ईश्वर के दर्शन करना चाहते हैं तो पढ़ें ये प्रसंग

punjabkesari.in Wednesday, Jun 24, 2015 - 09:05 AM (IST)

भगवान महावीर से पूछा गया कि ईश्वर क्या है? उन्होंने कहा, उसे बताने के लिए शब्द नहीं हैं। उसकी कोई उपमा भी नहीं है। सारे शब्द वहां से टकरा कर लौट आते हैं। तर्क वहां ठहरता नहीं, बुद्धि उसे ग्रहण कर पाती नहीं है। वह न गंध है, न रूप, न रस, न शब्द और न स्पर्श। उपनिषदों की भाषा में वह नेति-नेति यानी ऐसा भी नहीं, वैसे भी नहीं। कैसा है, उसे बताया  नहीं जा सकता। आत्मा और परमात्मा को शब्दों के माध्यम से बताने के प्रयास होते ही रहे हैं, इन्हीं के आधार पर दार्शनिक मतवाद तथा संघर्ष हुए हैं।

कोई भक्ति को शून्य में विलीन होना मानता है। कोई एक परम सत्ता में विलीन होना तो कोई अनंत होना कहता है। इन्हीं बातों को लेकर शास्त्रार्थ होते रहे, ग्रंथ रचे जाते रहे। हमें आज भी लगता है कि इन सब बातों में अंतर केवल शब्दों का है। शब्दों को पकडऩे पर उसकी मीमांसा करें तो हमें सर्वत्र भेद ही भेद दिखाई देंगे। अभेद दृष्टि से देखें तो एक में, अनंत में, शून्य में कोई भेद नहीं। इसका अनुभव वही कर सकता है जो इंद्रियों के जगत के पार चला गया हो। वह मौन हो जाता है। उसके लिए यह अनुभव कबीर के शब्दों में ‘गूंगे केरी शर्करा है’ जिसे ‘वह खाए और मुस्कराए।’ बता नहीं सकता कि वह कैसी है।

ज्ञानेंद्रियां, कर्मेंद्रियां, शरीर, मन और बुद्धि से मुक्त आत्मा ही परमात्मा है। हम हमेशा चाहते हैं कि ईश्वर के दर्शन हों। तब हम ईश्वर को अलग और अपने को अलग मान लेते हैं।  हमने परमात्मा को भी व्यक्ति और आकार बना दिया है, उसके दर्शन भी देहात्मबोध के स्तर पर ही करना चाहते हैं। हम भटक कर फिर नाम-रूप के जगत में आ जाते हैं, जहां से परमात्मा की खोज में चले थे।

एक संस्थान में ध्यान योग पर प्रयोग किया गया। तीन साधकों को ध्यान की गहराई में ले जाया गया। जब उनसे पूछा गया कि आपको परमात्मा के दर्शन किस रूप में हो रहे हैं, तो तीनों ने अपनी-अपनी परम्परा के ईश्वर के नाम लिए। शोधकर्ता हैरान हो गए कि एक ही परमात्मा तीनों को अलग-अलग रूपों में कैसे दिखाई दे रहे हैं? 

अगर और भी परम्परा के लोग होते तो अन्य  रूप में भी नजर आते। दरअसल यह अपने ही अवचेतन में जन्मे संस्कारों का दर्शन है, परमात्मा का नहीं। 


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