शास्त्र कहते हैं, जैसे माता-पिता वैसी संतान

punjabkesari.in Monday, Jul 31, 2017 - 12:15 PM (IST)

भगवान राम जैसे महापुरुष का जन्म रघु, अज और दिलीप आदि पितामहों के तप की परिणति थी, तो योगेश्वर कृष्ण का जन्म देवकी और वसुदेव के कई जन्मों की तपश्चर्या का पुण्यफल था। अठारह पुराणों के रचयिता व्यास का आविर्भाव तब हुआ था जब उनकी 5 पितामह पीढिय़ों ने घोर तप किया था। हमारे बच्चे श्रेष्ठ, सद्गुणी बनें,  इसके लिए मातृत्व और पितृत्व को गंभीर अर्थ में लिए बिना काम नहीं चलेगा।


महाभारत के समय की घटना है। द्रोणाचार्य ने पांडवों के वध के लिए चक्रव्यूह की रचना की। उस दिन चक्रव्यूह का रहस्य जानने वाले एकमात्र अर्जुन को कौरव बहुत दूर तक भटका ले गए। इधर पांडवों के पास चक्रव्यूह भेदन का आमंत्रण भेज दिया। जब सारी सेना सन्नाटे में थी, तब 16 वर्षीय राजकुमार अभिमन्यु खड़े हुए और बोले, ‘‘मैं चक्रव्यूह भेदन करना जानता हूं।’’


युधिष्ठिर ने आश्चर्य से प्रश्र किया, ‘‘मैंने तो तुम्हें कभी भी चक्रव्यूह सीखते नहीं देखा, और न ही सुना।’’ 


अभिमन्यु ने कहा, ‘‘जब मैं अपनी मां सुभद्रा के पेट में था। मां को जब प्रसव पीड़ा प्रारंभ हुई, तब मेरे पिता अर्जुन पास ही थे। मां का ध्यान दर्द की ओर से बंटाने के लिए उन्होंने चक्रव्यूह के भेदन की क्रिया बतानी प्रारंभ की। 6 द्वारों के भेदन की क्रिया बताने तक मेरी मां ध्यान से सुनती रही और गर्भ में बैठा हुआ मैं उसे सीखता चला गया पर सातवें और अंतिम युद्ध की बात बताने से पूर्व ही मां को निद्रा आ गई, उन्हीं के साथ मैं भी विस्मृति में चला गया। उसके बाद मेरा जन्म हो गया। 6 द्वार तो मैं आसानी से तोड़ लूंगा। सातवें में सहायतार्थ आप सब पहुंच जाएंगे तो उसे भी तोड़ लूंगा।’’


यह घटना उस सत्य की ओर संकेत करती है कि पुत्र गर्भ में आए, उससे पूर्व ही माता-पिता को अपनी शारीरिक और मानसिक तैयारी प्रारंभ कर देनी चाहिए। वर्षों पहले अमेरिका में जन्मे एक बालक की बड़ी चर्चा चली। इस बालक की आंख में ‘जे’ और ‘डी’ की आकृति उभरी हुई थी। वैज्ञानिकों ने उसकी बहुत जांच की पर कारण न जान पाए। आखिर इस गुत्थी को मनोवैज्ञानिक ने सुलझाया। युवती ने उन्हें बताया कि मैं अपने विद्याध्ययन काल से ही जॉन डिक्सन की विद्वता से प्रभावित रही हूं। मेरी सदा से यह इच्छा रही है कि मेरी जो संतान हो वह जॉन डिक्सन की तरह ही विद्वान हो। मैंने अपनी यह इच्छा कभी किसी को बताई तो नहीं पर जब भी इस बात की याद आती, मैं अक्सर दीवार या कापी पर जे.डी. अक्षर लिखकर अपनी स्मृति को गहरा करती रही हूं। उन्होंने अपने अध्ययनकाल की कई कापियां और पुस्तकें भी दिखाईं, जिनमें जे.डी. लिखा मिला।


