Ghantaghar Meerut: यह है मेरठ का अनूठा घंटाघर, पेंडुलम की आवाज पर चलता था पूरा शहर
punjabkesari.in Wednesday, Aug 21, 2024 - 11:07 AM (IST)
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Ghantaghar Meerut: क्या किसी एक घड़ी से पूरे शहर और आसपास के गांवों के लोग अपनी घड़ी मिला सकते हैं। आप कहेंगे ऐसा कैसे हो सकता है लेकिन मेरठ घंटाघर के साथ किसी जमाने में ऐसा ही था।
इसका शिलान्यास 17 मार्च, 1913 को हुआ जो करीब एक साल में बनकर तैयार हुआ था। इस घड़ी के घंटे की आवाज 15 किलोमीटर दूर तक जाती थी। शहर ही नहीं, आसपास के गांवों के लोग भी इस घंटे की आवाज से अपनी घड़ी का मिलान किया करते थे।
घड़ी के लगते क्षेत्र का नाम घंटाघर पड़ा
शहर के बीचों-बीच इस घड़ी के लगते ही इस क्षेत्र का नाम घंटाघर पड़ गया। बताते हैं कि यहां लगने वाली घड़ी जर्मनी से मंगाई गई थी लेकिन जिस समुद्री जहाज से घड़ी लाई जा रही थी, वह जहाज डूब गया। इसके बाद 1914 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में लगी घड़ी यहां लगाई गई। फिर तो मेरठ के घंटाघर की यह घड़ी सही समय देने की मिसाल बन गई।
चार पीढ़ियों से इस घंटाघर को करीब से देखने और रखरखाव का जिम्मा उठाने वाले परिवार के 84 वर्षीय शमशुल अजीज का कहना है कि मेरठ का घंटाघर देश का एक मात्र ऐसा घंटाघर है, जिसके नीचे से तीन ट्रक एक साथ गुजर सकते हैं।
शाहरुख खान की फिल्म में यह घंटाघर
शाहरुख खान अभिनीत फिल्म ‘जीरो’ मेरठ पर आधारित थी। इसमें मेरठ का घंटाघर केंद्र बिन्दू था लेकिन घंटाघर की घड़ी बंद थी तो शाहरुख खान ने इसे ठीक कराने के लिए छह लाख रुपए दिए थे। फिल्म प्रदर्शित भी हो गई लेकिन अभी तक घंटाघर की घड़ी बंद पड़ी है।
कम आबादी और ट्रैफिक जाम भी नहीं
उस समय घंटाघर के करीब सिर्फ टाऊन हाल था और दिल्ली के लिए बस स्टैंड भी घंटाघर के नजदीक था। घंटाघर के चारों ओर चुनिंदा दुकानें ही थीं। आज की तरह ट्रैफिक जाम की समस्या नहीं थी। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान यहां टाऊन हाल में अक्सर बैठकें और जनसभाएं होती थीं।
1990 के बाद घंटाघर की घड़ी से लोगों को समय मिलाने में दिक्कतें आनी शुरू हुईं क्योंकि इस बड़ी घड़ी के पीतल के पार्ट चोरी हो गए थे। इसके बाद घंटाघर की घड़ी बंद हो गई। यह घड़ी तब से लेकर अब तक लगातार और ठीक भी नहीं चल पाई। बीच-बीच में कुछ निजी प्रयास हुए लेकिन कुछ समय यह ठीक रही, फिर बंद हो गई।
मेरठ शहर की शान
घंटाघर मेरठ शहर की शान है। घड़ी बंद होने से लगता है जैसे कुछ मिसिंग है। बढ़ती आबादी, बढ़ते कारोबार और ट्रैफिक जाम से घंटाघर क्षेत्र पूरी तरह बदल गया है, जबकि जरूरत है मेरठ की इस धरोहर को संजोने की। इसके लिए सरकारी मशीनरी को तत्परता से आगे आना होगा। घंटे की आवाज से चलता था शहर उस समय शोर-शराबा कम था तो हर घंटे की आवाज गूंजती थी। मंदिर-मस्जिद इसकी आवाज से खुलते थे, तो किसान खेतों के लिए निकलते थे। यहां घंटाघर होने से तब लोग बहुत खुश थे।