भगवान श्री राम चंद्र जी का कार्य पूरा करने के लिए हुआ था हनुमान जी का जन्म

punjabkesari.in Monday, Apr 20, 2015 - 02:45 PM (IST)

राक्षसों के राजा रावण की राजधानी लंका चारों ओर समुद्र से घिरी हुई थी। वहां का दुर्ग (किला) भी बहुत विशाल और सुदृढ़ था। उसके चारों ओर हर समय बलवान राक्षसों का पहरा लगा रहता था। इस किले के चारों ओर बनाई हुई अत्यंत गहरी खाई अभेद्य कवच की तरह इसकी सुरक्षा करती थी, जिसे पार करना अत्यंत दुष्कर था। इसी किले के भीतर एक वाटिका थी, जिसे ‘अशोकवाटिका’ कहते थे।

रावण ने माता सीता जी का हरण करके उन्हें इसी वाटिका में बन्दिनी बना रखा था तथा उनके आसपास चारों ओर भयानक राक्षसियों को पहरे पर बिठा रखा था। ऐसी स्थिति में किसी का भी सीता जी के पास पहुंच सकना एकदम असंभव-जैसा था। सबसे बड़ी समस्या समुद्र को पार करने की थी। इसकी चौड़ाई सौ योजन (800 मील)  थी। बिना इसको पार किए किसी के लिए भी लंका पहुंचना असंभव था।

सब लोग इस समस्या को लेकर बहुत ही चिंतित थे। अंगद ने सभी मुख्य-मुख्य सेनापतियों से समुद्र पार करने के विषय में अपनी-अपनी शक्ति तथा बल का परिचय देने को कहा। अंगद की बातें सुनकर वानरवीर गज ने कहा, ‘‘मैं दस योजना की छलांग लगा सकता हूं।’’ 

गवाक्ष ने बीस योजन तक जाने की बात कही। शरभ ने अपनी क्षमता तीस योजन तक बताई। वानर श्रेष्ठ ऋषभ ने कहा, ‘‘मैं चालीस योजन की छलांग लगा सकता हूं।’’ 

गन्धमादन नामक परम तेजस्वी वानर ने एक छलांग में पचास योजन तक चले जाने की बात बताई। मैन्द ने बताया कि वह एक छलांग में साठ योजन तक जा सकते हैं। परम बलशाली वानर राज द्विविद ने कहा, ‘‘मैं एक छलांग में सत्तर योजन तक की दूरी पार कर सकता हूं।’’ 

वानर श्रेष्ठ सुषेण ने एक छलांग में अस्सी योजन लांघ जाने की बात कही।

सब की बातें सुनकर भालुओं के सेनापति जाम्बवान् ने कहा, ‘‘अब मैं बहुत बूढ़ा हो चला हूं। मुझमें पहले-जैसा बल नहीं रह गया है लेकिन मैं एक छलांग में नब्बे योजन तक चला जाऊंगा। इसमें संदेह नहीं है।’’

अंगद ने कहा, ‘‘मैं एक छलांग में इस सौ योजन चौड़े समुद्र को पार कर जाऊंगा। लेकिन लौटते समय भी मुझमें इतनी ही शक्ति रह पाएगी। इस बात को लेकर मेरे मन में संदेह है।’’

अंगद की बातें सुनकर जाम्बवान् ने कहा, ‘‘बालिपुत्र अंगद! तुम युवराज और सबके स्वामी हो। तुम्हें किसी प्रकार भी कहीं भेजा नहीं जा सकता।’’ 

अंत में वृद्ध जाम्बवान् ने हनुमान जी को देखा। वह उस समय चुपचाप एक किनारे शान्त बैठे हुए थे। जाम्बवान् ने कहा, ‘‘वीरवर हनुमान! तुम इस तरह चुप्पी साधकर क्यों बैठे हो? तुम पवन देवता के पुत्र हो। उन्हीं के समान बलवान हो। तुम बल, बुद्धि, विवेकशील में सर्वश्रेष्ठ हो। तुम्हारी समता करने वाला तीनों लोकों में कोई दूसरा नहीं है। बालपन में ही तुमने ऐसे-ऐसे अद्भुत कार्य किए हैं, जो दूसरों के लिए असंभव हैं। लंका जाकर भगवान श्री राम चंद्र जी का संदेश माता सीता जी तक पहुंचाने के लिए मैं तुमसे अधिक योग्य किसी को नहीं समझता हूं। इस सौ योजन चौड़े समुद्र को लांघ जाना तुम्हारे लिए कौन-सी बड़ी बात है? तुम्हारा तो जन्म ही भगवान श्री राम चंद्र जी का कार्य पूरा करने के लिए हुआ है?’’


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