जब ‘बाड़’ ही खेत खाए, तब क्यों न ढूंढें उपाय
punjabkesari.in Wednesday, Oct 09, 2024 - 05:40 AM (IST)
ग्रामीण क्षेत्र में बसे उस परिवार का सुंदर सपना था कि नन्ही बिटिया पढ़-लिखकर आत्मनिर्भर बने। इसी कल्पना को पंख देने के विचार से पैदल ही निकल पड़ी मां अपनी बेटी को स्कूल छोडऩे। मार्ग में प्राचार्य की कार दिखी तो सोचा, क्यों न आग्रह करके देख लिया जाए, बच्ची अविलंब पाठशाला पहुंच जाएगी, वह भी सुरक्षित और बिना किसी थकान के। एक शिक्षक के प्रति मन में भरोसा इतना गहरा था कि नजर 58 वर्षीय प्रिंसिपल के भीतर छिपे उस दानव को देख ही न पाई, जो कथित तौर पर, आते पलों में 6 वर्षीय मासूम की अस्मत पर वार करके, उसका गला घोंटने वाला था। ठीक ऐसा ही भरोसा ले डूबा दूसरी कक्षा के 11 वर्षीय छात्र को, जो शैक्षिक अधिकारियों के नापाक इरादों से बिल्कुल बेखबर छात्रावास में रात्रिकालीन नींद का भरपूर आनंद उठा रहा था।
स्वर्णिम भविष्य बनाने के इरादे से कम उम्र में ही उसे छात्रावास भेजने का हौसला पालने वाले अभिभावक भी भला कहां जानते होंगे कि अंधविश्वासों का शमन कर, वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विस्तार का दावा करने वाली शैक्षिक संस्था एक दिन ‘पारिवारिक संकट’ दूर करने व निजी संस्थान को अधिक ‘समृद्घ’ बनाने के नाम पर उनके लख्ते-जिगर की ही बलि ले लेगी और इस लोमहर्षक कांड को अंजाम देने में कथित मिलीभगत रहेगी विद्यालय के प्रधानाचार्य, दो शिक्षकों एवं होस्टल संचालक की। क्रमश: गुजरात के दाहोद व उत्तर प्रदेश के हाथरस में घटित ये 2 घटनाएं ज्वलंत उदाहरण हैं अजगर की भांति हमारे समाज को डंसती मूल्यविहीनता के, जिसमें महिलाओं से लेकर मासूम बच्चों तक को नहीं बख्शा जाता। चिंता और अधिक बढ़ जाती है, जब अपराधी उन शैक्षणिक संस्थानों में पदासीन हों, जिनके जिम्मे देश के भविष्य निर्माण का कार्यभार सौंपा गया है। ‘गुरुत्व’ का सही अधिकारी बनने हेतु डिग्रियों से कहीं अधिक महत्व रखता है शिक्षक का संस्कारी, संयमी व सदाचारी होना। साथ ही वैचारिक स्तर पर उसका दृष्टिकोण व्यापक होना भी अनिवार्य है।
बदलते परिप्रेक्ष्य में प्राचीन गुरुकुल परम्परा का स्थान कुकुरमुत्तों की भांति उगते शैक्षणिक संस्थान ले चुके हैं। इनमें अधिकतर का ध्यान नैतिक ज्ञान प्रसार करने की बजाय व्यवसायीकरण पर अधिक रहता है। नि:संदेह, शिक्षा व्यवस्था में आज भी ऐसे आदर्श शिक्षक विद्यमान हैं जो अपने सद्कार्यों से समाज के लिए प्रेरणास्रोत बनते हैं किंतु चिंता उन नकाबपोशों को लेकर है, जो अपने दोहरे रवैये से समाज को भ्रमित करते हुए न जाने कितने मासूमों को अपनी पाशविकता का शिकार बना डालते हैं। बच्चों के खिलाफ अनवरत बढ़ते अपराध एक गंभीर मुद्दा बन चुके हैं, जिसकी पुष्टि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े भी करते हैं। एन.सी.आर.बी. के अनुसार, 2022 में देश में हर घंटे बच्चों के विरुद्घ औसतन 18 अपराध हुए, जोकि एक भयावह स्थिति की ओर संकेत करते हैं। स्थिति इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि 2022 की तुलना में 2023 में कुल अपराधों की संख्या में कमी आने के बावजूद, बच्चों के विरुद्घ अपराधों में 9 फीसदी वृद्धि देखी गई।
बाल अधिकार पर काम करने वाली संस्था ‘चाइल्ड राइट्स एंड यू’ (क्राई) एन.सी.आर.बी. के आंकड़ों के विश्लेषणात्मक आधार पर 2021 से 2022 के बीच बाल दुष्कर्म के मामलों में 6.9 प्रतिशत की बढ़ौतरी होने का खुलासा करती है। बाल दुष्कर्म से जुड़े मामले 2016 की तुलना में 2022 के दौरान 96 प्रतिशत बढ़ गए। इस आधार पर आंकें तो देश में 6 वर्ष के दौरान बाल शोषण के मामले दोगुने हो गए। रिपोर्ट में 2016 के मध्य बाल दुष्कर्म के 19,764 केस दर्ज होने की बात सामने आई, 2022 में यह संख्या बढ़कर 38,911 हो गई अर्थात 2016 की तुलना में ये 96 प्रतिशत अधिक रहे।
सगे-संबंधियों अथवा जान-पहचान वालों के अलावा तथाकथित शिक्षकों अथवा शिक्षा व्यवस्था से जुड़े व्यक्ति यों की भी ऐसे मामलों में किसी न किसी रूप में आंशिक संलिप्तता होने से इंकार नहीं किया जा सकता। देश के विभिन्न प्रांतों से विद्यालय/ महाविद्यालय परिसर के गलियारों से अक्सर संज्ञान में आने वाले छेड़छाड़/ शोषण/ दुष्कर्म के समाचार इसकी पुष्टि करते हैं। अपनी कलुषित मानसिकता को लेकर देश के भविष्य से खिलवाड़ करने वाले ऐसे व्यक्ति यों के चेहरे समय रहते बेनकाब होना नितांत आवश्यक है और उतना ही अनिवार्य है उनके विरुद्घ कड़ी कानूनी कार्रवाई हर हाल में सुनिश्चित होना। उपरोक्त प्रकरण हों अथवा हरियाणा एवं बदलापुर छात्रा शोषण प्रसंग या फिर कोलकाता आर.जी. कर दुष्कर्म/ हत्याकांड, इन्हें हल्के में लेना अथवा राजनीतिक पराश्रय देने का अर्थ है, समूचे समाज की अस्मिता व जीवन दाव पर लगाना। माननीय अदालतें भी इसके प्रति चिंता जाहिर कर चुकी हैं। बाड़ जब खुद ही खेत को खाने लगे तो उसकी इस धृष्टता पर तत्काल अंकुश लगाना अनिवार्य हो जाता है। धीमी ही सही, वर्ष 1947 की 12 प्रतिशत से वर्तमान में 74.04 प्रतिशत तक पहुंच बना चुकी साक्षरता दर में अक्सर हमारे राजनेता श्रेय लेने की होड़ में रहते हैं, जबकि वास्तविक विषय आत्मश्लाघा करने का न होकर यह विचारने का है कि इस बढ़ौतरी में कितने फीसदी लोग वाकई ‘शिक्षित’ हैं?-दीपिका अरोड़ा