Best Motivational Story: जानें, आज की दौड़ में मर्यादा क्यों रह गई है सबसे पीछे
punjabkesari.in Friday, Sep 12, 2025 - 06:02 AM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
Best Motivational Story: सामाजिक जीवन के विशुद्ध स्वरूप को समझे बिना कोई भी व्यक्ति अपने सामाजिक कर्तव्यों का भली-भांति पालन करने में समर्थ नहीं हो सकता, इसलिए अपने इस सामाजिक जीवन को सर्वप्रथम समझना अत्यंत जरूरी है। जिस अवस्था में कोई मनुष्य अपने समाज संबंधी कर्तव्यों का पालन करता है, वह उसका सामाजिक जीवन समझा जाता है, अर्थात हमारे सभी कर्म, जिनसे समाज के ऊपर अच्छा और बुरा प्रभाव पड़ता है, वही मनुष्य का सामाजिक स्वरूप है। परिवार, ग्राम, नगर तथा राष्ट्र, ये सब समाज के ही रूप हैं। इन सबके साथ व्यक्ति का कैसा व्यवहार होना चाहिए, ये सब मर्यादाएं बनी हुई हैं। ऐसी मर्यादाओं का पालन करना ही मनुष्य का सामाजिक धर्म माना जाता है। इस सामाजिक धर्म का पालन करना ही उसके सामाजिक जीवन का विशुद्ध और वास्तविक स्वरूप समझना चाहिए।
अपने धर्म का पालन करना मनुष्य के लिए कितना अनिवार्य है, इसका संकेत हमें आर्य समाज के आधारभूत दस नियमों में से छठे नियम में मिलता है, जिसकी रचना आर्य समाज के संस्थापक महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती ने निम्न शब्दों में की है कि संसार का उपकार करना आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। इससे पता चलता है कि अपने समाज की उन्नति करना मनुष्य का अनिवार्य धर्म है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए जितना अपनी शारीरिक और आत्मिक उन्नति करना आवश्यक है, उतना ही सामाजिक उन्नति करना अनिवार्य है। हर व्यक्ति अपने समाज की उन्नति में सहायक बने क्योंकि उन्नत समाज के बिना व्यक्ति का विकास भी संभव नहीं।
सामाजिक उन्नति का अर्थ है समाज में प्रचलित कुरीतियों, दूषित परम्पराओं और संकीर्ण तथा स्वार्थ पूरक परम्पराओं को बदल कर समाज के इकाई रूपी सभी व्यक्तियों की शारीरिक और आत्मिक उन्नति के उपयोगी साधनों की उपलब्धियों और उनके प्रयोग से व्यक्तियों का उत्थान करना, जिससे व्यक्तियों के आपसी संबंधों में मधुरता और दृढ़ता आ सके, जिससे ये सामाजिक संबंध पनपते रहें। प्रत्येक व्यक्ति का सामाजिक धर्म यह प्रबल मांग करता है कि वह अपनी योग्यता, सामर्थ्य और अपने विशेष गुणों से समाज की शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक व आॢथक उन्नति को बढ़ाने के लिए यथासंभव और अधिक से अधिक योगदान देता रहे। मनुष्य तभी उन्नत और खुशहाल रह सकता है, जब उसके आसपास का वातावरण खुशहाल हो।
अगर सारा समाज दुखी है, तो हम सभी साधनों से सम्पन्न होते हुए भी सुखी नहीं रह सकते। इसलिए मनुष्य जितनी अपनी उन्नति का प्रयत्न करता है, उतना ही समाज की उन्नति के लिए भी प्रयत्न करता रहे। सामाजिक उन्नति में व्यक्ति की उन्नति संभव है। अनुशासनहीनता व्यक्ति का एक महान सामाजिक अपराध मानी जाती है। इसका दोषी व्यक्ति कभी भी अपने समाज के लिए उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकता।
संतान को श्रेष्ठ पुरुष बनाने का दायित्व निभाएं माता-पिता महर्षि दयानंद अपने अमर ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में मनुष्य निर्माण के बारे में कहते हैं कि बच्चा पैदा होने से पहले ही माता-पिता संकल्प लें कि गर्भावस्था में ही बच्चे में श्रेष्ठ पुरुष बनने के बीज डालने हैं। इसके लिए दोनों को मर्यादा का पालन करना होगा। मां को तो विशेष रूप से शुद्ध विचार, शुद्ध व्यवहार एवं शुद्ध आहार में रहना होगा। बच्चों के लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा, खान-पान, स्वास्थ्य चरित्र का ध्यान बड़ी सावधानी से रखना होगा, ताकि उम्र बढ़ने के साथ-साथ बच्चे का शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक विकास ठीक प्रकार से हो सके।
माता-पिता के बाद आचार्य को इसके लिए विशेष प्रयत्न करना होगा। अनुशासन का अर्थ है सामाजिक नियमों और परंपराओं का पालन करना। जो व्यक्ति सदा स्वछंद चलने का अभ्यासी बन चुका है और प्रत्येक व्यवस्था व मर्यादा की अवहेलना करता है, जिसमें कोई विशेष गुण न हो, जिसने स्वयं की शारीरिक और आत्मिक उन्नति नहीं की है, वह समाज के लिए किसी भी प्रकार उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकता। विकसित मनुष्य ही समाज के विकास में साधक हो सकता है। प्रत्येक व्यक्ति समाज से लाभ उठा कर समाज का ऋणी बनता जा रहा है। यदि वह समाज के ऋणों से उऋण नहीं होता, तो उसकी इससे बड़ी कृतघ्नता और क्या हो सकती है। अपने समाज के प्रति कृतज्ञता की भावना रखते हुए यदि कोई मनुष्य समाज के विकास में योगदान देता है तो यही उसकी सामाजिक सेवा का विशुद्ध स्वरूप है। वह व्यक्ति धन्य है, जिसने अपनी जीवनचर्या में सामाजिक उन्नति के लिए समय रखा हुआ है।