ईश्वर की उपासना कहीं भी हो सकती है, फिर धार्मिक स्थानों की आवश्यकता क्यों?

punjabkesari.in Wednesday, Nov 16, 2016 - 01:16 PM (IST)

मंदिर आदि धर्मस्थल बनाने का विचार कैसे उठा
सांख्य शस्त्र के अनुसार संसार की उत्पत्ति प्रकृति द्वारा हुई है। यह प्रकृति तीन पदार्थों (उपादानों) से निर्मित हुई है-सत्व, रज और तम। इनको गुण (रस्सी) भी कहते हैं। तम पदार्थ केवल अंधकार स्वरूप है : जो कुछ अज्ञानात्मक और जड़ या भारी है। रज पदार्थ क्रिया शक्ति है और सत्व पदार्थ स्थिर एवं प्रकाश स्वभाव है। 


जगत की सृष्टि निर्मित होने से पूर्व प्रकृति साम्यभाव में रहती है उसके तीनों पदार्थ (उपादान) भी साम्यभाव से रहते हैं। 


जगत निर्मित होने के बाद यह साम्य अवस्था नष्ट हो जाती है और तीनों पदार्थ (उपादान) अलग-अलग रूप से परस्पर मिश्रित होते रहते हैं और उसी का फल है यह नामरूप जगत।


मनुष्य शरीर भी प्रकृति से बना है और उसमें भी उपरोक्त तीनों पदार्थ (उपादान) विद्यमान हैं। जब सत्व प्रबल होता है तब ज्ञान का उदय होता है : रज प्रबल होने पर क्रिया की वृद्धि होती है और तम प्रबल होने पर अंधकार, आलस्य और अज्ञान उत्पन्न होता है।


त्रिगुणमयी प्रकृति का सर्वोच्च प्रकाश है महत (चिन्हमात्र) या वृद्धि तत्व। प्रत्येक मानववृद्धि इसी का एक अंश मात्र होती है। इस महत तत्व से अहंकार (अहंतत्व) पैदा होता है जिसका अर्थ है एक से अनेक होना। जब पारा जमीन पर गिरता है तब उसकी कोई छोटी-छोटी गोलियां बन जाती हैं। जब अनार फल को खोलते हैं तो उसमें से अनेक दाने निकलते हैं, इसी प्रकार यही एक से अनेक होना अहंकार अर्थात ‘मैं-मैं’ करना है।


अहंकार से सूक्ष्म महाभूतों की उत्पत्ति होती है जिन्हें ‘तन्मात्रा’ कहते हैं। फिर इन्हीं से पांच महाभूत उत्पन्न होते हैं। जिनसे मनुष्य शरीर या अन्य प्राणियों के शरीर बनते हैं। हर मनुष्य की अपनी एक प्रकार की ज्योति होती है अर्थात प्रत्येक प्राणी में से एक प्रकार का प्रकाश बाहर निकलता रहता है। हम में से सभी उसे नहीं देख पाते। यह ऐसे ही होता है जिस प्रकार फूलों में से सदैव सुगंध निकलती रहती है। यह सुगंध सूक्ष्म अति सूक्ष्म परमाणु स्वरूप ‘तन्मात्रा’ ही होती है जो हमारे शरीर से भी हमेशा निकलती रहती है। 


प्रतिदिन हमारे शरीर से शुभ या अशुभ किसी न किसी प्रकार की शक्ति बाहर निकलती रहती है। हम जहां भी जाते हैं वहीं का वातावरण इन ‘तन्मात्राओं’ से पूर्ण रहता है। इसका असल रहस्य न जानते हुए भी इसी से मनुष्य के मन में अनजाने में मंदिर, गिरजा आदि स्थान बनाने का भाव आया। भगवान को भजने के लिए मंदिर बनाने की क्या आवश्यकता थी? क्यों? कहीं भी तो ईश्वर की उपासना की जा सकती थी फिर ये मंदिर आदि क्यों?


इसका कारण यह है कि स्वयं इस समस्या को न जानने पर भी मनुष्य के मन में कुदरती तौर पर ही ऐसा भाव उठा था कि जहां लोग ईश्वर की उपासना करते हैं वह स्थान पवित्र तन्मात्राओं से परिपूर्ण हो जाता है। लोग प्रतिदिन वहां जाया करते हैं और मनुष्य जितना ही वहां आते-जाते हैं उतने ही वे पवित्र होते जाते हैं। साथ ही वह स्थान भी अधिकाधिक पवित्र होता जाता है। 


यदि किसी मनुष्य के मन में उतना सत्वगुण नहीं है और यदि वह भी वहां जाए तो वह स्थान उस पर अपना असर डालेगा और उसके अंदर सत्वगुण की वृद्धि करेगा। यही मंदिर या धार्मिक स्थानों की महत्ता है। इस संदर्भ में हमें सदैव स्मरण रखना चाहिए कि साधु व्यक्तियों के समागम पर ही उस स्थान की पवित्रता निर्भर रहती है। इसलिए सारी गड़बड़ी यह है कि मनुष्य धार्मिक स्थान का मूल उद्देश्य भूल जाता है। यह तो ऐसी ही बात है जैसे कि वह गाड़ी को बैल के आगे जोतना चाहता है।  
 


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