Inspirational Context: लोकसेवा, जहां दूसरों की सेवा बनती है आत्मा की खुशी का रास्ता

punjabkesari.in Thursday, May 22, 2025 - 07:01 AM (IST)

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Inspirational Context: यह जीवन केवल अनित्य और क्षणभंगुर ही नहीं, दुख रूप भी है। हम जिधर दृष्टि दौड़ाते हैं, उधर हमें दुख ही दुख नजर आता है। बचपन से लेकर मृत्युपर्यंत दुख का ही एकछत्र साम्राज्य है। जन्मते ही, बल्कि यूं कहे कि माता के गर्भ में आते ही इस जीव को दुख चारों और से आ घेरते हैं। माता के उदर में जब तक यह जीव रहता है तब तक घोर कष्ट का अनुभव करता रहता है। सुखपूर्वक सांस भी नहीं ले पाता।

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गर्भ से बाहर निकलते समय भी उसे घोर यंत्रणा होती है, वह चेतनाशून्य हो जाता है। उस समय कई बालक तो उस कष्ट को न सह सकने के कारण प्राण त्याग देते हैं। मृत्यु के समय का दुख भी हम सब लोग देखते ही हैं। उस समय मनुष्य की कैसी असहाय अवस्था हो जाती है। उसके रोम-रोम से निराशा टपकने लगती है। वह कैसे कष्ट से प्राण त्यागता है। जिन घर-जमीन, स्त्री-पुत्र, धन-दौलत को उसने बड़ी ममता से पाला-पोसा था, उन्हें सहसा बाध्य होकर त्यागने में उसे कितने कष्ट का अनुभव होता है-इसे मरने वाला ही जानता है।

बुढ़ापे के दुख भी हमसे छिपे नहीं हैं। वृद्धावस्था में प्राय: मनुष्य की सारी इंद्रियां शिथिल, दृष्टि मंद हो जाती हैं, कानों से ठीक तरह सुनाई नहीं देता, चमड़ी सिकुड़ जाती है, दांत जवाब दे देते हैं, बिना सहारे के चलना कठिन हो जाता है, घर के लोग अनादर करने लगते हैं, बुद्धि भी प्रभावित हो जाती है। व्याधि का तो किसी न किसी रूप में थोड़ा-बहुत सभी को अनुभव है। प्राय: सभी को न्यूनाधिक रूप में व्याधियों का शिकार होना पड़ता है। बड़े-बड़े महात्माओं और लोकोपकारी व्यक्तियों का भी व्याधियों से पिंड नहीं छूटता। वियोग तो सबके साथ लगा ही हुआ है। जिस वस्तु के समागम से हमें सुख की अनुभूति होती है, वही वियोग होने पर दुख का कारण बन जाती है। धन को ही ले लीजिए। धन के उपार्जन में कष्ट होता है, उसकी रक्षा करने में कष्ट उठाना पड़ता है, उसको बढ़ाने में भी कष्टों का सामना करना पड़ता है, उसे अनिच्छापूर्वक त्यागने में, खर्च करने में भी कष्ट होता है और उसके नाश होने में, चले जाने में तो कष्ट होता ही है।

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अब प्रश्र यह उठता है कि इस दुख से बचने का उपाय क्या है? धर्मग्रंथ कहते हैं कि स्वेच्छापूर्वक विषयों के त्याग में ही सुख है। हम लोगों ने भ्रम से विषयों में सुख मान रखा है। वास्तव में जिसके पास जितना अधिक विषयों का संग्रह है, वह उतना ही दुखी है। धन की तीन गतियां मानी गई हैं-दान, भोग और नाश। हमारे शास्त्रों ने दान को ही सर्वोत्तम गति माना है। धन की रक्षा का भी सर्वोत्तम उपाय दान ही है। वही धन सुरक्षित है, जिसे हम दूसरों की सेवा में, भगवान की सेवा में लगा देते हैं। धन का नाश एक न एक दिन अवश्यंभावी है-चाहे उसे हम भोगों के निमित्त खर्च करके नष्ट कर दें, चाहे उसे दूसरे हड़प जाएं, सरकार कर के रूप में ले ले अथवा हम ही उसे छोड़कर संसार से चल बसें। धन को अक्षय, स्थायी बनाने का एकमात्र उपाय उसे भगवान, जनता-जनार्दन की सेवा में लगाना ही है। जो सच्चा सुख चाहते हैं, उन्हें परमात्मा की ही शरण लेनी चाहिए, उन्हीं में मन लगाकर उन्हीं की भक्ति, उन्हीं की सेवा करनी चाहिए। जगत को जनार्दन समझकर जगत की सेवा करना भी भगवान की ही सेवा है। फिर हमारे लिए सर्वत्र कल्याण ही कल्याण है।

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Content Editor

Sarita Thapa

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