क्या समस्त मुस्लिम समाज परिवर्तन में शामिल होगा

punjabkesari.in Friday, Aug 25, 2017 - 02:48 AM (IST)

भारत में सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ अब तक हुए ऐतिहासिक संघर्षों में 22 अगस्त, 2017 का दिन एक और मील पत्थर के रूप में स्मरण रहेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने मुस्लिम महिलाओं के लिए अभिशाप बन चुके ‘तीन तलाक’ को असंवैधानिक और अवैध घोषित कर दिया है। 

32 वर्ष पूर्व परिवर्तन की जो यात्रा शाहबानो के माध्यम से मुस्लिम समाज में शुरू हुई थी, जिसके समक्ष इस्लामी कट्टरपंथी और मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति अवरोधक बन गए थे, वह लंबित यात्रा अब सायरा बानो सरीखी मुस्लिम महिलाओं के माध्यम से अपने पड़ाव पर सफलतापूर्वक पहुंच गई है। यक्ष प्रश्न यह है कि क्या बदलाव की इस यात्रा में शेष मुस्लिम समुदाय भी शामिल होगा? तलाक-ए-बिद्दत अर्थात तीन तलाक पर शीर्ष अदालत की 5 सदस्यीय खंडपीठ का निर्णय बहुमत के आधार पर आया है। इस फैसले के अनुसार, तलाक की यह प्रकिया संविधान में दिए गए समानता के अधिकार का हनन है और यह इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है, इसलिए इसे संविधान में दी गई मजहबी आजादी (अनुच्छेद-25) में संरक्षण नहीं मिल सकता। इसके साथ ही अदालत ने बहुमत के आधार पर शरीयत कानून 1937 की धारा-2 में इस तलाक को दी मान्यता को भी निरस्त कर दिया। 

जहां अदालती खंडपीठ में न्यायाधीश नरीमन, न्यायाधीश ललित और न्यायाधीश कुरियन ने ‘तीन तलाक’ को असंवैधानिक बताते हुए इसे महिला अधिकारों पर आघात करने वाला बताया, वहीं मुख्य न्यायाधीश खेहर और न्यायाधीश नजीर इसके पक्ष में नजर आए। उनके अनुसार तलाक-ए-बिद्दत सुन्नी समुदाय में गत 1000 वर्षों से चला आ रहा है और इसकी स्वीकृति पुरुषों को दी गई है। अब चूंकि फैसला बहुमत के रूप में आया है, तो केन्द्र सरकार इस संबंध में कानून बनाने के लिए बाध्य नहीं है। इस ऐतिहासिक निर्णय का दूरगामी प्रभाव यह होगा कि अब भारत में कोई भी शौहर अपनी बेगम को मनमाने ढंग से ‘तलाक-तलाक-तलाक’ कहकर नहीं छोड़ पाएगा। महिलाओं के मन में तलाक को लेकर बैठा भय खत्म होगा। 

अदालत में इस क्रांतिकारी फैसले की नींव उन मुस्लिम महिलाओं ने रखी, जिन्होंने इस्लामी कट्टरपंथियों की ङ्क्षचता किए बिना न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। इन महिलाओं को उनके पति ने सोते समय, कोरियर, स्पीड पोस्ट, चि_ी-तार, व्हाट्सएप, फोन के माध्यम से या फिर अखबार में विज्ञापन देकर और लड़की को जन्म देने के कारण तलाक दे दिया था। उन्हीं में से 3 महिलाएं सायरा बानो, इशरतजहां और जाकिया सोमन ऐसी हैं, जिनके साहस और निडरता ने मुस्लिम समाज में व्याप्त सामाजिक कलंक पर विमर्श को एक नई दिशा दी। उत्तराखंड में काशीपुर निवासी सायरा बानो को उसके शौहर ने डेढ़ दशक तक शादी के बंधन में रहने के बाद वर्ष 2015 में तीन तलाक दे दिया था। सायरा ने 2016 में शीर्ष अदालत में याचिका दाखिल कर तलाक-ए-बिद्दत (तीन तलाक), बहु-विवाह और निकाह हलाला को संविधान के मौलिक अधिकारों के आधार पर गैर-कानूनी घोषित करने की मांग की। 

इसी तरह, प. बंगाल में हावड़ा की इशरतजहां ने अगस्त 2016 में सर्वोच्च न्यायालय में सामाजिक कलंक तीन तलाक के विरुद्ध याचिका दाखिल की थी। उसके पति ने दुबई से फोन पर तीन बार ‘तलाक’ बोलकर रिश्ता खत्म कर दिया था। वहीं भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन का नेतृत्व करने वाली जाकिया ने मुस्लिम समाज में तीन तलाक सहित अन्य कुरीतियों के विरुद्ध हस्ताक्षर अभियान चलाया था, जिसमें हजारों मुस्लिम महिलाओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। जाकिया ने 50,000 महिलाओं के हस्ताक्षर वाला एक ज्ञापन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सौंपा था। वर्तमान समय में मानवीय मूल्य और अधिकार, आधुनिक परिप्रेक्ष्य में किसी भी रूढि़वादी व कालबाह्यी परम्परा से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं।

