भगवान का नाम लेते हुए अाती है नींद या सताती हैं संसार की चिंताएं

punjabkesari.in Saturday, Oct 31, 2015 - 12:57 PM (IST)

कम दिमाग वाला एक व्यक्ति A शहद खाने की इच्छा से पारदर्शी शीशे वाली शाहद की बोतल को बाहर से चाटने लगा। उसी समय उसका एक दोस्त B अा गया, A को संबोधित करते हुए कहा,"यार! अाज तुम क्या कर रहे हो?"
 
A - यार, थोड़ा शहद चाट रहा हूं।
 
B - अच्छा, शहद तो खूब मीठा लग रहा होगा।
 
A - नहीं।
 
B - क्या खट्टा लग रहा है?
 
A - नहीं।
 
B - तो क्या लग रहा है?
 
A - कुछ नहीं।
 
B - अरे यार, हमने तो सुना था कि शहद चीनी से भी ज्यादा मीठा होता है परंतु तुम तो कुछ अौर ही कह रहे हो। अच्छा, तुम्हें कैसा लग रहा है।
 
A - बस यार, क्या बताऊं, ये तो फीका-फीका सा लग रहा है।
 
अब अाप ही सोचे, क्या शहद फीका होता है? कदापि नहीं! परंतु A को मीठा शहद भी फीका लग रहा है, क्योंकि उसकी जीभ अौर शहद के बीच में कांच का एक पर्दा अा गया है। जिसके कारण A को शहद का असली अास्वादन नहीं हो पा रहा है। ठीक, इसी प्रकार अनुभवी महात्माअों तथा शास्त्रों के अनुसार भगवान के पवित्र नाम भी बहुत मधुर होते हैं परंतु जब कभी साधक लोग हरिनाम कर रहे हों अौर कोर्इ अनुभवी सिद्ध महात्मा उनसे पूछें कि अाप लोग तो अमृतमय नामों का उच्चारण कर रहे हों। अापको तो भगवान के नाम अत्यतं मधुर लग रहे होंगे? तब साधकों का अक्सर एक ही जवाब होता है, "नहीं"!
 
महात्मा जी यदि पूछें कि क्या खटटा जा कड़ुअा लग रहा है?
 
साधक कहेंगे - नहीं।
 
महात्मा जी," भार्इ, हरिनाम के बारे में तो शास्त्रों में कहते हैं कि, मधुर मधुरेभ्यो पि, मगंलभेयों पि मंगल। पावनं पावनेभ्यो पि, हरेर्नामैव केवलम।।"
 
अथवा 
 
" नाम प्रेम का स्वाद अनोखा।
  जिसने लूटा उसने देखा।।
  भक्त हेतु है मीठा-मीठा। 
  विषयी देखे बस फीका-रुखा।।"
 
साधक,"महात्मा जी, हरिनाम इतना मीठा है तो फिर हमें मीठा क्यों नहीं लग रहा? हमें तो हरिनाम करते समय अक्सर नींद अाती है अथवा संसार की चिंताएं सताने लगती हैं।"
 
महात्मा जी, इन सबका मुख्य रुप से एक ही कारण है। हमारी जीभ अौर भगवान के अमृतमय नाम के बीच में एक पर्दा अा गया है जिसके कारण A व्यक्ति की तरह हमें भी हरिनाम रुपी शहद का अास्वाद नहीं हो पा रहा है।
 
साधक,"महात्मा जी हमारी जीभ अौर भगवान के नाम के बीच में वह पर्दा किस चीज का है?"
 
महात्मा जी,"किसी-किसी महात्मा जी का कहना है कि वह पर्दा हमारी कामना-वासनाअों का है अौर हमारे रुप गोस्वामी जी ने अपने भक्ति रसामृत सिंधु नामक ग्रंथ में उस पर्दे को उपाधियों का पर्द बताया है।"
 
साधक,"उपादियों का पर्द कहने से अापका क्या तात्पर्य है?" थोड़ा समझा कर कहें तो अति कृपा होगी। 
 
महात्मा जी, "भैया, जीव स्वरूप से भगवान का नित्य दास है। भगवान का दासत्व करना ही इसका स्वरुप धर्म है परंतु भगवान को भुल जाने के कारण भगवान की पुलिस इस प्रभु-विमुख जीव में दण्ड देने के लिए इस संसार रुपी जेल में डाल दे। इस संसार में अाने के बाद ही जीवों को उनके कर्मानुसार माया की उपाधियां प्राप्त होती हैं। "
 
