महिलाओं को उनका उचित स्थान प्राप्त करने में मदद की जरूरत

punjabkesari.in Wednesday, Mar 15, 2023 - 06:16 AM (IST)

आरक्षण अर्थात कोटा पुन: राजनीतिक सुर्खियों में है, हालांकि इस बार इसे एक गलत मोड़ दिया गया है। टी.आर.एस. के तेलंगाना के मुख्यमंत्री चन्द्रशेखर राव की बेटी के. कविता के विरुद्ध दिल्ली शराब घोटाले में प्रवर्तन निदेशालय के छापे और पूछताछ के बाद उन्होंने संसद के चालू बजट सत्र में महिला आरक्षण विधेयक पेश करने की मांग को लेकर दिल्ली में भूख हड़ताल शुरू की है।

विडंबना देखिए कि उन्हें सपा और राजद का समर्थन मिल रहा है, जिन्होंने 2008 में इस विधेयक को पेश नहीं होने दिया था। स्पष्ट है कि महिला सशक्तिकरण की आड़ में वे अपने विरुद्ध प्रवर्तन निदेशालय की कार्रवाई से ध्यान भटकाना चाहती हैं, अन्यथा कोई ठंडे बस्ते में रखे हुए मुद्दे को क्यों उठाएगा। यह संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटों के आरक्षण का प्रावधान करने वाले विधेयक को पुन: प्रतिस्थापित करने की आवश्यकता से ध्यान भटकाना नहीं, अपितु समानता, समान अवसर उपलब्ध कराने के लिए था।

नवम्बर में इस विधेयक को पुन: प्रतिस्थापित करने के लिए दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई में उच्चतम न्यायालय ने भी इस विधेयक को महत्वपूर्ण बताया। तथापि यह ङ्क्षलग आधारित राजनीति के राजनीतिक पुरातनपंथ को पुन: उभार सकता है, कि राजनीतिक क्षितिज में जब महिलाओं को समान स्थान देने की बात आती है तो हमारे नेतागण इसे किस तरह खतरा मानते हैं। महिलाओं के लिए संसद और राज्य विधानमंडलों में आरक्षण का प्रावधान करने वाले ऐतिहासिक विधेयक को राज्यसभा में मार्च 2010 में पारित किया गया था क्योंकि कांग्रेस की सोनिया गांधी ने अपनी कथनी को करनी में बदलने प्रयास किया था, किंतु 15वीं लोकसभा के साथ यह विधेयक व्यप्तगत हो गया तो इसका कारण यह था कि पुरुष सांसदों ने इसे पारित नहीं होने दिया।

हैरानी की बात यह है कि संसद के दोनों सदनों में आज महिला सांसदों की संख्या 10 प्रतिशत से कम है। वस्तुत: उत्तरोत्तर लोकसभाओं में चुनावी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी स्थिर रही है। महिला सांसदों की संख्या 19 से 59 तक रही है। वर्तमान लोकसभा में सर्वाधिक 59 महिला सांसद हैं, जो 543 सदस्यीय लोकसभा का कुल 14.58 प्रतिशत है और यह वैश्विक औसत 34 प्रतिशत से काफी नीचे है। त्रिपुरा, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों से एक भी महिला सांसद लोकसभा में नहीं है।

वर्ष 1950 में संसद में महिला सदस्यों की संख्या 5 प्रतिशत थी और 73 वर्षों में उनकी संख्या बढ़कर मात्र 9 प्रतिशत हुई है। यह हमें बताता है कि इस दिशा में कितनी धीमी प्रगति हो रही है। विश्व के 193 देशों में इस संबंध में भारत का 145वां स्थान है और वह बंगलादेश, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, सऊदी अरब अैर रवांडा जैसे देशों से भी पीछे है। बंगलादेश और अफगानिस्तान में 27.7, पाकिस्तान में 20.6, सऊदी अरब में 19 प्रतिशत और रवांडा में सर्वाधिक 62 प्रतिशत महिला सांसद हैं।

राज्यों में स्थिति और भी बुरी है। नागालैंड में पहली बार महिला विधायक चुनी गई हैं। हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनावों में 412 उम्मीदवारों में से केवल 22 महिला उम्मीदवार थीं। गुजरात में पिछले विधानसभा चुनावों में 182 निर्वाचन क्षेत्रों में केवल 107 महिला उम्मीदवारों में से 14 विजयी हुईं। यही स्थिति उन चार राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों में भी है, जहां पर 2021 में चुनाव हुए। मतदाताओं में महिलाओं की संख्या लगभग 50 प्रतिशत है किंतु चुनावों में 10 उम्मीदवारों में से केवल एक उम्मीदवार महिला होती है।

