अफगानिस्तान को क्यों पराजित नहीं कर सकता पाकिस्तान?
punjabkesari.in Thursday, Oct 16, 2025 - 04:15 AM (IST)
बीते दिनों भारतीय उप-महाद्वीप में बेहद दिलचस्प घटनाक्रम सामने आया। जब तालिबान शासित अफगानिस्तान के विदेश मंत्री मौलवी आमिर खान मुत्ताकी भारत के महत्वपूर्ण दौरे पर रहे, तब पाकिस्तान-अफगानिस्तान की डूरंड सीमा पर तालिबानी लड़ाके और पाकिस्तानी फौज एक-दूसरे पर गोला-बारूद बरसा रहे थे। यह तनाव 11 अक्तूबर की रात तब बढ़ गया, जब पाकिस्तानी हवाई हमले के जवाब में अफगान बलों ने सीमा पार करके कई सैन्य चौकियां कब्जा लीं।
दोनों ओर कई सुरक्षाकर्मी मारे गए हैं। यह सुनने में कितना अजीबो-गरीब है कि वैश्विक आतंकवाद का घोषित गढ़ पाकिस्तान, इस्लाम के अतिवादी स्वरूप तालिबान पर आरोप लगा रहा है कि वह आतंकियों को पनाह देता है जो सीमा पार करके उस पर हमले करते हैं। क्या यह सच नहीं कि भारत दशकों से पाकिस्तान की ओर से इसी तरह के संकट से दो-चार है? आखिर पाकिस्तान-अफगानिस्तान के बीच तनाव की असली वजह क्या है? क्यों भारत तालिबान से नजदीकी बढ़ा रहा है?
सामान्यत: एक इस्लामी देश होने और उसमें भी सुन्नी संप्रदाय की प्रधानता के कारण पाकिस्तान-अफगानिस्तान के बीच सौहार्दपूर्ण भाईचारे और अच्छे पड़ोसी जैसे संबंध होना स्वाभाविक थे। जब अगस्त 2021 में अमरीका ने दो दशक के कब्जे पश्चात एक समझौते के तहत अफगानिस्तान की सत्ता तालिबान को फिर से सौंपी, तब पाकिस्तान को लगा कि यह उसकी भारत-विरोधी रणनीति को धार देगा। लेकिन यह हसीन ख्वाब ज्यादा लंबा नहीं चला। अफगानिस्तान वर्ष 1893 में ब्रिटिश हुकूमत के दौरान खींची गई डू्रंड रेखा को आज भी मान्यता नहीं देता है जो इन दोनों देशों के बीच आपसी विवाद का एक बड़ा कारण भी है। परंतु वर्तमान टकराव की वजह मुत्ताकी का हालिया भारत दौरा और संयुक्त वक्तव्य है।
दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय वार्ता के बाद भारत-अफगानिस्तान ने 10 अक्तूबर को सांझा बयान जारी किया था। इसमें जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न और संप्रभु हिस्सा बताते हुए 22 अप्रैल को पहलगाम में हुए पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवादी हमले की निंदा की गई थी। इस दौरान मुत्ताकी ने भारत को यकीन दिलाया कि अफगानिस्तान ‘आतंकवाद का सख्त विरोधी’ है और वह किसी को भी अफगान धरती का इस्तेमाल आतंकवाद फैलाने के लिए नहीं करने देगा। वहीं भारत ने काबुल में भारतीय दूतावास खोलने का ऐलान किया है। दोनों पक्षों ने एक-दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता के प्रति सम्मान पर भी जोर दिया। यह सब पाकिस्तान को चुभना स्वाभाविक ही था और संभवत: इसी कारण उसने बौखलाकर अफगानिस्तान पर हवाई हमला कर दिया। वास्तव में,संकट पाकिस्तान के डी.एन.ए. में छिपा है। अपने पिछले लेखों में मैंने स्पष्ट किया था कि पाकिस्तान न तो सचमुच कोई इस्लामी देश है और न ही उसका भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों से कोई सरोकार है। पश्चिमी शक्तियों ने उसे अपनी राजनीतिक जरूरतों को पूरा करने के लिए बनाया था और वह आज भी उसी भूमिका में है। उनके लिए इस्लाम सिर्फ एक बहाना है और मुस्लिम महज औजार।