जैसे किसी ने वकालत की तो उसे वकील की, किसी ने डाक्टरी की तो उसे डाक्टर की, इत्यादि अनेकों प्रकार की जागतिक उपाधियां मिल जाती हैं। इन उपाधियों के मिलने से मायाबद्ध जीव को अभिमान होने लगता है कि मैं वकील हूं, मैं डाक्टर हूं, मैं अध्यापक हूं या मैं राष्टपति हूं, इत्यादि।
 
इनके इलावा, इनसे भी सूक्ष्म उपाधियां होती हैं जैसे मैं भारतीय हूं, मैं पाकिस्तानी हूं, मैं अमेरिकन हूं या मैं अफ्रीकन हूं, मैं ब्राह्मण हूं, मैं क्षत्रिय हूं, मैं वैश्य हूं इत्यादि।
 
इनसे भी सूक्ष्म उपाधियां होती हैं जैसे मैं धनी हूं, मैं निर्धन हूं या मैं बलवान हूं, मैं निर्बल हूं या स्त्री हूं अथवा मैं पुरुष हूं। इस प्रकार अनेकों प्रकार के शरीरों की उपाधियों में जीव फंस जाता है अौर अपने स्वरुपाभिमान को भूल जाता है अर्थात इन उपाधियों के चक्कर में जीव वास्तव में "मैं कौन हूं?" इसे भुल जाता है। शास्त्रों व अनुभवी महात्माअों का ये सिद्दात है कि जब तक जीव इन उपाधियों से ऊपर नहीं उठ जाता, तब तक उसे भगवान की सेवा का कोर्इ अधिकार नहीं मिलता।
 
जीव जब तक एेसी स्थिति में नहीं चला जाता कि जहां पर उसका शरीर तो चाहे संसार में ही रहे परतुं उसका मन, उसका अभिमान संसार की उपाधियों को भूलकर अपने स्वरुप में अवस्थित हो जाए, तब तक भगवान की अप्राकृत लीला में प्रवेश नहीं हो सकता।
 
महात्मा जी,"इतनी ऊंची स्थिति  में पहुंचना तो हमको असम्भव सा प्रतीत होता है। क्या हम जैसे माया में जकड़े हुए जीव भी इंस स्थिति तक पहुंच सकते हैं?"
 
भैया,"शास्त्र में इस प्रकार के उपदेश माया में फंसे जीवों को ऊपर उठाने के लिए ही हैं। सिद्ध पुरुषों के लिए नहीं।"
 
हे करुणामय महात्मा जी!," हम जैसे माया बद्ध जीवों के लिए क्या कोर्इ अासान तरीका है, इस मंंजिल पर पहुंचने के लिए?"
 
महात्मा जी, हां, उस मंजिल पर पहुंचने का सबसे अासान तरीका है कि वे जीव अर्थात वे गुरुजन जो भगवान के द्वारा इस भूतल पर भेजे गए हैं या जिन्होंने मंजिल की अोर चलना प्रारम्भ कर दिया है, उनका अनुसरण करो, उन की सेवा करो तो वह दिन दूर नहीं होगा जब अाप भी उस सुनहरी प्रेम रुपी अानंद सागर में गोते लगाते रहोगे। तब भगवान के नाम का असली अास्वादन अापकी जिहृा पर चड़ जाएगा। उस समय दुनियां के विषयों का जहरीला मीठापन अाप लोगों को अच्छा नहीं लगेगा व कम दिमाग वाले व्यक्ति A की तरह से हरिनाम फीका भी नहीं लगेगा। तब हरिनाम करते समय नींद की बात तो छोड़ो, अाप खाना-पीना, सोना सब भूल जाअोगे। अाप विषय भोगोें की गठरी को, जिसके हासिल करने के लिए अाप पाप करने से भी नहीं डरते हैं, हरिनाम-प्रेम के अानंद में बोझ समझ कर कहां फेंक दोंगे, अापको पता ही न चलेगा। हरिनाम की खुमारी अापके तन-मन जीवन को पागल कर देगी।
 
भगवद्-विरह रुपी अग्नि अापके हृदय में प्रज्वलित हो उठेंगी। तब भगवान अाप पर अपने दर्शन, स्पर्शन रुपी अमृत की वर्षा करेंगे।
 
जिस समय भगवान का विरह अाप के हृदय में अा जाएगा, उसी समय भगवान तुम्हें अपना दर्शन देकर कृतार्थ कर देंगे व अाप जैसे भाग्यशाली जीव को अपने धाम में अपनी नित्य-अानदंम्यी सेवा प्रदान करवाने के लिए ले जाएंगे।
 
श्रीचैतन्य  गौड़ीय मठ की ओर से

श्री बी.एस. निष्किंचन जी महाराज 


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