति को भीगने से बचाने का काम अवश्य कर सकती है।’’
यह गुरु कृपा भी तभी मिलती है जब व्यक्ति सद्कर्म करता है। ‘प्रारब्ध’ है वर्षा का होना और ‘पुरुषार्थ ’ है गुरु की कृपा का छाता। भाग्य को वे ही कोसते हैं जो ‘पुरुषार्थ’ यानी परिश्रम नहीं करते। यहां यह भी समझ लेना आवश्यक है कि भाग्य और पुरुषार्थ दोनों की अपनी सीमाएं हैं। असीम तो केवल परमात्मा हैं।
कर्म का जो फल हमारे अनुकूल नहीं होता, वही दुख कहलाता है और जो हमारे चित्त की वृत्ति के अनुकूल पड़ता है, वही हमें सुख प्रतीत होता है। जिस तरह ताजा लगा दाग छुड़ाने में जल्दी छूट जाता है, उसी तरह कल का किया दोष आज किए प्रायश्चित से नष्ट भी हो जाता है। परमात्मा दयालु हैं। उसने यदि कर्मों के विधान से हमें बांधा है तो उनसे मुक्ति का मार्ग भी महापुरुषों के द्वारा हमें सुझाया है।
शुभ कर्मों के फलस्वरूप यदि किसी को अपार सम्पत्ति मिली भी हो तो भी वह नित संचित रूप से व्यय करने पर एक दिन समाप्त हो जाएगी इसलिए संसार जो कर्म क्षेत्र है, वहां अकर्म की स्थिति में जीना एक सामान्य गृहस्थ के लिए असंभव भले न हो पर सहज तो नहीं है। अतएव, एक कुशल व्यवसायी की भांति हमेशा कर्मों के बही खाते पर नजर रखो। आमदनी से खर्च कम होंगे, तभी यह संसार सुखमय लगेगा अर्थात यदि पुण्यों तथा सद्कर्मों की आमद अधिक है तो बंधन भी कम होंगे। संतुलित जीवन ही योगी या सद्गृहस्थ का जीवन कहलाता है।
अपने शरीर को जो नित्य क्षीण होता हुआ देखने का अभ्यास करता है, वह अशुभ कर्मों के प्रति सावधान रहता है। शुभ और अशुभ कर्मों के फलयोग का नाम ही ‘प्रारब्ध’ है इसलिए मनुष्य ‘जो भाग्य का स्वयं निर्माता कहा गया है’ आंख बंद कर परमात्मा को अपने अंदर खोजने वाला या जप, भजन आदि से उस सच्चिदानंद परमात्मा या उसकी शक्ति की उपासना करने वाला ही सद् प्रवृत्तियों का अथवा पुण्य का अर्जक नहीं है। वह सामाजिक या सैनिक के रूप में दीन-दुखियों व राष्ट्र की सेवा में अपना पूरा जीवन निष्ठापूर्वक व्यतीत करता है।
अतएव, शास्त्र के अनुसार श्रवण, मनन, चिंतन और कर्म करने वाला गृहस्थ ही संत है, संन्यासी है। वह कभी ‘प्रारब्ध’ का रोना नहीं रोता। वह जानता है कि बीज को रोपित करने का काम भी उसी का है और उसके चिंतन आदि के लिए भी वही उत्तरदायी है।
परमात्मा की कृपा और प्रेरणा से रचित शास्त्रों के आधार पर ही संत तुलसीदास जी ने कहा, ‘‘जो जस करै सो तस फल चाखा।’’ इसलिए जैसा फल चाहते हो, वैसा ही बीज बोओ, जैसा व्यवहार दूसरों से चाहते हो, वैसा ही दूसरों के साथ करो।
आप अपने भाग्य विधाता स्वयं हो। यह आरोप परमात्मा पर मत लगाओ कि उसने तुम्हें वह नहीं दिया जो तुम चाहते थे। बबूल का वृक्ष बो कर आम के फल की आशा करना, अपने को ही धोखा देना है।