हमारे पूर्वज इन तथ्यों से पूर्ण परिचित थे, तभी उन्होंने न केवल ऐसी जीवन व्यवस्था निर्मित की थी, जिससे जाति स्वत: ही श्रेष्ठ आचरण वाली संतान देती चली जाती है। गर्भाधान को उन्होंने षोड्श संस्कारों में से एक संस्कार माना था और उसे पूर्ण पवित्रता के साथ सम्पन्न करने की प्रथा प्रचलित की थी। बालक का निर्माण माता-पिता भाव भरे वातावरण में किया करते थे और जैसी आवश्यकता होती थी, उस तरह की संतान समाज को दे देते थे। सती मदालसा ने अपने तीनों पुत्रों विक्रांत, सुबाहु और अरिदमन को जो शिक्षा-दीक्षा और संस्कार दिए, वे पारमार्थिक और पारलौकिक थे। फलत: उन तीनों ने ही प्रौढ़ावस्था में पहुंचने से पूर्व ही संन्यास धारण कर अपना सारा जीवन लोकमंगल में लगा दिया।


महारानी की शिक्षा से महाराज ऋतुध्वज बहुत चिंतित हुए। उन्होंने मदालसा से कहा कि यदि ऐसा ही रहा तो राज-काज कौन संभालेगा? इस बार जो पुत्र हुआ उसे मदालसा  ने राजनीति की शिक्षा दी और कहा, ‘‘तुम राज्य करो। अपने मित्रों को आनंदित करो, सज्जन पुरुषों की रक्षा करना, यज्ञ करना, गौ और ब्राह्मणों की रक्षा के लिए युद्ध अनिवार्य हो तो युद्ध करना, भले ही रणभूमि में तुम मृत्यु को प्राप्त हो।’’


ये उदाहरण इस बात के प्रतीक हैं कि बालक माता-पिता के शारीरिक और मानसिक सांचे और ढांचे में ढले, समाज एवं संस्कृति द्वारा संस्कारित मिट्टी के पुतले होते हैं। जैसे माता-पिता होंगे, वैसी ही संतान होगी। राम वन गए, तब की घटना है। राम ने लक्ष्मण के चरित्र की परीक्षा लेनी चाही। उन्होंने प्रश्र किया, ‘‘हे लक्ष्मण! सुंदर पुष्प, पके हुए फल और मदमस्त यौवन देखकर ऐसा कौन है जिसका मन विचलित न हो जाए?’’


इस पर लक्ष्मण ने उत्तर दिया, ‘‘आर्य श्रेष्ठ! जिसके पिता का आचरण सदैव से पवित्र रहा हो, जिसकी माता पतिव्रता रही हो, उनके रज-वीर्य से उत्पन्न बालकों के मन कभी चंचल नहीं हुआ करते।’’


लक्ष्मण का यह उपदेश माता-पिता को यह सोचने के लिए विवश करता है कि यदि श्रेष्ठ संतान की आवश्यकता है तो उसे ढालने के लिए अपना चरित्र सांचे की तरह बनाना चाहिए। 


संस्कारों की पूर्व सूत्रधार माता ही है। वह जिस तरह के संकल्प और विचार बच्चे में पैदा करती है, वैसी ही उसमें ग्रहणशीलता और आविर्भाव हो जाता है और बाद में उसी तरह के तत्व वह संसार में ढूंढकर अपने संस्कारजन्य गुणों का अभिवद्र्धन करता है। संस्कारवान माताएं बच्चों के चरित्र  की नींव बाल्यावस्था में डालती हैं। महिलाओं को यह ज्ञान होना नितांत आवश्यक है कि संतान कामवासना का परिणाम नहीं है, काम तो मात्र एक प्रेरक तत्व है जो एक आत्मा के अवतरण के लिए माता-पिता को प्रेरित करता है।


गर्भावस्था में बच्चा अपनी माता के केवल प्रकट आचरण से ही प्रभावित नहीं होता, उससे तो बहुत हल्का असर बालक की मनोभूमि पर पड़ता है, अधिकांश प्रभाव तो मानसिक भावनाओं और विचारणाओं का होता है।


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