क्या अर्थ निकाला जाए मोहन भागवत के बयान का

punjabkesari.in Thursday, Feb 15, 2018 - 02:39 AM (IST)

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर.एस.एस.) प्रमुख मोहन भागवत समय-समय पर ऐसे बयान देते रहते हैं जिनसे विवाद पैदा होते हैं और संघ के वास्तविक इरादों और इसकी स्वयं तय की हुई भूमिका के बारे में आशंकाएं पैदा होती हैं। उनके बयान इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि भारतीय जनता पार्टी नीत वर्तमान सरकारी तंत्र पर उसकी मजबूत पकड़ है। 

भागवत के इस ताजातरीन बयान ने बहुत अधिक आशंकाएं पैदा की हैं : ‘‘सेना को युद्ध के लिए तैयारी करने के लिए 5-6 महीने लगते हैं लेकिन आर.एस.एस. यही काम केवल 3 दिन में कर सकता है। ऐसी है हमारी क्षमता। यदि देश पर कोई भीड़ बनती है और संविधान अनुमति देता है तो स्वयंसेवक युद्ध के मोर्चे पर जाने को भी तैयार-बर-तैयार हैं।’’ इस बयान पर काफी हो-हल्ला मचा है और राजनीतिक के साथ-साथ सामाजिक नेताओं तथा मीडिया हस्तियों ने भी इस बयान की चीर-फाड़ के प्रयास किए हैं और यह जांच-पड़ताल की है कि ऐसा कहने से भागवत का तात्पर्य क्या है? 

जहां तक आर.एस.एस. का सवाल है, इसके एक प्रवक्ता ने यह कहकर स्पष्टीकरण देने का प्रयास किया है कि भागवत के भाषण को गलत ढंग से प्रयुक्त किया जा रहा है। प्रवक्ता ने कहा कि भागवत ने आम समाज तथा स्वयंसेवकों के बीच तुलना की थी न कि स्वयंसेवकों तथा सैनिकों में। एक बयान में आर.एस.एस. के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने कहा : ‘‘भागवत जी ने कहा है कि यदि देश की परिस्थितियां मांग करती हों और संविधान अनुमति देता हो तो सेना जिस काम के लिए समाज को तैयार करने में 6 माह लगाएगी, वही काम आर.एस.एस. के स्वयंसेवक केवल 3 दिन में अंजाम दे सकते हैं, क्योंकि स्वयंसेवक नियमित रूप में अनुशासन का अभ्यास करते हैं। यह बयान किसी भी तरह संघ के स्वयंसेवकों और भारतीय सेना में तुलना नहीं है बल्कि आम समाज और स्वयंसेवकों की तुलना है। दोनों को ही भारतीय सेना ने प्रशिक्षित करना होता है।’’ 

लेकिन स्थिति को स्पष्ट करने की बजाय वैद्य के बयान ने संघ की मानसिकता और इरादों के बारे में और भी कई सवाल खड़े कर दिए हैं। सबसे महत्वपूर्ण सवाल इस प्रकार है : संघ सशस्त्र प्रशिक्षण क्यों देता है तथा ‘यदि संविधान अनुमति दे’ की तह में छिपा हुआ संदेश क्या है? भागवत के बयान से जो स्पष्ट अटकल लगाई जा सकती है वह यह है कि यह बात सत्य है कि संघ जरूरत पडऩे पर किसी भी संघर्ष अथवा लड़ाई में हिस्सा लेने के लिए सशस्त्र प्रशिक्षण दे रहा है। ऐसी रिपोर्टें प्रकाशित हुई थीं कि संघ समर्थकों के एक वर्ग को आग्नेय हथियारों का प्रशिक्षण दिया गया है और संघ की ओर झुकाव रखने वाला एक सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी कई वर्ष पूर्व ऐसी सिखलाई देने वाले कुछ शिविरों से संबद्ध रहा था। 

सवाल पैदा होता है कि जब देश के पास सेना सहित सुरक्षा बल मौजूद हैं जिन्हें जरूरत पडऩे पर प्रयुक्त किया जा सकता है तो संघ को अपनी प्राइवेट सेना की जरूरत क्यों है? पूर्व पूर्वी पाकिस्तान (आज का बंगलादेश) में मुक्ति वाहिनी या बिहार की रणवीर सेना अथवा नक्सलवादियों की मिलिशिया की तर्ज पर यदि कोई सैन्य शक्ति किसी विशेष उद्देश्य से सृजित की जाती है तो क्या यह भी इन्हीं सेनाओं की तरह खून-खराबे की ओर नहीं ले जाएगी? यह तो केवल कल्पना ही की जा सकती है कि भागवत के दिमाग में क्या चल रहा था? 

आर.एस.एस. जैसे संगठन की एक बहुप्रशिक्षित, प्रेरित एवं सशस्त्रों से लैस सेना से तुलना करना और यह कहना कि जिस काम को सेना 6 माह में करती है उसे संघ के स्वयंसेवक केवल 3 दिन में कर सकते हैं- न केवल उपहासजनक है बल्कि उन बहादुर सैनिकों को नीचा दिखाने जैसा है जो अपनी सैन्य भूमिका को सफलता सहित अंजाम देने के लिए घंटों पसीना बहाते हैं। यदि भागवत का तात्पर्य यह है कि उनके स्वयंसेवक बहुत अल्पकालिक सूचना मिलते ही राहत और बचाव कार्यों जैसी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए कूद पड़ते हैं तो यह भी कोई कम उपहासजनक नहीं। क्योंकि इस मामले में भी सशस्त्र सेनाओं को बहुत गहन प्रशिक्षण दिया जाता है। 

लेकिन यदि यह भी मान लिया जाए कि भागवत ने केवल संघ के स्वयंसेवकों का हौसला बढ़ाने के लिए बढ़ा-चढ़ा कर बयान दिया है तो भी उनका ‘‘संविधान अनुमति देता है तो’’ का संकेत बहुत खतरनाक नतीजों से भरा हुआ है। यह सर्वविदित है कि मौका मिलते ही भाजपा भारत को एक सैकुलर देश की बजाय ‘‘हिन्दू राष्ट्र’’ बनाने के लिए संविधान का संशोधन करना पसन्द करेगी। भागवत जानते हैं कि इस प्रकार का सपना तब तक साकार नहीं हो सकता जब तक देश की सरकार पर संघ का एकछत्र नियंत्रण स्थापित नहीं हो जाता। 

इस प्रकार भागवत के बयान ने न केवल संघ के अंदर चल रही चिंतन प्रक्रिया बल्कि भाजपा के अंदर चल रहे विमर्श की भी झलक दिखा दी है। ऐसे में यह कोई हैरानी की बात नहीं कि यह पार्टी ‘‘कांग्रेस मुक्त भारत’’ के प्रयास कर रही है और साथ ही इतनी शक्ति अर्जित करने के लिए भी ऐड़ी-चोटी का जोर लगा रही है जिससे वह संविधान का संशोधन करने के योग्य हो सके। अल्पसंख्यक एवं उदारवादी हिन्दुओं में से अधिकतर स्पष्ट तौर पर संघ और इसके प्रमुख की ओर से मिल रहे संकेतों पर ङ्क्षचतित हैं। वे ये आश्वासन चाहते हैं कि कोई मनहूस मंसूबा नहीं पक रहा है और संघ के एजैंडे को लागू करने के लिए जीवन और आजादी जैसे नागरिकों के अधिकारों का हनन नहीं होगा। अभी भी समय है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा प्रमुख अमित शाह  स्थिति को स्पष्ट करें। उनकी चुप्पी दिल दहला देने वाली है।-विपिन पब्बी


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