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punjabkesari.in Monday, Apr 06, 2015 - 11:04 AM (IST)

सफलता के लिए करना पड़ता है संकल्प 

एक अंग्रेज विद्वान ने लिखा है- ‘संसार की दृष्टि में कुछ बनने के लिए दृढ़ संकल्प के साथ कार्य आरंभ करना चाहिए। हमें ऐसा काम करना चाहिए, जिनके करने से हमारी सामर्थ्य तथा योग्यता की प्रगति हो। आलस्य तथा ऐश्वर्य जिसमें बहुत सा समय तथा शक्ति नष्ट हो जाती है, त्याग देना चाहिए। संकल्प शक्ति बढ़ाने के लिए मन की एकाग्रता की अतीव आवश्यकता है।’

महाराष्ट्र के अमर वीर शिवाजी ने संकल्प किया कि वह स्वतंत्र महाराष्ट्र की स्थापना करेंगे। वह सफल हुए। महाकवि कालिदास, बोपदेव एवं भूषण आदि कवि संकल्प शक्ति द्वारा ही सामान्य जन से महान कवि हुए। दृढ़ संकल्प शक्ति की विचारधारा से हमारे अंतकरण में आत्मोन्नति की दिव्य ज्योति प्रज्वलित होती है।

भीष्म पितामह अपनी दृढ़ संकल्प शक्ति के बल पर सारे शरीर के बाणों से छिदे रहने पर भी छ: माह तक शर-शैया पर पड़े रहे और चेतन बने रहे। दूसरे इस तरह के व्यक्ति भी होते हैं, जो अपने तनिक से घाव-चोट में चिल्लाने लगते हैं, बेहोश हो जाते हैं। कई तो भय के कारण मर जाते हैं।

सत्यव्रती हरिश्चंद्र अपने जीवन की कठिन परिस्थितियों की परीक्षा की घड़ी में अपनी दृढ़ संकल्प शक्ति के कारण ही सत्यवादी कहलाए। दूसरी ओर कई लोग जीवन की सामान्य-सी परिस्थितियों में भी रो देते हैं, हार बैठते हैं, जीवन की संभावनाओं का अंत कर डालते हैं।

महाराणा प्रताप जिन्होंने वर्षों जंगलों में, खोहों में जीवन बिताया, बच्चों सहित भूखे-प्यासे भटकते रहे, किन्तु इसके बावजूद दृढ़ संकल्प शक्ति के सहारे वह अजेय वीर व शक्तिशाली मुगल सल्तनत को चुनौती देते रहे और कभी झुके नहीं। थोड़ी ही संख्या में दुबले-पतले क्रांतिकारियों ने भारतीय स्वतंत्रता को जो तूल दिया और विश्वव्यापी ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी, वह उन वीरों के दृढ़ संकल्प का ही परिणाम था। फांसी की सजा सुनने पर भी जिनका वजन बढ़ा, फांसी के तख्ते पर पहुंच कर जिन्होंने अपनी मुस्कुराहट से मौत के भयमुक्त स्वांग का गर्व चूर कर दिया, यह सब उनकी दृढ़ संकल्प शक्ति की ही करामात थी।

नेपोलियन बोनापार्ट के सिपाही अपने आपको नेपोलियन समझकर लड़ते थे। प्रत्येक सिपाही में नेपोलियन की इच्छाशक्ति काम करती थी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज के तनिक से सैनिकों ने हथेली पर जान रखकर अंग्रेजी शासन से लड़ाई लड़ी। लोकमान्य तिलक ने भारत वर्ष को स्वराज्य मंत्र की दीक्षा दी- 

 ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम उसे लेकर रहेंगे।’’

इसी मंत्र ने हमें स्वतंत्रता रूपी सिद्धि प्रदान की। यह मंत्र कोई शाब्दिक व्याख्या मात्र ही नहीं था, वरन् इसमें तिलक के दृढ़ संकल्प शक्ति की अपार चेतना सन्निहित थी। चाणक्य के संकल्प ने विरोधी पक्ष के राज्य की ईंट-से-ईंट बजा दी। समर्थ गुरु रामदास ने हिन्दुत्व के उत्थान और संगठन का संकल्प किया तो हजारों शक्तिशाली मठों की स्थापना कर डाली। इन्हीं की प्रेरणा से शिवा जी ने भारतीय संस्कृति के उत्थान और हिन्दू साम्राज्य की स्थापना का बिगुल बजाया था।

