प्रेम भाव नहीं, अस्तित्व है, जानिए इसके दिव्य रूप

punjabkesari.in Friday, Jun 13, 2025 - 07:01 AM (IST)

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Inspirational Context: प्रेम के अनेक स्वरूप हैं- मां बेटे का प्यार, भक्त और भगवान का प्यार, गुरु-शिष्य का प्यार, पर ये भौतिक स्वरूप ही आध्यात्मिक प्रेम की एक छाया है। प्रेम का गुण है आनंद। प्रेम करने पर आनंद प्राप्त होता है, प्रेम और आनंद आत्मा का अपना गुण है। यदि प्रेम व्यक्ति के गानों पर आधारित है तब वह प्रेम स्थायी नहीं होता, किसी से उसकी महानता या विशेषता के लिए प्रेम करना तीसरे दर्जे का प्रेम माना जाता है। प्रेम तुम्हारा स्वभाव है, जो बदल नहीं सकता। यह हम सब मानते हैं कि हम स्वभाव को बदलने की कोशिश करते हैं, पर हम अंदर से अपने स्वभाव को पूर्णत: बदल नहीं सकते परंतु प्रेम की अभिव्यक्ति बदलती है।

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वह कैसे? क्योंकि प्रेम तुम्हारा स्वभाव है, प्रेम के अलावा कोई चारा ही नहीं, मां को बच्चों के लिए प्रेम है, परंतु कभी उसे खिलाती है, कभी सख्ती से पेश आती है। यह सब वह प्रेमवश करती है। ये सभी प्रेम के विभिन्न रूप हैं। अलग-अलग लोगों से मिलते हैं तो भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रेम की अभिव्यक्ति होती है। अत: प्रेम की अभिव्यक्ति बदलती है परंतु प्रेम स्वयं नहीं बदलता क्योंकि प्रेम तुम्हारा स्वभाव है। प्रेम कोई भावना नहीं है, वह तो पूर्ण अस्तित्व है। कहते भी हैं कि प्रेम को प्रेम ही रहने दो, उसे कोई नाम न दो। यदि तुम प्रेम को भाई-बहन, माता-पिता, गुरु का नाम देते हो, तो उससे संबंध बना रहे हो, जो प्रेम को सीमित करता है।

केवल वही व्यक्ति सच्चा प्रेम कर सकता है जिसने त्याग किया है, जिस मात्रा में तुम त्याग करते हो वही तुम्हारी प्रेम की क्षमता है। सच्चा प्रेम अधिकार नहीं जताता, वह स्वतंत्रता लाता है, उसमें कोई इच्छा नहीं रह जाती। मुझे और कुछ नहीं चाहिए, मुझे केवल प्रेम चाहिए था, जो मिल गया। प्रेम में और कोई इच्छा नहीं होती। प्रेम और वैराग्य विपरीत प्रतीत होते हुए भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैैं। ऊपर कहा था प्रेम तुम्हारा स्वभाव है और प्रेम में पीड़ा उसकी प्रथम अंतर्दृष्टि है। ऊर्जा दूसरी अंतर्दृष्टि है और दिव्य प्रेम तीसरी अंतर्दृष्टि है। दिव्य प्रेम की एक झलक संपूर्णता लाती है और सभी सांसारिक सुखों को तुच्छ बना देती है। चौथी अंतर्दृष्टि समाधि और पांचवीं है अद्वैत के प्रति सजगता अर्थात सब कुछ बस सिर्फ एक से ही बना है।

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प्रेम तीन प्रकार का होता है- पहला, जो आकर्षण से पैदा हो, दूसरा, जो सुविधा के कारण उत्पन्न हो और तीसरा प्रेम है ईश्वर के प्रति प्रेम। प्रेम के अनेकानेक स्वरूप हैं लेकिन इसकी जो अभिव्यक्ति है हर स्थान, समय के अनुसार बदलती रहती है। सांसारिक प्रेम महासागर की तरह होता है पर महासागर का भी एक तल है। दिव्य प्रेम आकाश की तरह होता है, असीम और अनंत। महासागर के तल से ऊपर उठ जाओ विशाल नभ की ओर तो आपको दिव्य प्रेम की अनुभूति होगी। इस जीवन का सार प्रेम शब्द जो जान ले, वही सफल इंसान, बिना प्रेम की जिंदगी, जैसे रेगिस्तान।

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Content Editor

Sarita Thapa

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