कुम्भ मेले के आयोजन पर सवाल क्यों

punjabkesari.in Friday, Feb 15, 2019 - 04:06 AM (IST)

अभी हाल ही में मुझे अपने परिवार और मित्रों के साथ प्रयागराज स्थित त्रिवेणी संगम पर हो रहे कुम्भ मेले में जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वहां आस्था की डुबकी लगाकर और उचित प्रबंधन देखकर, जहां मन को शांति मिली, वही दूसरी ओर सोशल मीडिया पर कुम्भ को लेकर की जा रही कुछ टिप्पणियों से बहुत पीड़ा भी हुई। 

एक संदेशकत्र्ता ने प्रश्न उठाया कि उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ और केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने एक मेले पर लगभग 5,000 करोड़ रुपए खर्च कर दिए। क्या उसका उपयोग जनहित के कामों में नहीं हो सकता था? एक अन्य संदेश में कहा गया कि इतनी राशि से कितने स्कूलों, अनाथालयों और अस्पतालों का निर्माण हो सकता था और न जाने कितने दिव्यांगों को सुविधा देने की दिशा में योजनाएं शुरू हो सकती थीं? यही नहीं, गत वर्ष 24 नवम्बर को एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी समाचारपत्र ने अपनी वैबसाइट पर कुम्भ मेले पर रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसके अनुसार सामूहिक स्नान से जीवाणु-संबंधी रोग हो सकते हैं। 

सतह पर इस प्रकार के तर्क समाज के कुछ लोगों को ठीक लग सकते हैं, परंतु मन में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इस तरह की आपत्तियां और टिप्पणियां केवल हिंदुओं के उत्सवों और परम्पराओं के संदर्भ में ही क्यों सामने आती हैं? जिन्हें इन त्यौहारों पर पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक आपत्तियां नजर आती हैं, वे लोग उसी प्रकार के तर्कों का उपयोग अन्य पंथों के पर्वों के लिए क्यों नहीं करते? 

अन्य पर्वों पर भी प्रश्र
यह विकृति केवल कुम्भ तक सीमित नहीं है। जब भी देश में दीपावली, दशहरा, होली, करवाचौथ, नवरात्र, जन्माष्टमी आदि पर्व आते हैं, तभी समाज में एक वर्ग द्वारा उसकी प्रासंगिकता, उपयोगिता और परम्पराओं पर सवाल खड़ा कर दिया जाता है। जैसे ‘दीपावली पर पटाखे जलाने से प्रदूषण फैलता है, होली पर पानी की बर्बादी होती है, जन्माष्टमी में दही-हांडी के खेल में जीवन को खतरा होता है, करवाचौथ में महिलाओं का शोषण होता है,  इत्यादि। क्या यह सत्य नहीं कि इन सभी पर्वों के पीछे पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही परम्पराएं,मान्यताएं और हजारों वर्षों की आस्था निहित है? क्या अन्य पंथों के त्यौहारों की विशेष पृष्ठभूमि नहीं होती है, जिसमें संबंधित लोगों की आस्था जुड़ी होती है?

उदाहरणस्वरूप क्रिसमस। ईसाई मान्यता के अनुसार, हजारों वर्ष पहले मैरी नामक एक युवती के पास गैब्रियल नामक देवदूत ईश्वर का संदेश लेकर पहुंचे थे। उन्होंने मैरी को जानकारी दी कि वह प्रभु के पुत्र को जन्म देगी और उस शिशु का नाम जीसस रखा जाएगा। ईसा को मैरी ने आधी रात को एक अस्तबल में जन्म दिया। तभी से ईसाई समुदाय उनके जन्म को क्रिसमस के रूप में मनाता है, जो टर्की पक्षी के सेवन (गौमांस, शूकर के सिर और चिकन सहित), उपहारों के आदान-प्रदान और रंगारंग सजावट के बिना अधूरा है।

