मां सीता के चरणों में
punjabkesari.in Monday, Jun 01, 2015 - 04:36 PM (IST)

जानकी जी के वचन सुनकर हनुमान जी धीरे-धीरे उस अशोक वृक्ष से उतर कर उनके सामने खड़े हो गए। उस समय सूक्ष्म रूपधारी वानर को अपने सामने खड़ा देखकर सीता जी को यह भय हुआ कि मुझे धोखा देने के लिए माया से वानर रूप बनाकर कहीं रावण ही तो नहीं आया है? यह सोचकर मुख फेर कर बैठ गईं।
तब हनुमान जी ने सीता जी के चरणों में प्रणाम करते हुए कहा कि, ‘‘मां! मैं श्रीराम जी का दूत हूं। मैं करुणानिधान भगवान श्री राम की शपथ खाकर सत्य कहता हूं कि यह मुद्रिका मैं ही लाया हूं। श्रीराम ने इसे पहचान के लिए दिया है। मैं कौशल अधिपति श्रीराम का दास, सुग्रीव का मंत्री तथा पवनदेव का पुत्र हनुमान हूं।
यह सुनकर सीता जी ने कहा, ‘‘तुम जो कहते हो कि मैं श्रीराम का दास हूं तो भला वानर और मनुष्यों में मित्रता कैसे हो सकती है।’’
तब हनुमान जी ने कैसे श्रीराम संग उनका मिलन हुआ था, वह सम्पूर्ण कथा कह सुनाई। हनुमान जी के प्रेमयुक्त वचन सुनकर सीता जी के मन में विश्वास उत्पन्न हो गया। उन्होंनेे समझ लिया कि यह श्रीरघुनाथ जी का दास ही है। हनुमान जी को भगवान का अनन्य सेवक जानकर सीता जी के मन में श्रीहनुमान के प्रति गाढ़ी प्रीति उत्पन्न हो गई। उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु छलकने लगे तथा शरीर पुलकित हो गया। वह हनुमान से कहने लगीं, ‘‘कपिवर! तुम मेरे प्राणदाता हो। हे तात! मैं तुम्हारे ऋण से उऋण नहीं हो सकती। अब तुम राघवेंद्र सरकार तथा उनके अनुज लक्ष्मण का समाचार सुनाओ। क्या कभी वे मुझ अबला का भी स्मरण करते हैं ? क्या कभी उनके कोमल शरीर को देखकर मेरी आंखें भी तृप्त हो सकेंगी?’’
ऐसा कहते-कहते सीता जी के नेत्र भर आए तथा उनकी आवाज भर्रा गई। किसी तरह से अपने आपको संभाल कर उन्होंने कहा, ‘‘हे हनुमान! मुझे दुख है कि सर्वसमर्थ होने पर भी मेरे प्राणनाथ ने मुझे भुला दिया। क्या इससे उनकी निष्ठुरता नहीं सिद्ध होती?’’
सीता जी को विरह से परम व्याकुल देखकर श्रीहनुमान जी ने कहा, ‘‘माता! कृपा के धाम श्रीरघुनाथ जी अपने अनुज लक्ष्मण सहित सकुशल हैं परंतु आपके वियोग के दुख से सदैव ही दुखी रहते हैं। प्रभु श्रीराम के हृदय में आपके प्रति आप से दोगुना प्रेम है।’’
ऐसा कहते-कहते हनुमान जी का कंठ गद्गद् हो गया और आंखों से प्रेमाश्रु छलकने लगे। फिर धैर्य धारण कर कहने लगे, ‘‘मां! भगवान श्रीराम ने कहा है कि मन का दुख कह डालने से कुछ घट जाता है पर कहूं किससे? यह दुख कोई जानता ही नहीं है। हे प्रिये! हम दोनों के प्रेम का रहस्य केवल मेरा मन ही जानता है। वह भी इस समय मुझे छोड़कर तुम्हारे ही पास रहता है। बस! मेरे प्रेम का रहस्य इतने में ही समझ लो।’’
इतना सुनते ही श्री जानकी जी प्रभु के प्रेम में ऐसी लीन हो गईं कि उन्हें अपने शरीर की सुधि भी न रही। श्री हनुमान जी ने पुन: कहा, ‘‘माता! हृदय में धैर्य धारण कीजिए। रघुनाथ जी के बाणों द्वारा अब लंका के राक्षसों को भस्म हुआ ही समझिए। सीता जी ने पूछा, ‘‘हनुमान! राक्षसों की इतनी बलवान सेना से तुम्हारे जैसे छोटे-छोटे बंदर कैसे लड़ेंगे?’’
यह सुनकर हनुमान जी ने अपना विशाल रूप प्रकट कर दिया। विद्या, बल और बुद्धि में निपुण जानकर सीता जी ने हनुमान को अजर, अमर, गुणनिधि तथा श्री रघुनाथ जी का परमभक्त होने का आशीर्वाद दिया।