मुसलमान आमतौर पर फिलिस्तीन-ईरान से सहानुभूति रखते हैं। लेकिन बीते दिनों पाकिस्तान प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से उनके खिलाफ इसराईल-अमरीका का सहयोग करता रहा। पाकिस्तान द्वारा इसराईल स्वीकृत ‘गाजा योजना’ का समर्थन इसका एक और हालिया प्रमाण है। अब इसके खिलाफ पाकिस्तान में ‘तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान’ जैसे जिहादी संगठन हिंसक प्रदर्शन पर उतर आए हैं। आखिर भारत ने तालिबान से दोस्ती का हाथ क्यों बढ़ाया? यह अकाट्य सत्य है कि भारत दुनिया के सबसे तनावग्रस्त और अस्थिर क्षेत्र में स्थित है, जहां वह ऐसे पड़ोसियों (पाकिस्तान, चीन और बंगलादेश) से घिरा है जो मजहबी और साम्राज्यवादी कारणों से भारत को मिटाना, बर्बाद और कमजोर करना चाहते हैं। ऐसा भी नहीं है कि भारत ने अफगानिस्तान से अभी संबंध सुधारने की पहल की हो। वर्ष 2020-2021 के दौरान भारत ने अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण और विकास कार्यों पर लगभग 3 अरब डालर का निवेश किया था, जिसमें सड़क, बिजली, पानी, बांध के साथ अफगान संसद भवन के निर्माण सहित 400 परियोजनाएं शामिल हैं।
इस पृष्ठभूमि में एक प्रसिद्ध मुहावरा है-‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है’। सफल ‘आप्रेशन सिंदूर’ के बाद बदलते वैश्विक परिप्रेक्ष्य, जिसमें पाकिस्तान से डोनाल्ड ट्रम्प के नेतृत्व में अमरीका निकटता बढ़ा रहा है, उस स्थिति में भारत अपनी क्षेत्रीय अखंडता और सुरक्षा हेतु राष्ट्रहित में सामरिक रणनीति-कूटनीति में संतुलित और आवश्यक परिवर्तन कर रहा है। इसके साथ भारत-ईरानी चाबहार बंदरगाह का विकास करने के साथ अफगानिस्तान के जरिए भी मध्य-एशिया तक सीधी पहुंच भी बनाना चाहता है। यह दिलचस्प है कि दिसंबर 1999 के कंधार अपह्रत विमान प्रकरण में भारत के वर्तमान राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल उस समय मुख्य वार्ताकारों में से एक थे और तब मुत्ताकी तालिबान प्रशासनिक मामलों को देखते थे। 26 साल बाद वही दोनों व्यक्ति एक बार फिर असामान्य भू-राजनीतिक घटनाक्रम के केंद्र में हैं।
क्या पाकिस्तान वाकई अफगानिस्तान को झुकाने की ताकत रखता है? ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरित मजहबी चिंतन से अलग अगर पिछले 5 दशकों का इतिहास देखें तो कोई भी शक्तिशाली देश अफगानिस्तान को स्वाभिमान की लड़ाई में निर्णायक रूप से हरा नहीं पाया है। शीतयुद्ध के दौर में अफगानिस्तान पर सोवियत संघ ने 1979 में कब्जा कर लिया था। तब अमरीका ने पाकिस्तान और सऊदी अरब की मदद से अफगान विद्रोहियों का मुजाहिद्दीनों का समूह तैयार किया।
वर्तमान समय में अमरीका और चीन, दोनों अपने ‘दुमछल्ले’ पाकिस्तान की मदद से अफगानिस्तान के विशाल और अनछुए खनिजों तक पहुंचना चाहते हैं। इसलिए पाकिस्तान अपने आकाओं के लिए अफगानिस्तान को कठपुतली बनाना चाहता है। अब जिस अफगानिस्तान को सोवियत रूस और अमरीका नहीं दबा सके, क्या उसे पाकिस्तान झुका सकता है? कभी नहीं।-बलबीर पुंज
