बदलाव चाहने वालों की हार क्यों हुई

punjabkesari.in Sunday, Mar 13, 2022 - 05:35 AM (IST)

किसी समय लोगों पर शासन करना एक दैवीय अधिकार था। अब इस धारणा को विश्व में अधिकांश देशों ने खारिज कर दिया है। राजवंश की जगह सरकार की अन्य प्रणालियों ने ले ली है। लोकतंत्र ऐसी ही एक प्रणाली है। यह एक मानवीय खोज है जो नागरिकों को मतदान के माध्यम से अपने शासकों को बदलने की शक्ति देती है। विंस्टन चर्चिल ने एक बार कहा था कि लोकतंत्र अन्य सभी के अतिरिक्त सरकार की निकृष्टतम किस्म है। भारत ने इसकी सभी खामियों के बावजूद लोकतंत्र को चुना। विभिन्न लोकतांत्रिक प्रणालियों के बीच हमने कई बार इसके अजीब परिणामों के बावजूद ‘जो ज्यादा मत पाया वह जीता’ प्रणाली अपनाई। 

पंजाब, यू.पी. तथा गोवा 
हमने अभी हाल ही में 5 राज्यों में चुनावों के परिणाम देखे जो उतने ही भिन्न हैं जैसे कि हाथ की पांच उंगलियां हैं। मैंने 5 में से 3 राज्यों के चुनावों पर नजर रखी और इसलिए मैं उन राज्यों तक अपनी धारणा को सीमित रखूंगा। चुनाव यू.पी., 403 विधायकों की विधानसभा के साथ सर्वाधिक जनसंख्या वाला राज्य, पंजाब, एक मध्यम आकार (117) लेकिन उथल-पुथल भरा सीमांत राज्य तथा गोवा, मात्र 40 विधायकों के साथ सबसे छोटा राज्य, में आयोजित हुए। इन 3 राज्यों के चुनावी नैरेटिव में एक सांझा सूत्र ‘बदलाव बनाम निरंतरता’ था। काफी हद तक भाजपा निरंतरता, कांग्रेस (और पंजाब में आप) बदलाव की नायक थीं। 

परिणाम : पंजाब के सिवाय निरंतरता ने बदलाव पर विजय हासिल की। अविवादित विजेता थी भाजपा। गोवा में बदलाव के लिए इच्छा थी। मतगणना से 2 दिन पूर्व, जब मैं फ्लाइट में अपनी सीट पर बैठा एक महिला मेरे से अगली सीट पर बैठी और बड़ी ऊंची आवाज में बोली, ‘सिर्फ जीतो, सिर्फ जीतो।’ जब मतगणना हो रही थी तो गोवा में एक बड़ी लहर चल रही थी जो कह रही थी बदलाव, यह स्पष्ट हो गया कि 66 प्रतिशत मतदाताओं ने वास्तव में बदलाव के लिए वोट दिया, लेकिन परिणाम निरंतरता रहा। 

बदलाव लेकिन कोई बदलाव नहीं
गोवा के सभी 40 निर्वाचन क्षेत्रों में परिणाम की घोषणा होने के 1 घंटे के भीतर सामान्य नागरिक तथा बीचवियर पहने हॉलीडेमेकर्स मिरामार  पर घूम रहे थे तथा लोगों के दल चर्च ऑफ मैरी इमैकुलेट कंसैप्शन की सीढिय़ों पर अपने चित्र ले रहे थे। ऐसा दिखाई दे रहा था जैसे बदलाव की लहर गायब हो गई है तथा सब हैरान हो रहे थे कि चुनाव को लेकर कैसा हल्ला-गुल्ला है। एकमात्र व्यग्र समूह उम्मीदवारों (जिनमें से 8 कांग्रेस के थे, जिन्हें जीतने की आशा थी) का था, जिन्होंने बदलाव के लिए प्रचार किया था और 169 से 1647 वोटों के छोटे से अंदर से पराजित हो गए थे। 8 में से 6 भाजपा उम्मीदवारों से हारे और बाजी पलट गई। 

