लगातार चुनाव क्यों जीतती रहती है भाजपा
punjabkesari.in Sunday, Dec 01, 2024 - 05:55 AM (IST)
महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में भाजपा की जीत अप्रत्याशित नहीं थी। हालांकि, भाजपा ने 90 प्रतिशत से अधिक सीटों पर जीत हासिल की और उसके सहयोगियों ने भी शानदार जनादेश हासिल किया। भाजपा किसी भी चुनाव को हल्के में नहीं लेती है। पंचायतों से लेकर संसद तक, यह हर चुनाव में अपनी पूरी ताकत लगाती है। इसमें अपनी गलतियों से सीखने और जल्दी से जल्दी सुधार करने की जबरदस्त क्षमता है। अंत में, यह कुछ जीत सकती है और कुछ हार सकती है। लेकिन जब अगला चुनाव आता है, तो पार्टी पूरी ताकत से तैयार रहती है। भारत में किसी अन्य पार्टी ने चुनावों के दौरान ऐसा जादू नहीं दिखाया है।
कहा जाता है कि सफलता के कई पिता होते हैं, असफलता अनाथ होती है। महाराष्ट्र इसका अपवाद नहीं है। हालांकि, भाजपा नेतृत्व हमेशा यह समझता है कि चुनाव में जीत या हार किसी एक कारक के कारण नहीं हो सकती। कुछ निश्चित ताकतें होती हैं, लेकिन हर चुनाव में कुछ चर होते हैं। 7 दशकों से ज्यादा समय तक चली अपनी लंबी राजनीतिक यात्रा में, पहले भारतीय जनसंघ (बी.जे.एस.) के रूप में और बाद में भारतीय जनता पार्टी के रूप में, पार्टी ने अपनी चुनावी मशीन को मजबूत किया है। जहां तक स्थिरांकों का सवाल है, यह नेता, कैडर और परिवार की तिकड़ी पर निर्भर करता है। अतीत में अटल बिहारी वाजपेयी व लाल कृष्ण अडवानी और अब नरेंद्र मोदी ने पार्टी को ऊंचाइयों पर पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पी.एम. मोदी ऐसा नेतृत्व प्रदान करते हैं जो देश के राजनीतिक इतिहास में दुर्लभ है। वे सत्ता विरोधी लहर के बारे में पारंपरिक राजनीतिक ज्ञान को चुनौती देते हैं। यही कारण है कि पार्टी बिना किसी खेद के अपनी चुनावी जीत का श्रेय उस बढ़ती हुई व्यापक अपील को देती है जो प्रधानमंत्री को सत्ता में 10 साल से ज्यादा समय के बाद भी हासिल है।
प्रधानमंत्री पद के साथ-साथ भाजपा के लिए 2 अन्य महत्वपूर्ण स्थिरांक हैं-इसकी सुव्यवस्थित संगठनात्मक मशीनरी और संघ परिवार से मिलने वाला अनौपचारिक महत्वपूर्ण समर्थन। महाराष्ट्र और अन्य जगहों पर भी, उनका योगदान बहुत बड़ा था। इन स्थिरांकों से परे ऐसे चर हैं जिन पर पार्टी ने दशकों के अनुभव से महारत हासिल की है। एक विचारधारा से प्रेरित पार्टी के रूप में शुरू हुई भारतीय जनसंघ ने 1967 में अपना पहला लिटमस टैस्ट तब देखा जब उसे समाजवादियों और कम्युनिस्टों जैसे वैचारिक कट्टर प्रतिद्वंद्वियों के साथ हाथ मिलाकर 7 राज्यों में संयुक्त विधायक दल (एस.वी.डी.) की सरकार बनाने या अपने वैचारिक शुद्धतावाद को जारी रखने और बाहर बैठने की दुविधा का सामना करना पड़ा।
पार्टी के नवनिर्वाचित अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय, जो मूल रूप से आर.एस.एस. के नेता थे, ने गठबंधन की राजनीति के महत्व को समझा और एस.वी.डी. गठबंधन में शामिल होने का फैसला किया, एक ऐसा निर्णय जिससे उन्हें आलोचना का सामना करना पड़ा। अपनी आत्मकथा में, वरिष्ठ नेता अडवानी, जो उपाध्याय के लंबे समय से सहयोगी रहे, दिसम्बर 1967 में कालीकट पार्टी सम्मेलन में इस मुद्दे पर हुई एक जीवंत चर्चा को याद करते हैं। पंजाब में बसे तमिल विश्वनाथन ने उपाध्याय के फैसले की आलोचना करते हुए एक शक्तिशाली भाषण दिया। उन्होंने कहा कि जनसंघ को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि कम्युनिस्टों के साथ मिलकर हम उन्हें बदल पाएंगे। उन्होंने अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए एक ज्वलंत रूपक का उपयोग किया ‘खरबूजा चाकू पर गिरे, या चाकू खरबूजे पर; कटेगा तो खरबूजा ही।’
उपाध्याय को कार्यकत्र्ताओं को एस.वी.डी. प्रयोग की प्रभावशीलता के बारे में समझाने के लिए बुद्धि और व्यावहारिक राजनीति के संयोजन का उपयोग करना पड़ा। यह एक विडंबना है कि सामाजिक क्षेत्र में अस्पृश्यता को बुराई माना जाता है, लेकिन राजनीतिक क्षेत्र में इसे कभी-कभी एक गुण के रूप में सराहा जाता है। हम, जनसंघ में, निश्चित रूप से कम्युनिस्टों की रणनीति और राजनीतिक संस्कृति से सहमत नहीं हैं। लेकिन यह उनके प्रति अस्पृश्यता के रवैये को उचित नहीं ठहराता है। 1977 में एस.वी.डी. प्रयोग के बाद जनता पार्टी का प्रयोग हुआ। भाजपा के जन्म के बाद, गठबंधन की राजनीति 1989, 1996, 1998 और 1999 में सफलतापूर्वक आगे बढ़ी। संक्षेप में, दीनदयाल उपाध्याय से लेकर नरेंद्र मोदी तक और एस.वी.डी. से लेकर महायुति तक यही लचीलापन और व्यावहारिकता है जिसने पार्टी को आगे बढ़ाया और जीता, न कि ई.वी.एम. में हेरफेर जैसा कि कुछ लोग शिकायत करना चाहते हैं।(लेखक इंडिया फाऊंडेशन के अध्यक्ष हैं और भाजपा से जुड़े हैं। विचार निजी हैं) साभार एक्सप्रैस न्यूज-राम माधव