जम्मू-कश्मीर पुलिस का बलिदान उपेक्षित क्यों

punjabkesari.in Saturday, May 06, 2017 - 12:19 AM (IST)

जम्मू -कश्मीर के पुंछ क्षेत्र में बी.एस.एफ. के हैड कांस्टेबल प्रेम सागर और नायब सूबेदार परमजीत सिंह- इन 2 सैनिकों की हत्या और उनके साथ हुई बर्बरता पर सम्पूर्ण देश में बवाल मच गया। इन दोनों जवानों के गांव तथा राज्यों में उन्हें सम्मानपूर्वक श्रद्धांजलि अर्पित की गई। मृत्यु उपरांत इन दो शहीदों के नाम देश के घर-घर में पहुंच गए जो सम्पूर्ण रूप से उचित है। देश के किसी भी जवान को इस तरह से मौत के घाट उतारे जाने पर किसी भी देशवासी को क्रोध आना स्वाभाविक है और उस जवान का उचित सम्मान करना, उसके परिवार का पुनर्वास करना यह देश का उत्तरदायित्व है। 

दूसरी ओर, लगभग इसी समय कश्मीर के खानयार भाग में एक पुलिस चौकी पर बम फैंका गया और कुलगाम में बैंक की कैश ले जाने वाली वैन पर भी आतंकियों ने हमला किया। इन 2 वारदातों में कुल 7 लोग मारे गए, जिनमें से 5 पुलिस कर्मी (कांस्टेबल) थे। किसी भी प्रसार माध्यम में इन लोगों के नाम नहीं नजर आए और न ही उनके परिवार का विलाप, बच्चों का भविष्य या स्वयं उनके बलिदान की कोई चर्चा किसी भी न्यूज चैनल पर दिखाई दी। जम्मू-कश्मीर और खास कर कश्मीर घाटी के पुलिस कर्मियों के विषय में यही अनास्था गत कई वर्षों से वहां चल रहे आतंकवाद के दौरान देखी गई है। 

कश्मीर के पुलिस दल को दो स्तरों पर लडऩा पड़ता है-आतंकियों से और पत्थर फैंकनेवाले स्थानीय लोगों से। फिर भी अंत में उन्हें केवल उपेक्षा ही झेलनी पड़ती है। सन् 1999 में पुलिस में भर्ती हुए लोगों को आज 18 वर्षों के पश्चात भी कोई पदोन्नति नहीं मिली। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इन कर्मियों के परिश्रमों के मद्देनजर उनके लिए हार्डशिप अलाऊंस, मैगा रिस्क अलाऊंस जैसी योजनाओं की घोषणा की, किन्तु जो रकम इन नामों पर दी जाती है, वह अद्र्धसैनिक बलों की तुलना में बहुत ही कम है। 

कुछ दिन पूर्व भारत के गृह राज्य मंत्री हंसराज अहीर ने कश्मीरी युवकों को पुलिस में भर्ती कर उनके हाथ में बंदूक देने के विषय पर कुछ आपत्तियां जताईं। किन्तु पथराव की घटनाओं का सामना करने के लिए महिला पुलिस दल गठित करने और अन्य राज्यों से कुछ विशेष सुरक्षा बलों को जम्मू-कश्मीर में लाने का विचार व्यक्त किया। वास्तव में, स्थानीय गतिविधियों तथा विभिन्न प्रकार के लोगों की जितनी जानकारी स्थानीय लोगों को होती है, उतनी बाहर से आने वाले लोगों को होना नामुमकिन है। 

कुछ समय पूर्व मारा गया आतंकी बुरहान वानी वहां के युवकों को यही कहता था कि पुलिस में भर्ती होने पर आपको कुछ नहीं मिलेगा और जान का खतरा वहां भी है। आप हमारे लिए काम करो तो आपको अधिक धन प्राप्त होगा। फिर भी, वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के अनुसार, आतंकवाद का सहारा लेने वाले युवकों की संख्या 200 से अधिक नहीं है। वहीं, विशेष पुलिस अधिकारी को कम वेतन मिलता है, फिर भी वहां 10-20 हजार कश्मीरी युवाओं की कतारें लग जाती हैं। क्या हम लोग इस बात का विचार कभी करेंगे? 