आंकड़ों के अनुसार, इंगलैंड में क्रिसमस के समय अपने ‘पारम्परिक भोजन’ के लिए प्रतिवर्ष एक करोड़ से अधिक टर्कियों (एक प्रकार की बत्तख) को बूचडख़ानों में मार दिया जाता है। वहीं अमरीका में प्रतिवर्ष 30 करोड़  टर्की क्रिसमस और थैंक्सगिविंग डे पर भोजन के लिए मार दी जाती हैं। भारत में भी विशेषकर दक्षिण और पूर्वोत्तर भाग में क्रिसमस के समय गौमांस, चिकन और कभी-कभी टर्की का सेवन परंपरा के नाम पर किया जाता है। एक अध्ययन के अनुसार, भारत सहित विश्व में क्रिसमस पर लगभग 224 करोड़ बधाई पत्र भेजे जाते हैं, जिन्हें बनाने हेतु करोड़ों पेड़ काट दिए जाते हैं। 

मुसलमानों का प्रमुख पर्व ईद-उल-अजहा है, जिसमें विश्वभर में 10 करोड़ से अधिक भेड़ों, बकरों, गऊओं, ऊंटों आदि पशुओं की कुर्बानी दी जाती है। अकेले भारत में यह संख्या एक करोड़ से अधिक है। यह किसी विडम्बना से कम नहीं कि जहां देश के तथाकथित सैकुलरिस्टों, स्वयंभू उदारवादियों-प्रगतिशीलवादियों के लिए, करोड़ों हिंदुओं हेतु आस्थावान गौहत्या पर प्रतिबंध की मांग-साम्प्रदायिक होने के साथ-साथ एक समुदाय विशेष के पसंदीदा खाने के अधिकार और कथित मजहबी परम्परा पर आघात का प्रतीक बन जाती है, वहीं ईद पर गोवंश, बकरों, ऊंटों आदि पशुओं की कुर्बानी या क्रिसमस पर टर्की पक्षी का सेवन- मजहबी परम्परा और रीति-रिवाज का विषय बनकर उन लोगों के लिए न्यायसंगत हो जाता है। यह स्थिति तब है जब संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की एक रिपोर्ट ने बीफ  को ‘जलवायु के लिए नुक्सानदेह’ मांस बताया है। 

इस पृष्ठभूमि में क्या ईसाई और मुस्लिम समाज से संबंधित पर्वों पर होने वाले खर्चों या फिर उससे पर्यावरण-जलवायु पर पडऩे वाले दुष्प्रभाव संबंधी तर्क देश के स्वघोषित सैकुलरिस्टों के मुख से सुनाई देते हैं, जैसा अक्सर कुम्भ, दीपावली या होली के समय होता है? इस विकृति का कारण उस सच में है जिसमें देश का एक बड़ा भाग न केवल अपनी मूल पहचान और प्राचीन संस्कृति से अनभिज्ञ है, साथ ही उनमें इनके प्रति घृणा का भाव भी घर कर चुका है। किशोरावस्था में अधिकांश भारतीयों को अपने इतिहास की जानकारी स्कूली पाठ्यक्रम के माध्यम से मिल जाती है, जो चिरकाल तक बनी रहती है। दुर्भाग्य से देश की शिक्षा पद्धति आज भी उसी मैकाले नीति पर चल रही है, जिसे अंग्रेजों ने अपने साम्राज्यवादी, औपनिवेशिक और राजनीतिक हितों को साधने के लिए लागू किया था। 

औपनिवेशिक मानसिकता 
भारतीय इतिहास लिखने वाले अधिकांश यूरोपीय विद्वान औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी ङ्क्षचतन से जकड़े हुए थे और स्वतंत्रता के बाद देश को इस मानसिकता से बाहर निकलना चाहिए था। किंतु  देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने पश्चिमी सभ्यता और चिंतन के प्रभाव में शीर्ष शिक्षण नियामक संस्थानों को उन वामपंथियों के हाथों में सौंप दिया, जो वैचारिक कारणों से इस विशाल भूखंड की वैदिक संस्कृति और परम्पराओं से घृणा करते हैं और आज भी स्वयं को इससे जोड़ नहीं पाए हैं। प्रयागराज कुम्भ के भव्य आयोजन पर सवाल उसका प्रत्यक्ष रूप है। 

