क्या दिनेश्वर शर्मा के प्रयत्न फलीभूत होंगे

punjabkesari.in Friday, Oct 27, 2017 - 02:05 AM (IST)

जम्मू -कश्मीर दो कारणों से पुन: चर्चा में है। पहला- 27 अक्तूबर अर्थात् प्रदेश के स्वतंत्र भारत में विलय की 70वीं वर्षगांठ। दूसरा-केन्द्र सरकार द्वारा कश्मीर में वार्ताकार के रूप में पूर्व आई.बी. प्रमुख दिनेश्वर शर्मा की नियुक्ति। नि:संदेह कश्मीर समस्या की स्थायी शांति के लिए सरकार का हालिया कदम स्वागतयोग्य है। कई विपक्षी दल इसे अपनी विजय बताने और सरकार की कश्मीर नीति में परिवर्तन सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे में स्वाभाविक हो जाता है कि कुछ प्रश्नों के उत्तर ईमानदारी से खोजे जाएं। साथ ही घाटी की वास्तविक स्थिति का भी आकलन किया जाए। 

क्या वार्ताकार की नियुक्ति केन्द्रसरकार का एकाएक लिया हुआ फैसला है? कश्मीर में वार्ता की रूपरेखा तभी तैयार हो गई थी जब इस वर्ष 15 अगस्त को लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी कि कश्मीर समस्या का हल न तो गोली से और न ही गाली से निकलेगा, बल्कि यह केवल कश्मीरियों को गले लगाने से ही होगा। यही नहीं, गत माह केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कश्मीर जाकर 87 प्रतिनिधिमंडलों से भेंट भी की थी, जिनमें विभिन्न वर्गों से आए 800 से अधिक लोग शामिल थे। वास्तव में सरकार का उपरोक्त निर्णय कश्मीर के स्थायी हल के लिए बनाई उसकी रणनीति की ही प्रतिध्वनि है, जिसके पहले चरण में घाटी में आतंकवादियों और अलगाववादियों को काफी हद तक कुचला गया है। 

भारत सरकार पहले भी वार्ता के माध्यम से कश्मीर में शांति स्थापित करने की कोशिश कर चुकी है। वर्ष 2001-02 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार ने उस समय योजना आयोग के उपाध्यक्ष रहे के.सी. पंत को कश्मीर में अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा था। 19 फरवरी 2003 में एन.एन. वोहरा, जोकि वर्तमान में प्रदेश के राज्यपाल भी हैं, उन्हें भी वार्ताकार बनाया था और उनका कार्यकाल वर्ष 2008 तक रहा। वर्ष 2010 में तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने पत्रकार दिलीप पडगांवकर, शिक्षाविद् राधा कुमार और पूर्व सूचना आयुक्त एम.एम.अंसारी को वार्ताकार नियुक्त किया था। इस कालखंड में घाटी हिंसकप्रदर्शन की जकड़ में थी और वार्ता का मूल उद्देश्य कश्मीर समस्या का स्थायी समाधान ढूंढने के विपरीत ङ्क्षहसा को रोकने का अधिक था, किन्तु वर्तमान समय में स्थिति पहले की तुलना में काफी नियंत्रित है। 

घाटी में अलगाववादियों और आतंकियों को चिन्हित कर उन पर सख्त कार्रवाई की जा रही है। गुलाम कश्मीर में सॢजकल स्ट्राइक के बाद गत 10 माह में, जहां सुरक्षाबलों ने बड़े आतंकियों सहित 160 से अधिक जेहादियों को मौत के घाट उतारा है, वहीं पाकिस्तान से पैसा लेकर कश्मीर को अशांत करने वाले अलगाववादियों पर राष्ट्रीय सुरक्षा एजैंसी नकेल कस रही है। इन दोनों मोर्चों पर एक साथ हमले से घाटी में देशविरोधी शक्तियां हतोत्साहित हैं, जो सीमा पार बैठे उनके आकाओं की बौखलाहट का कारण भी बन चुकी हैं। ऐसे में सरकार अपनी नीति के अगले खंड में उस वर्ग से बात करना चाहती है, जो देश की मुख्यधारा से जुडऩा चाहते हैं, विकास. शांति में विश्वास रखते हैं और बेहतर भविष्य की तलाश में हैं। कश्मीर में केन्द्र द्वारा पहले से जारी नीतियां लागू रहेंगी अर्थात् आतंकियों व जेहादियों को सुरक्षाबल ठिकाने लगाते रहेंगे और पाकिस्तान से वित्तपोषित अलगाववादियों के खिलाफ  एन.आई. ए. का फंदा और अधिक कसेगा। 

मूल रूप से बिहार निवासी और केरल कैडर के आई.पी.एस. अधिकारी दिनेश्वर शर्मा का बतौर वार्ताकार का चुनाव इसलिए भी प्रासंगिक है क्योंकि आई.बी. में रहते हुए उन्हें जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद के विरुद्ध काम करने, आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिद्दीन की कमर तोडऩे और पूर्वोत्तर राज्यों में विद्रोह के मामलों से निपटने का लंबा अनुभव है। मई 2014 से केन्द्र की मोदी सरकार ने कश्मीर में शांति बहाली के साथ-साथ विकास को भी प्राथमिकता दी है। साढ़े 3 साल के कार्यकाल में केन्द्र सरकार ने 80,068 करोड़ रुपए की लागत से 63 विकास कार्यों की नींव रखी है, जिनमें श्रीनगर-जम्मू में एम्स अस्पताल खोलने, जम्मू में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई.आई.टी.) बनाने, सड़क, संचार, विद्युत, पर्यटन, शहरी-ग्रामीण क्षेत्रों का विकास, नदियों का प्रबंधन, हर जिले में प्राथमिकी जांच केन्द्र खोलना सहित कई योजनाएं शामिल हैं। 