3 राज्यों के चुनावों में कांग्रेस ने अपना सबकुछ झोंक दिया था। पंजाब में इसने अपना मुख्यमंत्री बदल दिया। बड़ा कदम उठाते हुए एक दलित को कुर्सी पर बिठाकर सत्ता के ढांचे को चुनौती दी तथा बदलाव के साथ निरंतरता की आशा की। आम आदमी पार्टी (आप) पूर्ण बदलाव के तर्क के साथ प्रमुख चुनौतीकत्र्ता थी। ‘आप’ ने भाजपा सहित सभी अन्य पाॢटयों को धूल चटा दी तथा 117 में से 92 सीटें जीत लीं। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने 400 निर्वाचन क्षेत्रों में अपना झंडा गाड़ा था (कई वर्षों में पहली बार), 40 प्रतिशत निर्वाचन क्षेत्रों में महिलाओं को उतारा था (किसी भी चुनाव में किसी भी पार्टी द्वारा पहली बार) तथा एक ऐसा नारा उछाला जो वायरल हो गया और हजारों महिलाओं को आकर्षित किया जिनमें से अधिकांश युवा थीं - ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं।’ 

इसने 2 सीटें तथा वोटों का 2.68 प्रतिशत हासिल किया। गोवा में कांग्रेस ने दलबदलुओं को वापस लेने अथवा टिकटें देने से इंकार कर दिया। युवा, शिक्षित, स्वच्छ छवि  वाले उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, एक व्यापक घोषणा पत्र पेश किया जो सभी मुद्दों का समाधान करता था, पूरे जोश से प्रचार किया तथा सोशल मीडिया में शीर्ष पर रही। जो एकमात्र चीज इसने नहीं की वह यह कि मतदाताओं को धन नहीं दिया। 2 के अलावा सभी युवा, शिक्षित, स्वच्छ छवि वाले उम्मीदवार हार गए। कथित रूप से बाहर जाने वाली सरकार के सर्वाधिक भ्रष्ट मंत्री तथा कम से कम 8 ज्ञात दलबदलू पुन: चुन लिए गए। 2 नए प्रवेशकों  ‘आप’ तथा टी.एम.सी. ने क्रमश: 6.77 तथा 5.21 प्रतिशत वोट और 2 व 0 सीटें प्राप्त कीं। 

कथानक हार गए 
परिणाम पढ़ते हुए मुझे ऐसा दिखाई दिया जैसे बदलाव नहीं लाने वालों के लिए यह आसान था, उन्हें एक बटन दबाना था और उन्होंने यह उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मणिपुर तथा गोवा में एक ही सोच के साथ किया। बदलाव के समर्थक विकल्पों के बीच बंटे हुए थे और उन्होंने विभिन्न बटन दबाए। मुझे यह भी लगा कि लोग ड्रग की तस्करी, ईशनिंदा तथा नौकरियों बारे अपने वायदे पूरे न करने वालों (जैसे पंजाब में) के खिलाफ हैं, वे लोग गरीबी झेलने को मजबूर हैं, नौकरियों की खोज में अपने बच्चों को राज्य से बाहर जाते (प्रत्येक 16 में से 1 व्यक्ति राज्य से प्रवास कर गया है), तथा शिक्षा तथा स्वास्थ्य सुविधाओं की दयनीय हालत (जैसा कि यू.पी. में) देखने के लिए मजबूर हैं तथा जो लोग शिक्षा, रोजगार, अर्थव्यवस्था, पर्यावरण तथा राज्य की प्रकृति को लेकर वास्तव में चिंतित थे ने सोचा कि उन्होंने बदलाव के लिए वोट दिया है लेकिन अब यह पता चलने पर खौफ में हैं कि उनके सामने वही सरकार है तथा बिल्कुल भी बदलाव नहीं (जैसे गोवा में)। 

मेरा मानना है कि सभी 5 राज्यों में केन्द्रीय हिन्दुत्व वोट का आधार बढऩे के बावजूद अधिकांश मतदाताओं में सरकार में बदलाव की इच्छा थी। अधिकांश ने संभवत: बदलाव के लिए वोट दी थी लेकिन उन्होंने अपना वोट एक मन से अथवा एक पार्टी को नहीं दिया, सिवाय पंजाब में। निश्चित तौर पर गोवा में बदलाव के समर्थकों ने अपने वोटों को 3-4 पाॢटयों में विभाजित कर दिया तथा अपना कथानक हार गए। मुझे आशा है कि यह लेख लोकतंत्र के बारे में विलाप की तरह नहीं पढ़ा जाएगा।-पी. चिदम्बरम 


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