कुम्भ मेले का आयोजन प्राचीनकाल से हो रहा है। 7वीं शताब्दी में भारत आए चीनी बौद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग ने अपने लेख में सम्राट हर्षवर्धन के शासन में होने वाले कुम्भ का वर्णन किया है। प्राचीन हिंदू परम्पराओं के अनुसार, देवताओं और दानवों के समुद्र मंथन के पश्चात अन्य अनमोल रत्नों के साथ अमृत कुम्भ भी निकला था, जिसे सुरक्षित स्वर्ग पहुंचाने की जिम्मेदारी देवराज इंद्र पुत्र जयंत को सौंपी गई थी। अमृत को स्वर्ग तक ले जाते समय देवताओं का राक्षसों से चार बार संघर्ष हुआ और इसी छीना-झपटी में अमृत की कुछ बूंदें छलककर चार स्थानों- हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन में गिर गई थीं। 

कई चीजें पहली बार
प्रयागराज में चल रहे वर्तमान कुम्भ में कई चीजें पहली बार हो रही हैं। उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने प्रयागराज में चल रहे कुम्भ मेले के लिए सर्वाधिक 4,236 करोड़ रुपए का आबंटन किया है, जो वर्ष 2013 के कुम्भ बजट का लगभग 3 गुना है। इस बजट में प्रदेश सरकार लगभग 2,000 करोड़ और केन्द्र सरकार 2,200 करोड़ वहन कर रही है। पिछली सपा सरकार ने महाकुम्भ पर 1,300 करोड़ रुपए खर्च किए थे। बजट के अतिरिक्त कुम्भ मेले का क्षेत्रफल भी लगभग दोगुना रखा गया है। इस बार इसका आयोजन 3,200 हैक्टेयर में हो रहा है, जो 2013 में 1,600 हैक्टेयर था। भौतिक संसाधनों की प्रचुरता और आधुनिकता की दौड़ में वर्षों पहले वैदिक सनातन संस्कृति को अंगीकार करने वाले 9 विदेशी संन्यासियों को सनातन वैष्णव परम्परा के सम्मानित पद महामंडलेश्वर से विभूषित किया गया है। यही नहीं, लाखों-करोड़ों लोगों की आस्था, विश्वास और विश्वभर में फैली इसकी लोकप्रियता को देखते हुए वैश्विक संगठन यूनेस्को ने इसे विश्व की सांस्कृतिक धरोहरों में शामिल कर लिया है। 

कुम्भ मेले का श्रद्धालुओं के लिए आध्यात्मिक महत्व है, जहां मान्यताओं के अनुसार, मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसके साथ-साथ यह महापर्व उस अकाट्य सत्य को भी रेखांकित करता है कि भारत एक सनातन राष्ट्र है, जिसका जन्म 1947 या 1950 में नहीं हुआ था, बल्कि यह हजारों वर्षों से जीवंत सांस्कृतिक इकाई के रूप में विश्व पटल पर विद्यमान है। इस धरती पर जन्मी वैदिक संस्कृति और उसके गर्भ से निकले बौद्ध पंथ, जैन पंथ, सिख पंथ इत्यादि इसकी आत्मा हैं। वास्तव में, भारत की पंथनिरपेक्षता किसी कानून या संविधान के कारण नहीं है, बल्कि हमारा संविधान ‘एकं सद् विप्रा: बहुधा वदंति’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के भारतीय मूल्यों को प्रतिबिंबित करता है। प्रयागराज का कुम्भ मेला उसी मूल्य का जीवंत रूप है।-बलबीर पुंज


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News