हिंदू संस्कृति है अभिवादन, करने वाले को मिलता है कैसा फल?

punjabkesari.in Saturday, Jul 23, 2022 - 04:34 PM (IST)

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अक्सर देखा जाता है जब भी कोई किसी से मिलता है, किसी के घर आता है तो सबसे पहले वाला उसका अभिवादन करता है। हिंदू धर्म की बाद करें तो इसमें अभिवादन का अधिक महत्व माना जाता है। परंतु क्यों, इस बारे में कोई विचार नहीं करता। दरअसल इससे न केवल हमराा धर्म बल्कि हमारी संस्कृति जुड़ी हुई है। तो आइए जानते हैं आखिर क्या है अभिवादन और इसे कैसे किया जाता है।

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुॢवद्या यशो बलम्।।
विधि-उत्तानाभ्यां हस्ताभ्यां दक्षिणेन दक्षिणं
सव्यं स्वयेन पादावभिवादयेत्।

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अभिवादन (प्रणाम) करने वाले तथा नित्य वृद्ध पुरुषों की सेवा करने वाले पुरुष की आयु, विद्या, कीर्ति और शक्ति में वृद्धि होती है। अपने दोनों हाथों को ऊपर की ओर सीधा रखते हुए दाहिने हाथ से दाहिने पैर और बाएं हाथ से बाए पैर का स्पर्श करते हुए अभिवादन करें। वृद्ध पुरुषों को नित्य प्रणाम करने से वे प्रसन्न होकर अपने दीर्घकालीन जीवन में प्राप्त ज्ञान का दान प्रणाम करने वालों को देते हैं, जिसका सदुपयोग करके मनुष्य दीर्घायु, यश और बल प्राप्त कर लेता है इसीलिए वृद्धों के अभिवादन का फल विद्या, आयु, यश और बल की वृद्धि बताया गया है। मनुष्य के शरीर में रहने वाली विद्युत शक्ति पृथ्वी के आकर्षण द्वारा आकृष्ट होकर पैरों से निकलती रहती है, दाहिने हाथ से दाहिने पैर और बाएं हाथ से बाएं पैर का स्पर्श करने पर वृद्ध पुरुष के शरीर की विद्युत शक्ति का प्रवेश प्रणाम करने वाले पुरुष के शरीर में सुगमता से हो जाता है। उस विद्युत शक्ति के साथ वृद्ध पुरुष के ज्ञानादि सद्गुणों का भी प्रवेश हो जाता है। श्रद्धारूप सात्विक सहयोगी के कारण सात्विक ज्ञानादि सद्गुणों का ही प्रवेश होता है। क्रोधि दुर्गुणों का नहीं। इस प्रकार ज्ञानदान द्वारा प्रत्यक्ष रूप में और विद्युत शक्ति प्रवेश द्वारा अप्रत्यक्ष रूप में उनके गुणों की प्राप्ति प्रणाम करने वाले व्यक्ति को होती है। विद्युत शक्ति, मुख्य रूप से पैरों द्वारा निकलती है, इसलिए पैर ही छुए जाते हैं सिर आदि नहीं। 

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हाथ जोड़ कर सिर झुकाना : जब वृद्ध पुरुष समीप होते हैं तब उक्त रीति से पैर छूते हैं और जब वे कुछ दूर होते हैं तब हाथ जोड़कर सिर झुकाते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि हमारी क्रियाशक्ति और ज्ञानशक्ति आपके अधीन है, आप जो आज्ञा देंगे उसे सिर से स्वीकार करेंगे और हाथों से करेंगे। अन्य सभी जीवों में चलना, फिरना, खाना-पीना, तैरना आदि जीवनोपयोगी चेष्टाएं प्राय: बिना शिक्षा के ही प्राकृत नियमानुसार स्वत: प्राप्त हो जाती हैं किन्तु मनुष्य को इनकी भी शिक्षा द्वारा ही प्राप्ति होती है।

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इस दृष्टि से देखा जाए तो मनुष्य अन्य सभी प्राणियों से गया-बीता प्राणी सिद्ध होता है। इसका एकमात्र कारण यह है कि मनुष्य को जैसा ज्ञान मिला है वैसा अन्य किसी भी प्राणी को नहीं मिला। इस विशेष ज्ञान के बल से ही यह लघुकाय मानव विशालकाय हाथी जैसे प्राणियों को इस लोक में अपने वश में रखता है। कृष्ण भक्त जय श्री कृष्ण कहते हैं। संन्यासियों के प्रति गृहस्थ मनुष्य ‘ॐ नमो नारायणाय’ कह कर अभिवादन करते हैं और संन्यासी महात्मा ‘जय नारायण’ कहते हैं। यहां भी परस्पर एक-दूसरे को नारायण रूप में देखना चाहिए। मातृ वंदना : संसार में जितने वंदनीय गुरुजन हैं, उन सबकी अपेक्षा माता परम गुरु होने के कारण विशेष वंदनीय हैं।

शास्त्रों में तो यहां तक कहा गयाहै कि माता का गौरव पिता से हजार गुणा अधिक है। सारे संसार द्वारा वंदनीय संन्यासी को भी माता की वंदना प्रयत्नपूर्वक करनी चाहिए। इसके अलावा इनमें उल्लेख किया गया है पिता आदि गुरुजन पतित को जाएं तो उनका त्याग कर देना चाहिए परंतु माता यदि पतित भी हो जाए तो भी उसका त्याग नहीं करना चाहिए। माता और पिता के बीच में यदि विवाद हो जाए तो पुत्र उनके बीच में किसी तरफ से न बोले। अत: माता को सर्वाधिक गौरव देना तथा सर्ववंदनीय संन्यासी द्वारा भी वंदनीया बताना सर्वथा उचित ही है।

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Content Writer

Jyoti

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