फिर सिर उठाने लगी ‘महिला आरक्षण’ लागू करने की मांग

punjabkesari.in Friday, Mar 11, 2016 - 12:53 AM (IST)

(कल्याणी शंकर): बदनसीबी झेल रहे महिला आरक्षण विधेयक को लागू करने की मांग एक बार फिर सिर उठाने लगी है। इस मांग का नेतृत्व किसी और ने नहीं बल्कि कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने किया है, जिन्होंने गत मंगलवार को संसद में यह मुद्दा उठाया। 6 वर्ष पूर्व राज्यसभा में इसे पारित करवाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी, मगर लोकसभा में वह इसे पारित नहीं करवा सकीं। दुख की बात यह है कि विधायिकाओं में महिलाओं को एक-तिहाई कोटा उपलब्ध करवाने वाले इस विधेयक को सभी राजनीतिक दलों का व्यापक समर्थन हासिल है, फिर भी गत 19 वर्षों से यही पार्टियां संसद में इस बिल को पारित होने से रोके हुए हैं। 

 
1975 में अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस अपनाने से लेकर हालांकि भारत में महिलाओं की स्थिति में सुधार हुआ है, मगर इसकी रफ्तार बहुत धीमी है। इसको लेकर राजनीतिज्ञ जुबानी बातें तो बहुत करते हैं, मगर इस विधेयक का समर्थन करने से वे सभी पीछे हट जाते हैं। यह बात इस वर्ष लोकसभा अध्यक्षा सुमित्रा महाजन द्वारा आयोजित महिला कांफ्रैंस में भी दिखाई दी। जहां राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी तथा उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने महिलाओं को कोटा देने की जरूरत पर जोर दिया, वहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर से अभी कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। 
 
तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सीटा जैसे प्रगतिशील विधेयक शुरू किए थे और सती प्रथा पर पाबंदी लगाई थी। उनमें से एक था 1989 का संवैधानिक संशोधन विधेयक, जिसमें पंचायतों तथा नगर निगमों ने महिलाओं के लिए 33.3 प्रतिशत कोटे की व्यवस्था की मगर यह राज्यसभा में 5 वोटों से पराजित हो गया था। 3 वर्ष बाद पी.वी. नरसिम्हा राव सरकार ने संसद में विधेयक पारित करवाया जिस कारण आज भारत में लगभग 10 लाख महिला सरपंच हैं। 
 
विधायिकाओं में एक-तिहाई कोटे की मांग लगभग 2 दशक पुरानी है। गीता मुखर्जी के नेतृत्व में एक संसदीय समिति ने भी कोटे का सुझाव दिया है। 1996 से लेकर अब तक की सभी सरकारों ने इस बारे प्रयास किया, मगर तीन विभिन्न अवसरों-1996, 1997 तथा 1998 में इसे पेश नहीं होने दिया गया। वाजपेयी सरकार तथा यू.पी.ए. सरकार ने भी इस बारे सर्वसम्मति बनाने का प्रयास किया था, मगर कोई फायदा नहीं हुआ। 
 
2014 में मोदी सरकार द्वारा अपने बूते पर बहुमत हासिल करने के बाद एक बार फिर यह मांग उठी है। संसदीय मामलों के मंत्री वेंकैया नायडू ने गत मंगलवार लोकसभा में कहा कि उनकी सरकार इस बारे सर्वसम्मति बनाने पर कार्य कर रही है। आशा है कि इसमें सफलता मिलेगी। मगर महिलाओं का एक बड़ा वोट बैंक होने के बावजूद इस पर सर्वसम्मति नहीं बन पा रही है। जहां वामदलों के सिवाय लगभग सभी पार्टियों में इस पर मतभेद हैं, मुख्य विरोधी जद (यू), राजद तथा सपा हैं। शिवसेना आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन पार्टी (ए.आई.एम.आई.एम.) तथा बसपा भी इसके वर्तमान स्वरूप का विरोध करती है। इसका दोष महिला संगठनों को जाना चाहिए, जिन्होंने व्यावहारिक बनने की बजाय एक समय पेश 20 प्रतिशत आरक्षण को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। 
 