केरल में 9 प्रतिशत, असम में 7.8 प्रतिशत, तमिलनाडु, पुड्डुचेरी और पश्चिम बंगाल में 11 प्रतिशत महिलाएं निर्वाचित हुई थीं। इससे पूर्व 13 विधानसभा चुनावों में 807 निर्वाचित विधायकों में केवल 13 महिला विधायक थीं। वर्ष 1977 में केवल 197 महिलाओं ने चुनाव लड़ा। हैरानी की बात यह है कि सिक्किम और मणिपुर सहित 6 राज्यों में कोई भी महिला मंत्री नहीं है। किसी भी राज्य में एक तिहाई महिला मंत्री नहीं है।

सर्वाधिक 13 प्रतिशत महिला मंत्री तमिलनाडु में हैं, जबकि 68 प्रतिशत राज्यों में 10 प्रतिशत से कम महिलाओं को नेतृत्व की भूमिका दी गई है। तथापि पार्टी में महिला कार्यकत्र्ताओं की कमी नहीं है जिनकी उपेक्षा की जाती है और चुनाव लडऩे के लिए टिकट नहीं दिया जाता। 2014 के संसदीय चुनाव में 65.63 प्रतिशत महिलाओं ने मतदान किया था जबकि 67.09 प्रतिशत पुरुषों ने तथा 29 राज्यों में से 16 राज्यों में पुरुषों की तुलना में महिलाएं अधिक मतदान करने के लिए आती हैं।

वस्तुत: 2019 के लोकसभा चुनावों में ममता बनर्जी ने टिकट देने के लिए महिलाओं को आरक्षण दिया और तृणमूल कांग्रेस ने 42 उम्मीदवारों में से 17 महिला उम्मीदवार मैदान में उतारीं। तृणमूल कांग्रेस के लोकसभा के लिए विजयी 22 उम्मीदवारों में से 9 महिलाएं हैं। ओडिशा में पटनायक की बीजद ने 21 लोकसभा सीटों में 7 अर्थात 33 प्रतिशत महिलाओं को टिकट दिया, जिनमें से 5 विजयी हुईं। प्रश्न उठता है कि हम अपनी महिलाओं को क्यों विफल कर रहे हैं?

महिलाओं को अभी तक आरक्षण क्यों नहीं दिया गया, विशेषकर तब, जब महिला नेता भारत को गौरवान्वित कर रही हैं। इंदिरा गांधी एक शक्तिशाली प्रधानमंत्री थीं और उनके बारे में कहा जाता था कि उनके मंत्रिमंडल में वह एकमात्र पुरुष थीं। आज उनकी बहू सोनिया, ममता, मायावती और राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू आदि महिला सशक्तिकरण की उदाहरण हैं। नि:संदेह पंचायतों और शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए एक तिहाई अरक्षण देने से महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी और नेतृत्व बढ़ा है, तथापि ऐसे अनेक उदारहण मिल जाते हैं जहां पर पुरुषों द्वारा महिलाओं का उपयोग परोक्षी की तरह किया जाता है और महाराष्ट्र से लेकर बिहार तक उनका इस्तेमाल चुनाव जीतने के लिए किया जाता है।

भारत में लिंग अनुपात 1000 बालकों पर 914 बालिकाएं हैं और 4000 बालिकाएं हर दिन मारी जा रही हैं, 10.20 करोड़ बालिकाओं की उपेक्षा हो रही है, 10 लाख बालिकाएं अपना पहला जन्म दिन नहीं देख पातीं। लिंग विषमता में भारत 134 देशों में 114वें स्थान पर है। इसलिए हमारे नेताओं को इस बात को स्वीकार करना होगा कि असमानता व्याप्त है और इसे समाप्त करना होगा। उन्हें सुशासन के अंग के रूप में पुरुष और महिलाओं को समान अवसर देने चाहिएं।

समय आ गया है कि हमारे नेता महिलाओं को इन बाधाओं को दूर करने में सहायता करें और उन्हें उनका उचित स्थान दें। संविधान में महिलाओं को समान अवसर दिए गए हैं। आरक्षण उन्हें इन अधिकारों का उपयोग करने के काबिल बनाएगा। एक क्रांतिकारी बदलाव की आवश्यकता हे। केवल बातों से काम नहीं चलेगा। -पूनम आई. कौशिश


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