Chanakya Niti: इन 4 गुणों से मिलेगा हर दुःख का समाधान, जीवन होगा आनंदमय
punjabkesari.in Saturday, Oct 25, 2025 - 06:00 AM (IST)
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Chanakya Niti: नीति भारतीय इतिहास के महान कूटनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री और दार्शनिक आचार्य चाणक्य द्वारा रचित सिद्धांतों का एक संग्रह है। इन नीतियों में जीवन को सुखी, सफल और सार्थक बनाने के लिए व्यावहारिक ज्ञान निहित है। चाणक्य ने अपने गहन अनुभव और ज्ञान के आधार पर कुछ ऐसी अच्छी आदतों का वर्णन किया है, जिन्हें अपनाने से व्यक्ति अपने जीवन के सारे दुखों का अंत कर सकता है और परम सुख को प्राप्त कर सकता है। ये चार अच्छी आदतें केवल उपदेश नहीं हैं, बल्कि जीवन की मूलभूत सच्चाइयां हैं जिनका पालन व्यक्ति को मानसिक शांति, संतोष और सफलता की ओर ले जाता है।
संतोष
चाणक्य कहते हैं कि संतोष एक ऐसी आदत है जो मनुष्य को सबसे बड़ा धन और शांति प्रदान करती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति को प्रयास करना छोड़ देना चाहिए, बल्कि इसका अर्थ है कि व्यक्ति को अपनी वर्तमान स्थिति, अपनी क्षमताओं और अपने प्रयासों से प्राप्त परिणामों पर संतुष्ट रहना चाहिए। का अधिकांश दुःख असंतोष और अतिरिक्त लालसा के कारण होता है। जब वह हमेशा दूसरों से अपनी तुलना करता है और अपनी आवश्यकता से अधिक पाने की इच्छा रखता है, तो वह कभी भी शांत नहीं रह पाता। यह 'और अधिक' की चाहत ही तनाव, चिंता और निराशा को जन्म देती है।

संयम
संयम का अर्थ है अपनी इंद्रियों और भावनाओं पर नियंत्रण रखना। चाणक्य के अनुसार, एक संयमित जीवन शैली ही व्यक्ति को पतन और अनावश्यक कष्टों से बचाती है। असंयमित व्यक्ति अपनी इच्छाओं का दास बन जाता है। क्रोध, लोभ, मोह और आलस्य जैसी दुर्भावनाएं और अव्यवस्थित जीवनशैली उसे गलत निर्णय लेने, स्वास्थ्य खोने और संबंधों को बिगाड़ने की ओर धकेलती हैं।
सद्विचार और ज्ञान का निरंतर अभ्यास
चाणक्य ने हमेशा ज्ञान को सर्वोच्च शक्ति माना है। सही निर्णय लेने और जीवन के मायाजाल को समझने के लिए सद्विचार और निरंतर ज्ञानार्जन आवश्यक है। अज्ञानता और नकारात्मक सोच ही मनुष्य के अधिकांश दुखों की जड़ है। जब व्यक्ति के पास विवेक नहीं होता, तो वह गलत लोगों पर विश्वास करता है, बुरे कर्म करता है और जीवन की समस्याओं को सही ढंग से समझ नहीं पाता। भय, भ्रम और अंधविश्वास भी अज्ञानता से ही उत्पन्न होते हैं।

धर्म का पालन और परोपकार
चाणक्य नीति में धर्म का अर्थ केवल पूजा-पाठ नहीं है, बल्कि कर्तव्यों का पालन, नैतिक आचरण और परोपकार है। जब व्यक्ति अपने कर्तव्यों से विमुख होता है, अनैतिक साधनों का प्रयोग करता है या केवल अपने स्वार्थ के लिए जीता है, तो वह अंततः स्वयं के लिए दुःख और पश्चात्ताप का निर्माण करता है। दूसरों को हानि पहुंचाने या उनके अधिकारों का हनन करने से प्राप्त सुख अस्थायी होता है और कर्म के सिद्धांत के अनुसार दुःख बनकर लौटता है।