ये सभी परियोजनाएं 15 केन्द्रीय मंत्रियों की निगरानी में संपन्न की जा रही हैं। कुल लागत का 28 प्रतिशत भाग अब तक केन्द्र द्वारा आबंटित किया जा चुका है, जबकि शेष स्वीकृत हो चुका है। उड़ान योजना के अतंर्गत केन्द्र सरकार ने 31 दिसम्बर, 2018 तक कश्मीर के 40 हजार स्नातक युवाओं को प्रशिक्षण देने का लक्ष्य निर्धारित किया है। अकेले कुपवाड़ा में स्वरोजगार हेतु 4 हजार महिलाओं को प्रशिक्षण दिया गया है। अतिरिक्त विशेष पुलिस अधिकारियों की नियुक्ति की गई है। सीमा के निकट बसे स्थानीय लोगों को विशेष सुरक्षा दी जा रही है। कश्मीर संकट न ही कानून.व्यवस्था की समस्या है और न ही यह एक राजनीतिक मामला है।

वास्तव में घाटी में तथाकथित ‘असंतोष के पीछे जहां मजहबी कट्टरता है, वहीं पाकिस्तान द्वारा भारत को ‘हजारों घाव देकर मौत के घाट उतारने’ का षड्यंत्र भी है। यहां मजहबी कट्टरता की नींव वर्ष 1931 में तब पड़ गई थी जब शेख अब्दुल्ला घाटी में सांप्रदायिकता का बीज बोने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अलगाववादी वातावरण से शिक्षा ग्रहण करने के बाद वापस कश्मीर लौटे थे। वह राष्ट्रवादी और पंथनिरपेक्ष महाराजा हरि सिंह की नीतियों को मुस्लिम विरोधी बताते और नौकरियों में मुसलमानों को प्राथमिकता देने की वकालत करते थे। श्रीनगर में अप्रैल 1931 में पोस्टर चिपकाने के अपराध में रियासती पुलिस द्वारा गिरफ्तार व्यक्ति को छुड़ाने वाली भीड़ को शेख अब्दुल्ला ने संबोधित किया, इसके बाद घाटी में विषवमन का सिलसिला शुरू हो गया। 

वर्ष 1946 में शेख अब्दुल्ला ने महाराजा हरि सिंह के खिलाफ ‘कश्मीर छोड़ो आंदोलन’ शुरू कर दिया। शेख को उनके साथी गिरफ्तार कर ले गए। सरदार पटेल के विरोध के बाद भी  पं. नेहरू ने महाराजा को पत्र लिखकर शेख को रिहा करने की मांग की और जम्मू-कश्मीर जाकर शेख के समर्थन में मुकद्दमा लडऩे की घोषणा कर दी। महाराजा ने उनके रियासत में प्रवेश करने पर पाबंदी लगा दी। प्रतिबंध के बावजूद श्रीनगर जाने की कोशिश कर रहे पं. नेहरू गिरफ्तार कर लिए गए। इसी घटना से उत्पन्न हुई व्यक्तिगत खुन्नस, झुंझलाहट और जिद ने न केवल स्वतंत्र भारत में जम्मू-कश्मीर के विलय में विलंब का खाका खींचा, बल्कि देश की सुरक्षा को भी अनंतकाल के लिए गर्त में पहुंचा दिया। 

स्वतंत्रता के 2 माह पश्चात 22 अक्तूबर, 1947 को पाकिस्तानी सेना ने कबाइलियों के साथ मिलकर जम्मू-कश्मीर पर दो तरफा हमला कर दिया। निराश महाराजा हरिसिंह ने लिखित में भारत में विलय की सहमति दी, किन्तु पं. नेहरू ने इसे तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल को सौंपने के बजाय अपने पास लटकाए रखा। अनावश्यक विलम्ब के बाद 27 अक्तूबर को प्रस्ताव औपचारिक रूप से स्वीकृत कर लिया। बढ़ती भारतीय सेना को बिना पूरे कश्मीर को मुक्त कराए युद्ध विराम की घोषणा करना, महाराजा हरि सिंह जैसे देशभक्त को घाटी से बाहर करना, घोर सांप्रदायिक शेख अब्दुल्ला को सत्ता सौंपना, मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाना और अनुच्छेद 370 लागू करना-जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के बाद के सफर में वह महत्वपूर्ण मोड़ है, जिसने कश्मीर में इस्लामी कट्टरपंथ और जेहाद का मार्ग प्रशस्त कर दिया। 

कश्मीर को हिन्दू-विहीन करना, सुरक्षाबलों पर पथराव, आतंकियों को पनाह देना,मस्जिदों से भारत विरोधी और पाकिस्तान-आई.एस. के समर्थन में नारे लगाना न तो किसी विकास के लिए है और न ही किसी बेरोजगारी विरोधी अभियान का हिस्सा। यह लड़ाई उस दर्शन से प्रेरित है जिसने भारत का विभाजन करवाया। आज घाटी की जनता को इसी रुग्ण मानसिकता से मुक्त कराने की आवश्यकता है। कश्मीर से संबंधित मामले में दिनेश्वर शर्मा के लंबे अनुभव से यह अपेक्षा करना स्वाभाविक है कि वह घाटी को इस दुष्चक्र से बाहर निकालने में सफल होंगे।
 


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