क्या महिलाओं के लिए कोटे की जरूरत है? काफी लोग इसके पक्ष में तथा अन्य इसके खिलाफ हैं। एक बड़ा तर्क यह है कि इससे निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाएं मुखर होंगी और महिलाओं में नई प्रतिभा उभर कर सामने आएगी। इसके खिलाफ तर्क यह है कि इस प्रयास से अल्पसंख्यकों को अधिक फायदा नहीं होगा और सीट रोटेशन के कारण संसद में कम निष्ठावान सदस्य दिखाई देंगे। 
 
सबसे बढ़कर, ऐसे किसी प्रयास से केवल राजनीतिक परिवारों की बहनों, पत्नियों तथा बेटियों को ही लाभ होगा। यह सच है कि असल प्रतिभा को  दबाया नहीं जा सकता और जो महिलाएं शीर्ष पर पहुंची हैं, वे इसकी साक्षी हैं। सरोजनी नायडू जैसी महिलाओं ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। आज कम से कम 2 महिला मुख्यमंत्री तथा 5 महिला पार्टी अध्यक्ष हैं। हमारी लोकसभा स्पीकर महिला हैं और एक महिला राष्ट्रपति (2007-2012) रही हैं। सुप्रीम कोर्ट तथा हाई कोटर्स में महिला न्यायाधीश हैं। महिलाएं सशस्त्र बलों, प्रशासनिक सेवाओं में बढिय़ा कारगुजारी दिखा रही हैं और बहुत से अन्य क्षेत्रों में महिलाओं ने सीमाएं तोड़ी हैं, मगर चिन्ता की बात यह है कि ङ्क्षलग भेद जारी है। 
 
क्या महिला आरक्षण विधेयक से ङ्क्षलग आधारित समस्याएं समाप्त हो जाएंगी? इसका उत्तर एक बड़ी ‘न’ है। महिला सशक्तिकरण तथा परिवर्तन के लिए लड़ाई के साथ बलात्कार, खाप पंचायतों, ऑनर किङ्क्षलग्स तथा सती प्रथा के खिलाफ मानसिकता में परिवर्तन का संघर्ष भी जुड़ा है। नि:संदेह उनके खिलाफ कड़े कानूनों से मदद मिल सकती है, मगर इन्हें लागू नहीं किया जा रहा।
 
जरूरत इस बात की है कि महिलाएं सशक्तिकरण का इंतजार करने की बजाय अपने अधिकारों के लिए लड़ाई करें और मतदान के समय अपनी शक्ति दिखाएं। राजनीतिक दल भी महिलाओं की जीतने की क्षमता पर तर्क देने की बजाय महिला उम्मीदवारों को अधिक टिकट दे सकते हैं। नौकरी तथा शिक्षा के मामले में कोई लिंग-भेद नहीं होना चाहिए। सारा मामला घर से ही शुरू होता है, जहां महिलाएं अपने बच्चों की शिक्षा व पालन-पोषण देखती हैं। आखिरकार भारतीय महिलाओं को बहुत से अन्य देशों से पहले अपना फ्रैंचाइजी मिल गया तथा बहुत से अन्य देशों से पहले भारत में एक महिला प्रधानमंत्री बनी। 
 
महिला सशक्तिकरण के मामले में भारत को एक लम्बा सफर तय करना है। 8 मार्च को महिला दिवस मनाना एक रस्म बन गया है, जब महिला सशक्तिकरण की जरूरत को लेकर शोर मचाया जाता है। वर्तमान लोकसभा में मात्र 12 प्रतिशत महिलाएं हैं, जबकि राज्यसभा में 12.8 प्रतिशत। यह वैश्विक औसत 22 प्रतिशत से काफी कम है। वैश्विक स्तर पर भारत का दर्जा 2014 में 117 के मुकाबले फरवरी 2016 में गिर कर 144 पर आ गया। यहां तक कि कुछ अफ्रीकी तथा लातीनी अमरीकी देश भारत से आगे हैं। 
 

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