कभी ‘खुद से मुलाकात’ कर लेने में हर्ज ही क्या

punjabkesari.in Saturday, Jan 04, 2020 - 04:05 AM (IST)

अक्सर जीवन में यही होता है कि कोई भी विषय, समस्या या परेशानी हो, हर कोई उसके पैदा होने के लिए दूसरों को जिम्मेदार मानते हुए अपने को उसका हल या समाधान निकालने के लिए सबसे अधिक ज्ञानी मानता और समझता है। कोई भी विवाद जो चाहे कितने ही वर्ष, महीने, दिन की अवधि पार कर चुका हो, इनके लिए चुटकी बजा कर हल किया जा सकता है, अगर इनके सुझाए तरीके का इस्तेमाल किया जाए। इस बारे में आगे बात करने से पहले इन पंक्तियों का आनंद लीजिए ।  

माना कि यह वर्ष
सुलझनों और उलझनों के बीच बीता
तो नववर्ष में भी
समस्याओं के निदान मिलते रहे
तो हर्ज क्या है ?

माना कि कुछ नए रिश्ते बने, कुछ पुराने बिगड़े
तो फिर इस वर्ष भी
नवीन का स्वागत और पुरातन से बिछोह
हो जाए तो हर्ज क्या है?

संभल कर चलने पर भी
लडख़ड़ाए कई बार और फिर आगे बढ़ गए
तो फिर नववर्ष में भी
गिरते पड़ते उठकर चल पडऩे में हर्ज क्या है?

सपने कुछ पूरे, कुछ अधूरे, कुछ टूट गए होंगे
सपने तो सपने हैं जब चाहे गढ़ लो
नए वर्ष में नए-नए सपने बुनने और
पूरा होने की आस लगाने में हर्ज क्या है

प्यार का इजहार, इकरार, तकरार भी हुई होगी
प्यार का क्या है
कभी भी, किसी से भी और कहीं भी हो जाए
नववर्ष में नया सा प्यार करने में हर्ज क्या है

उम्र कोई भी हो वक्त के साथ स्वभाव बदलती है
चाहत का कोई अंत नहीं
किसी न किसी रूप में हो ही जाती है
नए साल में नई इच्छा करने में हर्ज क्या है

तय है कि भाग्य का लेखा मिट नहीं सकता
तय है कि जीवन का अंत होना ही है।
तो फिर नववर्ष में
कोई नया जोखिम लेने में हर्ज क्या है

जिन्दगी जिंदादिली का नाम है
बचपन, जवानी और उम्रदराज होने का दौर
सभी के हिस्से में आता है
नए साल में नए ढंग से जीने में हर्ज क्या है

नववर्ष नूतन और अभिनन्दन का वर्ष हो
किसी भी हाल में रहें
हाथ फैलाकर गले लगाकर
स्वागत करने में हर्ज ही क्या है। 

स्वयं से बातचीत जब हम अपने से बात करने का सिलसिला शुरू करते हैं तो हमारे दिमाग में जो सबसे पहले आता है वह किसी वस्तु, व्यक्ति अर्थात जड़ और जीवन से जुड़ा कुछ भी हो सकता है जिसके प्रति हम अपनी समस्त इन्द्रियों सहित आकर्षित होते हैं। यह आकर्षण ही है जो सबसे पहले हमारे मन में आता है और उसे हम अलग-अलग तरीके से व्यक्त करने के लिए आतुर हो जाते हैं। यह कविता, कहानी, संगीत, चित्रकारी, नृत्य, गायन, वादन, अभिनय जैसी विधाओं में से कुछ भी हो सकता है। मतलब यह कि अपनी चाहत, लगाव और समर्पण को अपने से बातचीत करने की प्रक्रिया के दौरान मजबूत करते हैं और जब भी कोई मौका मिलता है, अपनी बात कह देते हैं। 

यह हर युग में होता आया है, प्राचीन काल में पत्थरों पर अंकित शिलालेख, ताम्रपत्रों पर लिखे आख्यान, पांडुलिपियों में वर्णित अपने समय के दस्तावेज और वर्तमान युग में आधुनिक संचार और पढऩे, लिखने, देखने, सुनने के विभिन्न साधनों का इस्तेमाल अपनी बात कहने के लिए होता आया है। यह जो नियम-कायदे बनते हैं, कानून बनाए जाते हैं, धार्मिक ग्रंथों का हवाला देकर अपनी बात मनवाने की कोशिश की जाती है, यह सब अपने आप से बातचीत करने के बाद अर्थात जो व्यक्तिगत है, उसे सार्वजनिक रूप से मान्यता दिलाने की कोशिश होती है जिसमें कुछ व्यक्तिवादी,  पुरुष हों या स्त्री, हदें पार कर जाते हैं। इनमें हिटलर जैसे तानाशाह और गांधी जैसे मानवता के रक्षक कोई भी हो सकते हैं। फर्क सिर्फ यह है कि हम अनुसरण करने के लिए किसको चुनते हैं, हिटलर को या गांधी को, यही व्यक्तिगत सोच के सही या गलत होने की कसौटी है। यह जो राजनीतिक या सामाजिक आंदोलन होते हैं, ये सब एक तरह से अपनी सोच जिसे अक्सर हम सिद्धांत का नाम देते हैं, उसी का परिणाम होता है। 

