जिस व्यक्ति में हैं ये लक्षण, वह है पूर्णयोगी

punjabkesari.in Friday, Dec 23, 2016 - 03:50 PM (IST)

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार: स्वामी प्रभुपाद 


अध्याय छह ध्यानयोग


परमेश्वर में मन की एकाग्रता की समाधि 


सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च पापेषु समबुर्द्विशिष्यते।।1।।


सु-हृत्—हितैषी; मित्र—स्नेहपूर्ण हितेच्छु; अरि—शत्रु; उदासीन—शत्रुओं में तटस्थ; मध्य-स्थ—शत्रुओं में पंच; द्वेष्य—ईर्ष्यालु; बंधुषु—संबंधियों या शुभेच्छुकों में; साधुषु—साधुओं में; अपि—भी; च—तथा; पापेषु—पापियों में; सम-बुद्धि:—समान बुद्धि वाला; विशिष्यते—आगे बढ़ा हुआ होता है।


अनुवाद : जब मनुष्य निष्कपट हितैषियों, प्रिय मित्रों, तटस्थों, मध्यस्थों, ईर्ष्यालुओं, शत्रुओं तथा मित्रों, पुण्यात्माओं एवं पापियों को समान भाव से देखता है तो वह और भी उन्नत (विशिष्ट) माना जाता है।


योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थित:।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रह: ।।10।।


योगी—योगी; युञ्चीत—कृष्णचेतना में केंद्रित करें; सततम्—निरंतर; आत्मानम्—स्वयं को (मन, शरीर तथा आत्मा से); रहसि—एकांत स्थान में; स्थित:—स्थित होकर; एकाकी—अकेले; यत-चित्त-आत्मा—मन में सदैव सचेत; निराशी:—किसी अन्य वस्तु से आकृष्ट हुए बिना; अपरिग्रह—स्वामित्व की भावना से रहित, संग्रहभाव से मुक्त।


अनुवाद : योगी को चाहिए कि वह सदैव अपने शरीर, मन तथा आत्मा को परमेश्वर में लगाएं, एकांत स्थान में रहे और बड़ी सावधानी के साथ अपने मन को वश में करे। उसे समस्त आकांक्षाओं तथा संग्रहभाव की इच्छाओं से मुक्त होना चाहिए।


तात्पर्य : श्री कृष्ण की अनुभूति ब्रह्म, परमात्मा तथा श्रीभगवान के विभिन्न रूपों में होती है। संक्षेप में, कृष्णभावनामृत का अर्थ है : भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरंतर प्रवृत्त रहना परंतु जो लोग निराकार ब्रह्म अथवा अंतर्यामी परमात्मा के प्रति आसक्त होते हैं वे भी आंशिक रूप से कृष्णभावनाभावित हैं क्योंकि निराकार ब्रह्म कृष्ण की आध्यात्मिक किरण है और परमात्मा कृष्ण का सर्वव्यापी आंशिक विस्तार होता है।
इस प्रकार र्निवशेषवादी तथा ध्यानयोगी भी अपरोक्ष रूप से कृष्णभावनाभावित होते हैं। प्रत्यक्ष कृष्णभावनाभावित व्यक्ति सर्वोच्च योगी होता है क्योंकि ऐसा भक्त जानता है कि ब्रह्म और परमात्मा क्या हैं। उसका परमसत्य विषयक ज्ञान पूर्ण होता है, जबकि र्निवशेषवादी तथा ध्यानयोगी अपूर्ण रूप में कृष्णभावनाभावित होते हैं। 


इतने पर भी इन सब को अपने-अपने कार्यों में निरंतर लगे रहने का आदेश दिया जाता है जिससे वे देर-सवेर परम सिद्धि प्राप्त कर सकें। योगी का पहला कर्तव्य है कि वह कृष्ण पर अपना ध्यान सदैव एकाग्र रखे। उसे सदैव श्री कृष्ण का चिंतन करना चाहिए और एक क्षण के लिए भी उन्हें नहीं भुलाना चाहिए। परमेश्वर में मन की एकाग्रता ही समाधि कहलाती है। मन को एकाग्र करने के लिए सदैव एकांतवास करना चाहिए और बाहरी उपद्रवों से बचना चाहिए। योगी को चाहिए कि वह अनुकूल परिस्थितियों को ग्रहण करें और प्रतिकूल परिस्थितियों को त्याग दे, जिससे उसके साक्षात्कार पर कोई प्रभाव न पड़े। पूर्ण संकल्प कर लेने पर उसे उन व्यर्थ की वस्तुओं के पीछे नहीं पडऩा चाहिए जो परिग्रह भाव में उसे फंसा लें।


ये सारी सिद्धियां तथा सावधानियां तभी पूर्णरूपेण कार्यान्वित हो सकती हैं जब मनुष्य प्रत्यक्षत: कृष्ण भावनाभावित हो क्योंकि साक्षात कृष्णभावनामृत का अर्थ है : 

आत्मोत्सर्ग जिसमें संग्रहभाव (परिग्रह) के लिए लेशमात्र स्थान नहीं होता है। श्रील रूप गोस्वामी कृष्णभावनामृत का लक्षण इस प्रकार देते हैं :

अनासक्तस्य विषयान् यथार्हमुपयुञ्जत:।
निर्बंध: कृष्णसंबंधे युक्तं वैराग्यमुच्यते।।
प्रापञ्चिकतया बुद्धया हरिसंबन्धिवस्तुन:।
मुमुक्षभि: परित्यागो वैराग्यं फल्गु कथ्यते।।


‘‘जब मनुष्य किसी वस्तु के प्रति आसक्त न रहते हुए श्री कृष्ण से संबंधित हर वस्तु को स्वीकार कर लेता है तभी वह परिग्रहत्व से ऊपर स्थित रहता है। दूसरी ओर जो व्यक्ति श्री कृष्ण से संबंधित प्रत्येक वस्तु को बिना जाने त्याग देता है। उसका वैराग्य पूर्ण नहीं होता।’’ (भक्तिरसामृत सिंधु 2.255.256)। 


कृष्णभावनाभावित व्यक्ति भलीभांति जानता रहता है कि प्रत्येक वस्तु श्रीकृष्ण की है, फलस्वरूप वह सभी प्रकार के परिग्रहभाव से मुक्त रहता है। इस प्रकार वह अपने लिए किसी वस्तु की लालसा नहीं करता। वह जानता है कि किस प्रकार कृष्णभावनामृत के अनुरूप वस्तुओं को स्वीकार किया जाता है और कृष्णभावनामृत के प्रतिकूल वस्तुओं का परित्याग कर दिया जाता है। वह सदैव भौतिक वस्तुओं से दूर रहता है क्योंकि वह दिव्य है और कृष्णभावनामृत से रहित व्यक्तियों से किसी प्रकार का सरोकार न रखने के कारण सदा अकेला रहता है। अत: कृष्णभावनामृत में रहने वाला व्यक्ति पूर्णयोगी  होता है। 

(क्रमश:)


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