क्या जम्मू-कश्मीर में नए चुनाव करवाना ही बेहतर विकल्प होगा

punjabkesari.in Wednesday, Apr 26, 2017 - 10:25 PM (IST)

जम्मू -कश्मीर में पी.डी.पी. तथा भाजपा की सरकार ने लगता है कि चैन की सांस ली है। राज्य की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती, जोकि गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रही हैं, ने गठबंधन टूटने तथा कुछ समय तक राष्ट्रपति शासन लगाकर नए चुनाव करवाए जाने की रिपोर्टों के बीच स्थिति पर चर्चा करने के लिए सोमवार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मुलाकात की। 

स्पष्ट था कि मोदी और भाजपा के इरादे कुछ और ही हैं तथा वे यह उम्मीद लगाए हुए हैं कि अगले कुछ महीनों दौरान पत्थरबाज प्रदर्शनकारी स्वयं ही ऊब जाएंगे। इस निष्कर्ष का आधार यह है कि दोनों नेता कोई संयुक्त बयान देने या राज्य की बदतर हो रही परिस्थिति से निपटने के मामले में कोई सर्वसम्मति बनाने में विफल रहे। कम से कम इतनी उम्मीद की जा रही थी कि प्रधानमंत्री कोई ऐसा बयान जारी करेंगे जो आशा बंधाने वाला हो। 

कश्मीर में जिस प्रकार सभी की जान सांसत में आई हुई है, ऐसे में प्रदेश में सुनियोजित एवं पाएदार कदम उठाने की जरूरत है। जब तक ऐसा नहीं किया जाता तब तक सरकार और स्थानीय जनता के बीच दूरियां बढ़ती रहेंगी। केवल इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि केन्द्र और राज्य सरकार मिलकर कोई रणनीति तैयार करेंगी और केवल इस उम्मीद पर नहीं बैठी रहेंगी कि विरोध प्रदर्शन धीरे-धीरे अपनी मौत मर जाएंगे। जब मुफ्ती मोहम्मद सईद की पी.डी.पी. ने जम्मू-कश्मीर में गठबंधन सरकार बनाने हेतु 2 वर्ष पूर्व भाजपा से हाथ मिलाया था तो यह एक ऐसा राजनीतिक परिदृश्य था जिसकी बहुत ही कम लोगों ने परिकल्पना की थी। पी.डी.पी. के बारे में किसी तरह का संदेह नहीं था कि यह अलगाववादियों तथा आतंकियों के प्रति सद्भावना रखती है जबकि भाजपा सदा ही हिन्दुत्व तथा प्रखर राष्ट्रवाद की ध्वजवाहक रही है। 

मुख्यमंत्री की कुर्सी पर ही प्राण त्यागने वाले सईद ने इस गठबंधन को उत्तर और दक्षिण ध्रुव का मिलन करार दिया था और उम्मीद जताई थी कि एक-दूसरे का दृष्टिकोण बेहतर समझने के फलस्वरूप कश्मीर घाटी की स्थिति में सुधार होगा। दोनों पार्टियों ने ‘गठबंधन का एजैंडा’ भी तैयार किया था जिसमें गठबंधन सरकार को दरपेश संयुक्त कार्यों को सूचीबद्ध किया गया था। बिल्कुल विपरीत विचारधारा वाली इन दोनों पार्टियों का एक-दूसरे से हाथ मिलाना प्रत्यक्षत: विश्वास योग्य नहीं लग रहा था। 

अधिकतर राजनीतिक पर्यवेक्षक पहले दिन से ही गठबंधन को लेकर आशंकित थे लेकिन फिर भी उन्होंने यह उम्मीद लगाई हुई थी कि जब कश्मीर वादी में सभी उम्मीदें धराशायी हो चुकी हैं तो अप्रत्याशित कदम उठा कर ही कोई बेहतरी लाई जा सकती है। दो साल गुजर जाने के बाद अब हम देख रहे हैं कि स्थिति केवल बदतर ही हुई है और राज्य में मौजूदा सरकार के रहते किसी सुधार का संकेत दिखाई नहीं देता। स्पष्ट है कि यह असंभव गठबंधन अपने उद्देश्यों को पूरा करने में विफल रहा है और अब इस प्रयोग को दफन करने का समय आ गया है। 

गठबंधन की विफलता के मूलभूत कारकों में से एक शायद यह है कि घाटी में कश्मीर की आजादी के पक्षधरों अथवा अधिक उग्र तत्वों ने फारूक अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली उदारपंथी नैशनल कांफ्रैंस की बजाय पी.डी.पी. से अधिक उम्मीदें लगाई हुई हैं। आखिर महबूबा मुफ्ती और पी.डी.पी. के अन्य नेता उन लोगों के घरों में जाते रहे हैं जो सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ों अथवा रोष-प्रदर्शनों दौरान मारे गए थे और इस बहाने उनसे हमदर्दी जताते रहे हैं। एक तरह से उन्हें इन अलगाववादियों व उग्रपंथियों के हमदर्द के रूप में ही देखा जाता है। ‘दुश्मनों’ के साथ हाथ मिलाने की पी.डी.पी. नेताओं की यह नीति कोई अधिक हितकर नहीं हुई क्योंकि जमीनी स्तर पर गठबंधन सरकार ने युवाओं का विश्वास जीतने और स्नेह के सूत्र फिर से स्थापित करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया। 

