गीता ज्ञान: जानें, अनजाने में आप से कैसे हो जाते हैं पाप

punjabkesari.in Tuesday, Jun 09, 2020 - 10:44 AM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

Gita gyan: ‘‘मनसा कर्मणा वाचा’’ के सिद्धांत के अनुसार मनुष्य के मन, वाणी तथा शरीर द्वारा एक जैसे कर्म होने चाहिएं। ऐसा हमारे धर्मशास्त्र कहते हैं। मन में कुछ हो, वाणी कुछ कहे और कर्म सर्वथा इनसे भिन्न हो, इसे ही मिथ्या आचरण कहा गया है।

कर्मोन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। इन्द्रियार्थान्विमूढ़ात्मा मिथ्याचार: स उच्यते।।

श्री गीता जी में लिखा है कि जो मूर्ख बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर उन इन्द्रियों के विषयों का चिंतन करता है, वह पाखण्डी कहा जाता है।

कैकेयी ने दशरथ से भगवान श्री राम के वनवास जाने का वर मांगा। वचन से बंध जाने के कारण, भगवान श्री राम ने अपने पिता के वचन धर्म की रक्षा हेतु वन गमन स्वीकार किया।

‘‘रघुकुल रीति सदा चली आई। प्राण जाए पर वचन न जाई।’’

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हमारे धर्मशास्त्रों में वचन धर्म को अत्यधिक महत्व दिया गया है। इसी में धर्म का मर्म एवं शास्त्र मर्यादा के पालन का रहस्य छुपा हुआ है।

जब स्वयंवर में अर्जुन ने द्रौपदी को प्राप्त किया और वे सब भाइयों सहित अपनी माता कुंती के समक्ष पहुंचे। तब भूलवश कुंती के मुख से यह निकल गया कि तुम उपहार स्वरूप जो कुछ भी लाए हो, उसे आपस में बांट लो। अपनी माता के वचनों को असत्य न प्रमाणित करने के उद्देश्य से पांचों पांडवों ने द्रौपदी को अपनाया। वास्तव में यह पूर्वजन्म में भगवान शिव द्वारा द्रौपदी को दिए वर का परिणाम था कि उसने भगवान शिव से सर्वगुण संपन्न पति के लिए पांच बार प्रार्थना की। तब भगवान शिव के वरदान के प्रभाव से उसे पांच पति प्राप्त हुए। पांडव सदैव कर्तव्य धर्म का पालन करते थे। उन्होंने अपनी माता के वचन धर्म की रक्षा की।

मनुष्य का यह स्वभाव रहा है कि वह परिस्थितियों को अपने प्रतिकूल देखकर अपने वचनों से मुंह फेर लेता है लेकिन जो धर्म परायण मनुष्य होते हैं वे मन, वाणी और शरीर द्वारा एक जैसे होते हैं। सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र को केवल एक स्वप्न आया कि उन्होंने अपना राज-पाट महर्षि दुर्वासा को दान दे दिया है। प्रात:काल होते ही सत्य में ही उन्होंने अपना संपूर्ण राज्य महर्षि दुर्वासा को दे दिया।

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अपने वचनों से मुंह मोड़ लेने पर न केवल मनुष्य की गरिमा एवं प्रतिष्ठा कम होती है बल्कि उसकी विश्वसनीयता पर भी प्रश्र चिन्ह लग जाता है। ऊपर बताए गए प्रसंगों पर सही उतर पाना मॉडर्न समय में किसी के लिए भी संभव नहीं है परंतु मनुष्य को इतना प्रयास अवश्य करना चाहिए कि वह अपने वचनों की मर्यादा का मान रखे। भीष्म पितामह ने आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत रखा और वह अपने इस व्रत पर अटल रहे। वचन धर्म पालन और उसकी रक्षा के अनेकानेक वृतांत हमारे धर्म-ग्रंथों में हैं। शरण में आए हुए की रक्षा हेतु वचन इत्यादि दृष्यंत तथा भगवान श्री कृष्ण द्वारा महाभारत के युद्ध में शस्त्र न उठाने का वचन, समाज के प्रति संवेदनशीलता तथा जगत की भलाई के लिए ईमानदारी को बताता है।

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ऐसा व्रत जिसमें सभी धरती पर रहने वालों का कल्याण हो, ऐसा वचन जिसमें किसी का नुक़सान न हो, निश्चित रूप से हमेशा के लिए धर्म बन जाता है। ‘सत्यं धर्म सनातनं’ सनातन धर्म का मूल ही सत्य है। हम जो कुछ भी मन के द्वारा लोक कल्याण के विषय में सोचते हैं, वाणी के द्वारा उसके बारे में बात करते हैं और कर्म के द्वारा उन्हें यूज करते हैं। इसके द्वारा शास्त्र का सिद्धांत ‘मनसा कर्मणा वाचा’ अवश्य ही महत्वपूर्ण होता है। अगर हम सुशोभित वाणी के द्वारा दिखावे के तौर पर समाज में स्वार्थ भाव से कर्म करते हैं तो वे केवल नश्वर फल प्रदान करते हैं और जीव ‘मनसा कर्मणा वाचा’ से जो शुभता प्राप्त होती है, उसे वह नहीं मिल पाती।

 

 


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Niyati Bhandari

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