जरूरी नहीं कि हमारी सोच दूसरों से मेल खाए लेकिन हम उस पर अड़े रहते हैं, नतीजा हिंसात्मक विद्रोह तक हो सकता है, जिसे हम अभिव्यक्ति की आजादी से लेकर कोई भी आकर्षक नाम देकर समाज में बिखराव तक पैदा कर देते हैं। अपने से बातचीत का परिणाम जहां एक ओर सुख का कारण बन सकता है, वहां अपनी ही विकृत सोच का नतीजा, जरा सी बात का अफसाना बनाने में भी निकल सकता है। उदाहरण के लिए क्या जरूरत है आज यह कहने की कि भारत का विभाजन धार्मिक आधार पर हुआ और यह किसी दिवंगत नेता की अपनी सोच के कारण हुआ। क्या यह पुराने जख्मों को कुरेदना नहीं है जिसका इस्तेमाल आज अपनी व्यक्तिगत सोच को दूसरों पर लादने के लिए किया जा रहा है? इसी तरह क्या जरूरत है, नागरिकता कानून में संशोधन, जनसंख्या या नागरिकता  रजिस्टर बनाने की बात पर पक्ष हो या विपक्ष, इतना बवाल करने की कि समाज में व्यवस्था की नींव ही हिल जाए? 

सकारात्मक सोच
मान लीजिए आप कोई नौकरी करते हैं और यह सोचते हैं कि आप अपने पद से आगे बढ़ ही नहीं सकते तो आप जीवन भर उससे बंधे रह सकते हैं लेकिन यदि आपकी सोच यह है कि आप अपने संस्थान के सर्वोच्च पद पर स्वयं को देखना चाहते हैं तो यकीन मानिए, एक दिन आप वहां अपने को बैठा हुआ पाएंगे। एक उदाहरण है। जब देश में सी.एस.आई.आर. की स्थापना हुई तो उसके महानिदेशक डाक्टर आत्मा राम से पूछा कि आप यहां तक कैसे पहुंचे। उनका जवाब था कि  ‘मैं सबसे निचले पद अनुसंधान सहायक के पद पर नियुक्त हुआ था, बाद में जैसे ही मुझसे अगले पद पर बैठा व्यक्ति अवकाश या छुट्टी पर जाता था तो मैं उसका भी काम करने की पेशकश अधिकारियों से कर देता था जो मान ली जाती थी और इस तरह मुझे अवसर और अनुभव दोनों मिलते रहे और मैं यहां तक पहुंच गया।’ इसी तरह मान लीजिए, आप कोई व्यापार या व्यवसाय करते हैं तो आपके आकर्षण का केन्द्र दो चीजें हो सकती हैं। पहली यह कि मैंने यह जो धन, सम्पत्ति अर्जित की है, कहीं खो न जाए, मुझ पर जो ऋण हैं, कहीं मैं उन्हें चुका न पाऊं, मैंने अब तक जो कमाया, वही काफी है, आगे न जाने क्या हो। मतलब यह कि जो ज्यादातर खोने के बारे में ही सोचता रहता है तो या तो वह व्यक्ति वहीं का वहीं रहता है या फिर खोता ही रहता है। 

दूसरी सोच यह हो सकती है कि मुझे अभी बहुत कुछ पाना है, मुझे दफ्तर के लिए आलीशान बिल्डिंग चाहिए, मेरा कारोबार देश में ही नहीं, विदेशों तक में फैले। मतलब यह कि हर वक्त उसके मन में तरंग-सी उठती रहती है कि मुझे यह करना है, वह करना है, इतना धन सम्मान और वैभव अर्जित करना ही है तो होता यह है कि उसकी सोच इन सब चीजों से टकराकर वापस उसकी तरफ लौटती है तो वह हमेशा पाता ही रहता है। एक आंकड़ा है कि दुनिया की 96 प्रतिशत आमदनी केवल एक प्रतिशत लोगों द्वारा अर्जित की जाती है। उदाहरण के लिए अपने ही देश के अम्बानी परिवार के दोनों भाइयों को ही ले लीजिए। एक हमेशा पाता ही रहता है और दूसरा खोता ही रहता है। यह अपनी चाहत का ही खेल है। चाहो तो मिलेगा, न चाहो तो नहीं मिलेगा। या तो अपने दिल और दिमाग की सुन लो या फिर दूसरों की कही बातें सुनकर खुद भी वही कहने और करने  लगो। 

खुशी और गम चुम्बक की तरह होते हैं, एक के आकर्षण में खुश रहना है तो दूसरे में गमगीन। जरा सोचिए जब आप किसी सुबह अचानक कोई गाना गुनगुनाना शुरू करते हैं तो दिन भर गुनगुनाते ही रहते हैं और अगर कभी कोई पुरानी दुखद सोच हावी होती है तो पूरे दिन दुख से भरे रहते हैं? इसलिए जहां तक हो सके, सकारात्मक सोच से शुरूआत करें और नकारात्मक सोच को विदा करते रहें।-पूरन चंद सरीन
 


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