मुफ्ती मोहम्मद सईद के देहावसान के बाद उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती ने इस बात पर काफी समय तक मंथन किया कि गठबंधन को जारी रखा जाए या नहीं। जब वह काफी लंबे समय तक अपने पिता की मौत पर रुदन मनाती रहीं तो प्रदेश कुछ समय तक राष्ट्रपति शासन के अंतर्गत ही रहा था। यह स्पष्ट है कि वह गठबंधन तोडऩे की संभावनाओं का आकलन कर रही हैं लेकिन आखिरकार पार्टी के एक वर्ग के दबाव एवं सत्ता सुख के मोह के चलते उन्होंने गठबंधन बनाए रखने का फैसला लिया। उस समय जो परिस्थितियां बन चुकी थीं उनमें ऐसी संभावना नहीं थी कि नए चुनाव होने पर उनकी पार्टी फिर से जीत पाएगी। आखिर उन्होंने गठबंधन के नेताओं द्वारा दिए आश्वासन के चलते इसे जारी रखने का फैसला लिया लेकिन ये आश्वासन गलत सिद्ध हुए। 

बेशक गठबंधन सरकार बनने के कुछ ही समय बाद ऐसे मतभेद उभरने शुरू हो गए थे जिनका कोई समाधान नहीं था। फिर भी परिस्थिति में उस समय फिसलन शुरू हो गई जब कश्मीरी युवाओं के हीरो (आईकन) बन चुके बुरहान वानी को गत वर्ष जुलाई में सुरक्षा बलों ने एक मुठभेड़ के दौरान मार गिराया। उस दिन से आज तक परिस्थिति लगातार बिगड़ती चली जा रही है। स्कूलों सहित शिक्षण संस्थान 6 महीने से अधिक समय से बंद पड़े हैं। 

अनेक दुकानें और व्यावसायिक प्रतिष्ठान बंद हो गए। पर्यटन उद्योग बिल्कुल मुर्दा-सा हो गया है और सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी तथा दोनों ओर से ज्यादतियों के समाचार रोजाना आ रहे हैं। नवीनतम घटनाक्रम में स्कूली छात्रों की पत्थरबाजी में संलिप्तता ने घाटी की परिस्थितियों को एक नया आयाम दे दिया है। कई वीडियो सामने आ रहे हैं जिनमें एक कश्मीरी युवक को सेना के वाहन से बांधने का वीडियो भी शामिल है। यह वीडियो सोशल नैटवर्क पर जारी होते ही घडिय़ों-पलों में सैन्य बलों के विरुद्ध बड़े पैमाने पर आक्रोश भड़क उठा। 

दुर्भाग्य की बात यह है कि न तो मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती और न ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लोगों के भड़के हुए गुस्से को शांत करने की कोई जल्दबाजी दिखाई है। प्रधानमंत्री ने तो इतना ही कहा कि लोगों को हर हालत में पर्यटन और आतंकवाद में से एक का चुनाव करना होगा। स्थानीय नेताओं तक पहुंचने या भड़के हुए गुस्से को शांत करने के लिए कोई खास प्रयास नहीं किए गए। संकट की हवा निकालने या समस्याओं के प्रति अति सक्रियता दिखाने की बजाय गठबंधन के घटक अलग-अलग दिशाओं में रस्साकशी कर रहे हैं। राज्य के इस्लाम समर्थक तत्वों एवं अन्य जेहादी संगठनों ने न केवल प्रदेश के अंदर बल्कि पूरे क्षेत्र में और यहां तक कि पश्चिमी पाकिस्तान के अंदर भी अपनी ङ्क्षहसक गतिविधियां तेज कर दी हैं।

पाकिस्तान ने भी बहती गंगा में हाथ धोने की तर्ज पर कश्मीर की जलती आग में अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में कोई कसर नहीं छोड़ी और लगातार विघटनकारी गतिविधियों को हवा दे रहा है। अब समय आ गया है कि केन्द्रीय नेतृत्व शीघ्रातिशीघ्र यह फैसला करे कि क्या वर्तमान प्रशासन स्थिति से निपट सकता है या फिर कुछ समय तक राष्ट्रपति शासन लागू करके दोबारा जनता का विश्वास बहाल करने के प्रयास करने होंगे और उसके बाद नए चुनाव करवाना ही एक बेहतर विकल्प होगा। 


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