Chanakya Niti: चाणक्य के अनुसार ये मानसिक दुःख इंसान को कर देता है बेबस
punjabkesari.in Monday, Jun 09, 2025 - 07:01 AM (IST)

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Chanakya Niti: प्राचीन भारत के महान चिंतक, कूटनीतिज्ञ और अर्थशास्त्र के जनक आचार्य चाणक्य ने जीवन के हर पहलू पर गहन और व्यावहारिक विचार प्रस्तुत किए हैं। उनकी लिखी चाणक्य नीति केवल एक ग्रंथ नहीं बल्कि जीवन को समझने और जीने की एक अद्भुत विधि है। आज की इस व्यस्त और तनावपूर्ण दुनिया में भी चाणक्य की नीतियाँ उतनी ही सार्थक हैं, जितनी वे उनके समय में थीं। चाणक्य नीति में एक विचार ऐसा है जो गहरे दर्द और मनोवैज्ञानिक संघर्ष की ओर इशारा करता है। चाणक्य कहते हैं- मनुष्य को सबसे अधिक खोखला अंदर से वो दुःख करता है जो न तो वह किसी से बांट पाता है और न ही भुला पाता है।
भीतर का दुःख
चाणक्य इस बात को भलीभांति समझते थे कि हर इंसान के जीवन में ऐसे अनुभव आते हैं जिन्हें वह शब्दों में नहीं बांट सकता। ये वे दर्द होते हैं जो किसी के सामने व्यक्त नहीं किए जाते लेकिन मन और आत्मा को अंदर से चीरते रहते हैं। ये दुःख बाहर से भले ही नजर न आएं लेकिन भीतर से इंसान को तोड़ देते हैं।ऐसे दुःखों का संबंध अक्सर रिश्तों में हुए विश्वासघात, अपनों के खोने, असफलता, आत्मग्लानि, या फिर अधूरी आकांक्षाओं से होता है। जब इंसान इनका सामना अकेले करता है, तो यह मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक स्तर पर उसे कमजोर बना देता है।
अकेलापन और अव्यक्त भावनाएं
चाणक्य के अनुसार, जो दुःख न तो साझा किए जाते हैं, न ही भुलाए जा सकते हैं, वे इंसान के मन में जमा होते रहते हैं। धीरे-धीरे ये भावनाएं इतना बोझ बन जाती हैं कि इंसान जीवन का आनंद लेना भूल जाता है। वह हंसते हुए भी रोता है, भीड़ में होते हुए भी अकेला होता है। अत्यधिक आत्म-संयम या भावनाओं को दबाने की प्रवृत्ति मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाल सकती है। डिप्रेशन, एंग्जायटी और आत्मसम्मान में गिरावट का कारण यही अव्यक्त दुःख बनते हैं।
दुःख को न स्वीकारना
चाणक्य नीति इस बात पर जोर देती है कि दुःख को पहचानना और स्वीकार करना आवश्यक है। हम जिस दुःख को नकारते हैं या छुपाते हैं, वह धीरे-धीरे हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है। यह हमारे विचारों, व्यवहार और निर्णयों को प्रभावित करता है। कई बार इंसान खुद को मजबूत दिखाने के चक्कर में भावनात्मक रूप से टूट चुका होता है लेकिन वह स्वीकार नहीं करता। वह हँसता है, काम करता है, मिलता-जुलता है, लेकिन भीतर से वह खोखला हो जाता है।
जीवन को मुश्किल बना देने वाला दुःख
चाणक्य की इस नीति का अंतिम और सबसे गंभीर पहलू यह है कि ऐसा दुःख व्यक्ति के लिए जीवन को जीने योग्य नहीं रहने देता। जब अंदर का भार अत्यधिक बढ़ जाता है तो इंसान न तो आगे बढ़ पाता है, न ही वर्तमान को जी पाता है। यह स्थिति आत्मविकास, रचनात्मकता और सामाजिक जुड़ाव को समाप्त कर देती है। व्यक्ति अपने ही जीवन से कटने लगता है। उसकी ऊर्जा खत्म हो जाती है और धीरे-धीरे वह आत्मघाती सोच की ओर बढ़ सकता है।