जब भारत में वर्ष 1955-56 में हिन्दू कोड बिल के अंतर्गत- हिन्दू विवाह अधिनियम, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, हिन्दू अल्पसंख्यक-संरक्षक अधिनियम और हिन्दू दत्तक ग्रहण-रखरखाव अधिनियम लाए गए, इसके अतिरिक्त सती-प्रथा, दहेज-प्रथा और बाल-विवाह के विरुद्ध कड़े कानून बनाए गए, तो इसका एकमात्र उद्देश्य सामाजिक कुरीतियों को खत्म कर महिलाओं को सशक्त करना, उन्हें बराबरी का अधिकार देना और समाज में उनके अस्तित्व को प्रासंगिक बनाना रहा। जिसका स्वागत न केवल हिन्दू समाज के प्रबुद्ध वर्ग ने भी किया, बल्कि इसे समाज के भीतर से ही दिशा दी गई। उसी प्रकार ‘तीन तलाक’, ‘हलाला’ और ‘बहु-विवाह’ जैसी कुरीतियों को खत्म करने का प्रयास मुस्लिम समाज की महिलाओं को अन्य समुदाय की महिलाओं की भांति समान अधिकार देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है। 

आज कांग्रेस सहित अन्य तथाकथित पंथनिरपेक्ष तलाक-ए-बिद्दत पर शीर्ष न्यायालय के निर्णय का स्वागत कर रहे हैं। किन्तु क्या यह सत्य नहीं कि 32 वर्षों से मुस्लिम महिलाओं ने जिस अत्याचार और मानसिक उत्पीडऩ का सामना किया, उसका जिम्मेदार इस्लामी कट्टरपंथ के साथ-साथ स्वघोषित पंथनिरपेक्षकों का छद्म-सैकुलरवाद है? देश का दुर्भाग्य है कि मुस्लिम समाज में व्याप्त इन कलंकों का विरोध, विशेषकर मोदी/भाजपा के प्रयासों को स्वघोषित सैकुलरिस्टों ने साम्प्रदायिक चश्मे से ही देखा। जो विमर्श लैंगिक समानता और उससे संबंधित संघर्ष के लिए होना चाहिए था, उसे मुस्लिम कट्टरपंथियों के तुष्टीकरण और वोट बैंक के लिए साम्प्रदायिकता की भट्टी में तपने के लिए छोड़ दिया और पूरे मुद्दे को बेवजह हिन्दू बनाम मुसलमान बना दिया। 

‘तीन तलाक’ के माध्यम से मुस्लिम महिलाओं का उत्पीडऩ अनवरत चलता रहे, उसके लिए अदालत के भीतर और बाहर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सहित कई अन्य कट्टरपंथी मौलवियों के तर्क-कुतर्क  सामने आए और अब भी आ रहे हैं- उनमें ‘‘अदालत इस्लाम में दखल नहीं दे सकती... मुसलमान केवल शरीयत का कानून मानते हैं... कुरान और हदीस का जो फैसला होगा, उसी को मानेंगे’’ आदि शामिल हैं। 21वीं शताब्दी में भारतीय मुसलमानों के एक बड़े भाग में इस मध्यकालीन मनोस्थिति के लिए देश के तथाकथित सैकुलरिस्ट ही उत्तरदायी हैं, जिन्होंने सैकुलरवाद के नाम पर और अपने स्वार्थ के लिए मुस्लिम कट्टरवाद का भरपूर पोषण किया, जो आज भी जारी है। 

जब पं. नेहरू 1950 के दशक में अविलंब हिन्दू कोड बिल लेकर आए, तब प्रश्न मुस्लिम समाज में सुधार का आया तो उसे मुसलमानों की इच्छा पर छोड़ दिया। 70 वर्षों में समान नागरिक संहिता तो छोडि़ए, सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि सामाजिक कुरीतियों से छुटकारा पाने की अभिलाषा मुस्लिम समाज में महिलाओं को छोड़कर बड़े स्तर पर अब तक जागृत ही नहीं हो पाई है। मुस्लिम समुदाय में महिला उत्पीडऩ और उन्हें समान अधिकार दिलाने की मुखर बहस वर्ष 1985 में तीन तलाक की शिकार शाहबानो गुजारा-भत्ता संबंधी मामले से हुई थी, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों के अनुरूप समान नागरिक संहिता पर बल दिया था। परंतु कट्टरपंथी मुसलमानों ने इसे उनके मजहबी विधानों पर कुठाराघात बताया। 

मुस्लिम वोट बैंक को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से 1986 में पूर्ण बहुमत वाली राजीव गांधी सरकार ने न्यायालय का निर्णय पलटने हेतु मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम पारित कर दिया। पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने अपनी पुस्तक ‘‘द टर्बुलैंट ईयर्स’: 1980-1996’’ में शाहबानो प्रकरण का उल्लेख करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के इस फैसले को बड़ी गलती बताया है। भारत में अधिकतर मुस्लिमों को छोड़कर अन्य अल्पसंख्यक समुदायों ने आधुनिक नागरिक कानून को अपनाकर अपनी उदार मानसिकता का परिचय दिया है। लिंग आधारित समानता देने का अर्थ महिलाओं को समान अधिकार देना है। आज महिलाएं इसी अधिकार के कारण आर्थिक रूप से स्वतंत्र होकर समाज में अपनी अलग पहचान बना रही हैं। किन्तु भारतीय मुस्लिम समाज का कट्टरपंथी वर्ग आज भी स्वघोषित सैकुलरिस्टों के आशीर्वाद से सामाजिक कलंकों को ढो रहा है।


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