कितने ही समाचारपत्र, राजनीतिक नेता, न्यूज चैनल कश्मीर में घटी किसी घटना के पश्चात आसानी से ये कहते हैं कि वहां की पुलिस की आतंकियों से मिलीभगत है किन्तु मैं गत कई वर्षों से वहां के पुलिस कर्मियों की अवस्था नजदीक से देख रहा हूं। आतंकी बुरहान वानी की मौत के पश्चात झुंड ने कई पुलिस थानों पर हमले किए। एक घटना में तो एक पुलिस कर्मी की आंखें निकाल कर उसकी हत्या की गई थी। एक पुलिस चौकी से हथियार लेकर लोग फरार हो गए। आज तक कश्मीर में पुलिस पर जितने हमले हुए और पुलिस कर्मियों के मारे जाने की जितनी भी घटनाएं हुईं उनका अध्ययन करने के बाद ऐसा पता चला कि 23 मई 2016 को टेंगपुरा पुलिस थाना या 22 जून 2016 को एक पुलिस चैक पोस्ट पर जो हमले हुए, उनमें जख्मी या मृत पुलिस कर्मियों के परिवारों को अभी तक सरकारी सहायता की प्रतीक्षा है। 

कितने ही गांवों में पुलिस कर्मियों के परिवारों को बहिष्कृत किया गया है। पुलिस कर्मी और उनके परिवारों का जीना हराम हो चुका है। एक ओर आतंकियों और उनके मार्गदर्शकों को सहायता करने के गैर-जिम्मेदार नेताओं द्वारा तथा सोशल मीडिया पर आरोप तथा दूसरी ओर अपने ही लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए स्थानीय जनता का रोष, ऐसी अवस्था में वहां के पुलिस कर्मी अत्यंत तनावयुक्त जीवन का सामना कर रहे हैं। इस कारण वे कई व्याधियों के शिकार बन रहे हैं किन्तु उनके लिए अच्छी स्वास्थ्य सेवा का कोई प्रबन्ध नहीं है। अपने बच्चों को अन्य राज्यों में शिक्षा के लिए भेजना भी वर्तमान परिस्थिति में सुरक्षित नहीं माना जा सकता। इस कारण, हम कहीं के नहीं रहे, यह भावना उन्हें निराश कर रही है। 

हमारी सरहद संस्था में मंझूर राथर नामक एक युवा है। उसके पिता पुलिस में थे। आतंकियों ने कुछ वर्ष पूर्व घर में घुस कर उनकी हत्या की थी। उसकी माता ने अपने बच्चों के भविष्य के लिए उसे और उसके भाई को कश्मीर से बाहर भेज दिया। आज तक मंझूर को शहीद का बेटा होने का सम्मान नहीं मिला, बल्कि कश्मीरी मुस्लिम होने के कारण उसे भारत में शक की नजर से देखा जाता रहा है। 

सरकार की ओर से उसे कोई बड़ी वित्तीय सहायता नहीं मिली और जो कुछ मिला, वह भी लम्बी प्रतीक्षा के पश्चात। देश की सेवा में अपना बलिदान देने के लिए उसके पिता या उसके परिवार को कोई सम्मान नहीं प्राप्त हुआ है। आज जब वह अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास कर रहा है, हमें चाहिए कि उसका आधार बनें। जम्मू-कश्मीर पुलिस कुछ ऐसी ही अवस्था में है। जख्मी होने पर या बलिदान देने पर उन्हें मिलने वाली राशि बहुत ही कम होती है और उनके पश्चात उनके परिवार का गुजारा मुश्किल से होता है। 

कुछ समय पहले आतंकियों ने लोगों से कहा कि वे कश्मीर के पुलिस जवानों को अपनी बेटियां ब्याह में न दें। इसके कारण लड़कियों के कई माता-पिता घबरा गए। फिर भी, जब भी पुलिस या एस.पी.ओ. (स्पैशल पुलिस ऑफिसर) की भर्ती का इश्तिहार आता है, तब सैंकड़ों-हजारों कश्मीरी युवा अपना भाग्य आजमाने वहां आते हैं, यह नि:संदेह एक बड़ी बात है और सराहनीय है। किन्तु हम इन एस.पी.ओ. के वेतन की राशि सुनें तो हमें बहुत झटका लगेगा। अपनी जान जोखिम में डालकर आतंकियों से लडऩे वाले इन युवकों को वेतन मिलता है मात्र 3-4 हजार रुपए। 

आतंकियों के खिलाफ चलाई जाने वाली किसी भी मुहिम में अद्र्धसैनिक बलों या सेना के साथ जम्मू-कश्मीर पुलिस के जवान मिल कर काम करते हैं। देश के लिए सभी सुरक्षा बलों का यही कत्र्तव्य भी है, किन्तु मृत्यु उपरांत उन्हें जो पुनर्वासन, सहायता और सम्मान प्राप्त होता है, उसमें अंतर होता है। यह सही नहीं है। जम्मू-कश्मीर में यदि शान्ति प्रस्थापित करनी है तो उसमें वहां के पुलिस बल का योगदान काफी महत्वपूर्ण होगा और इसी कारण जम्मू-कश्मीर पुलिस बल की पीड़ा हम सभी देशवासियों को समझनी होगी। हमें उनका समर्थन करना होगा।    


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