ये है पाप और पुण्य में अंतर, समझ लिया तो जीवन में नहीं खाएंगे ठोकर
punjabkesari.in Sunday, Apr 12, 2020 - 01:23 PM (IST)
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यह घटना 1899 की है। उन दिनों कलकत्ता में प्लेग फैला हुआ था। कलकत्ता में शायद ही कोई ऐसा घर बचा था जिसमें इस रोग का प्रवेश न हुआ हो। प्लेग ने असमय ही अनेक लोगों को मौत की नींद सुला दिया। यह देखकर हर ओर त्राहि-त्राहि मच गई। जिस भी घर का प्राणी मरता, वहां रोने की चित्कारें गूंजने लगती थीं। सभी परेशान थे।
ऐसे में स्वामी विवेकानंद, उनके कई शिष्य स्वयं रोगियों की सेवा करते रहे। वे नगर की गलियां और बाजार साफ करते और जिस घर के मरीज इस बीमारी की चपेट में आ गए थे, उन्हें दवा आदि देकर उनका उपचार करते। तभी कुछ पंडितों की मंडली स्वामी जी के पास आई और बोली, ‘‘स्वामी जी, आप यह ठीक नहीं कर रहे हैं। इस धरती पर पाप बहुत बढ़ गया है इसलिए इस महामारी के रूप में भगवान लोगों को दंड दे रहे हैं। आप लोगों को बचाने का यत्न कर रहे हैं। ऐसा करके जाने-अनजाने आप भगवान के कार्यों में बाधा डाल रहे हैं जो अच्छी बात नहीं है।’’
यह सुनकर स्वामी जी गंभीरता से बोले, ‘‘आप सब यह तो जानते ही होंगे कि मनुष्य इस जीवन में अपने कर्मों के कारण कष्ट और सुख पाता है। ऐसे में जो व्यक्ति कष्ट से पीड़ित है और तड़प रहा है, यदि दूसरा व्यक्ति उसके घावों पर मरहम लगा देता है और उसके कष्ट को दूर करने में मदद करता है तो वह स्वयं ही पुण्य का अधिकारी बन जाता है। अब यदि आपके अनुसार प्लेग से पीड़ित लोग पाप के भागी हैं तो भी हमारे जो सेवक इनकी मदद कर रहे हैं, वे तो पुण्य के भागी बन ही रहे हैं न! बोलिए इस संदर्भ में आपका क्या कहना है?’’
स्वामी जी की बात सुनकर सभी पंडित भौंचक्के रह गए और चुपचाप सिर झुकाकर वहां से चले गए।