ब्रिटेन में लीड्स क्यों सुलग उठा

punjabkesari.in Thursday, Jul 25, 2024 - 05:34 AM (IST)

बीते दिनों ब्रिटेन के लीड्स स्थित हेयरहिल्स उपनगर में जो कुछ हुआ, वह क्यों हुआ और उससे हम क्या सबक सीख सकते हैं? इसके 2 पहलू हैं, जिस पर विस्तृत चर्चा करने से पहले यह जानना जरूरी है कि 18 जुलाई को हेयर हिल्स क्यों सुलग उठा? इस क्षेत्र की लक्सर स्ट्रीट में ‘बाल कल्याण संस्था’ के कर्मचारियों द्वारा बच्चों को उनके परिवार से अलग करने और जबरन ‘चाइल्ड केयर होम’ में रखने के बाद उपद्रव शुरू हुआ था। परिवार के 4 बच्चों में से एक की पिटाई का वीडियो किसी पड़ोसी ने शहर की बाल कल्याण एजैंसी को भेज दिया था। पूरा मामला हेयर हिल्स के खानाबदोश रोमा (जिप्सी) समुदाय से जुड़ा था, जिनके लोगों ने पहले झगड़ा शुरू किया। परंतु बाद में पुलिस पर अपना गुस्सा निकालने के लिए पाकिस्तानी-बंगलादेशी मूल के मुसलमान भी इसमें कूद पड़े और देखते ही देखते क्षेत्र में अराजकता फैल गई। दंगाइयों ने जगह-जगह आगजनी करते हुए डबल-डैकर बस को फूंक दिया, निजी-सार्वजनिक संपत्ति पर पत्थर बरसाए और पुलिस अधिकारियों पर हमला बोलकर उनके वाहनों को पलट दिया। 

इस संबंध में सोशल मीडिया पर कई वीडियो वायरल हैं। हेयरहिल्स की आबादी करीब 31 हजार है, जिसमें 42 प्रतिशत हिस्सेदारी मुसलमानों की है, तो ईसाई जनसंख्या 37 प्रतिशत है। दरअसल, लीड्स दंगा अपने भीतर 2 समस्याओं को समेटे हुए है। इसमें पहला संकट पश्चिमी और पूर्वी दुनिया के बीच सांस्कृतिक भिन्नता से जुड़ा है। किसी भी देश के नियम-कानूनों में उसकी संस्कृति की झलक दिखती है। अमरीका और यूरोपीय देश पूर्वाग्रह-गफलत के शिकार हैं कि उनकी संस्कृति-परंपरा, जीवनशैली और तौर-तरीके ही बाकी दुनिया के लिए आदर्श हैं। जबकि सच्चाई क्या है, यह अमरीका में 13 करोड़ वयस्कों के अकेलेपन का शिकार होने, अभिभावक-बच्चे एक-दूसरे के साथ रहना पसंद नहीं करने, अधिक तलाक दर होने और अमरीकी सरकार द्वारा अपने कुल बजट का 40 प्रतिशत से अधिक हिस्सा बुजुर्ग नागरिकों की देखभाल पर खर्च करने की मजबूरी से स्पष्ट है। इसकी तुलना में भारतीय उपमहाद्वीप में पारिवारिक-सामाजिक मूल्य अब भी बहुत मजबूत है, जिसे तोडऩे के कुटिल प्रयास दशकों से किए जा रहे हैं। 

ब्रिटेन के साथ जर्मनी, नॉर्वे सहित कई पश्चिमी देशों में बच्चों के पालन-पोषण को लेकर सख्त नियम हैं। बाल-कल्याण से जुड़ी संस्थाएं ऐसे परिवारों की तलाश में रहती हैं, जिनके बच्चों को लेकर ‘चाइल्ड प्रोटैक्शन’ से जुड़े नियमों के तहत कार्रवाई हो सके। इनमें अभिभावकों द्वारा बच्चे को थप्पड़ मारना या उनके सामने हिंसा करना ही नहीं, बल्कि उन्हें डांटना, हाथ से खाना खिलाना और यहां तक कि उन्हें अपने साथ एक ही बिस्तर पर सुलाना तक भी अपराध की श्रेणी में आता है। 

इस प्रक्रिया में सुरक्षा का हवाला देकर ‘वैल्फेयर कोर्ट’ बच्चे को उसके मां-बाप से अलग करके स्थानीय परिवारों को सौंप देते हैं, जिन्हें  ‘फोस्टर पैरेंट्स’ कहा जाता है और कुछ देशों में इन्हें दूसरों के बच्चे संभालने के बदले मोटी रकम दी जाती है।
प्रवासी भारतीयों से जुड़े ऐसे ढेरों उदाहरणों में से एक चर्चित मामला जर्मनी से भी सामने आया था। इसमें 23 सितंबर 2021 को 7 महीने की अरिहा शाह को उसके माता-पिता से तब अलग कर दिया गया था, जब वे अपनी बेटी को ‘आकस्मिक चोट’ का उपचार कराने अस्पताल ले गए थे। तब चिकित्सक ने ‘चाइल्ड केयर सर्विस’ को फोन करके बुलाया और बच्ची को उन्हें सौंप दिया। अरिहा अब 3 वर्ष से अधिक की हो गई है और अब भी जर्मनी के युवा कल्याण कार्यालय (जुगेंडमट) के संरक्षण में है। उसकी वापसी हेतु अरिहा का परिवार भारत सरकार के समर्थन से न्यायिक और कूटनीतिक मार्ग अपना रहा है। इस पृष्ठभूमि में हेयरहिल्स में बाल कल्याण एजैंसी के खिलाफ खानाबदोश रोमा समुदाय और उनके समर्थन में पाकिस्तानी-बंगलादेशी मुस्लिमों द्वारा मचाया उत्पात क्या दर्शाता है? अक्सर, मुस्लिम समाज का एक वर्ग, विशेषकर उस देश में जहां वे अल्पसंख्यक होते हैं, किसी भी मामले में असहमति या विरोध जताने के लिए हिंसा का सहारा लेता है। 

लीड्स घटनाक्रम से 2 साल पहले ब्रिटेन के लेस्टर-बॄमघम में भी हिंदुओं को चिन्हित करके उनके घरों-मंदिरों पर योजनाबद्ध हमला हुआ था। स्वीडन, फ्रांस, जर्मनी आदि यूरोपीय देश भी हालिया वर्षों में इसी प्रकार के मजहबी दंगों का शिकार हो चुके हैं। यह दिलचस्प है कि जो राष्ट्र घोषित रूप से इस्लामी है या शरीया द्वारा संचालित है, वहां भी मुसलमानों का अपने सह-बंधुओं के साथ मजहब के नाम पर ङ्क्षहसक टकराव है। यूरोप में अधिकांश मुसलमान प्रवासी मूल के हैं, जिनका संबंध उन्हीं गृहयुद्ध से जूझते या युद्धग्रस्त मध्यपूर्वी इस्लामी देशों से है। इस संकट की बड़ी वजह एकेश्वरवादी मुस्लिम समाज में प्रचलित मध्ययुगीन अवधारणा (काफिर-कुफ्र-शिर्क सहित) और सर्वमान्य जीवनमूल्यों (सह-अस्तित्व सहित) के बीच टकराव है। किसी भी सभ्य समाज में असहमति का स्थान होता है, ङ्क्षहसा का नहीं। इसलिए तमाम पूजा-पद्धतियों को चाहिए कि वे अपनी सड़ी-गली अवधारणाओं को परिमार्जित करके उसे शाश्वत सह-अस्तित्व की भावना से युक्त बनाए।-बलबीर पुंज 
 


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