राम ने रावण को और कृष्ण ने कंस जैसे शक्तिशाली सम्राटों को धराशायी कर दिया। विश्वामित्र के संकल्प ने आसुरी शक्तियों को विध्वंस किया। सावित्री का अदम्य साहस और संकल्प ही सत्यवान को यमराज के पंजों से बचाकर लाया था। भगीरथ के संकल्प ने गंगावतरण की महासाधना पूर्ण की और असंभव को संभव बनाया। पार्वती के दृढ़ संकल्प और तप ने पति के रूप में उन्हें शिव की प्राप्ति कराई।

ध्रुव तो दृढ़ संकल्प के एक तरह से प्रतीक ही बन गए थे। ध्रुव जब एकाग्रचित हो तप साधना में लीन हो गया तो लिखा है ‘योगी ध्रुव के चित्त में भगवान विष्णु के स्थित हो जाने पर सर्वभूतों को धारण करने वाली पृथ्वी उसका भार न संभाल सकी। उसके बाएं चरण पर खड़े होने से पृथ्वी का बायां आधा भाग झुक गया और फिर दाएं चरण पर खड़े होने से दायां भाग झुक गया और जिस समय वह पैर के अंगूठे से पृथ्वी को दबाकर खड़ा हुआ तो पर्वतों सहित समस्त भूमंडल विचलित हो गया। उस समय नदी, नद और समुद्र आदि सभी अत्यंत क्षुब्ध हो गए और उनके क्षोभ से देवताओं में बड़ी हलचल मची (विष्णु पुराण 1112-11)। तब माया से रची हुई सुनीति उपस्थित हुई और कहने लगी कि तेरे इस सुकुमार से शरीर को यह घोर तप शोभा नहीं देता, तुम्हारे तो यह खेलने-कूदने के दिन हैं।

इस तप को छोड़ दो और मुझे आश्रय दो। उसने डराया-धमकाया भी और कहा कि देखो राक्षस अस्त्र-शस्त्र लेकर आ रहे हैं जिनके मुख से अग्नि की लपटें निकल रही हैं। ऐसे राक्षस भी उपस्थित हो गए और बहुत कोलाहल मचाया और मारो, काटो, खाओ की धमकियां देने लगे, परंतु धु्रव पर कोई प्रभाव न हुआ और वह अपनी साधना में लगे रहे। जीवन साधना में भी राक्षसी बाधाएं चारों ओर से घेरे रहती हैं।

शिथिल साधक तो उनके प्रवाह में बह जाता है परंतु बाधाओं पर वही विजय प्राप्त करता है जो दृढ़ता को अपनाता है। अपने व्रत में दृढ़ रहना आवश्यक है। तभी इष्टदेव के दर्शन होते हैं-इच्छित उद्देश्य की पूर्ति होती है। ध्रुव की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए।

जो घोर तप करने के लिए, कष्ट सहन करने के लिए तैयार रहता है, जिसका जीवन दृढ़ प्रतिज्ञ व संकल्पबद्ध रहता है, एकाग्रचित से अपनी समस्त शक्तियों को अपने एक उद्देश्य की पूर्ति में लगा देता है, भोग-वासनाओं में लिप्त होकर अपनी शक्ति का ह्रास नहीं करता, श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करता है, वही विष्णु के दर्शन प्राप्त करने का, उच्चतम पद प्राप्त करने का अधिकारी है।

भगवान बुद्ध ने जब बोधि वृक्ष के नीचे साधना करनी आरंभ की तो यह दृढ़ संकल्प किया कि  या तो मंत्र की सिद्धि होगी या शरीर का पतन होगा। मेरी त्वचा, अस्थि, स्नायु आदि सूख जाएं, शरीर के रक्त, मांस आदि सूख जाएं, इससे भी बड़ा अनिष्ट हो जाए तो भी साधना नहीं छोड़ूंगा, जब तक कि निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति न हो। इस प्रकार की दृढ़ता से सिद्धि नि:संदेह प्राप्त होती है।

—पं. कमल राधाकृष्ण श्रीमाली


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