कोविंद के सामने क्या चुनौतियां होंगी

punjabkesari.in Tuesday, Jul 18, 2017 - 10:52 PM (IST)

राजग ने जब अपने राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर रामनाथ कोविंद के नाम की घोषणा की थी तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पूछा था कि ‘‘कोविंद कौन हैं?’’ मगर 17 जुलाई को उनका चुनाव कोई हैरानीजनक नहीं था क्योंकि राजग के पास यू.पी.ए. की उम्मीदवार मीरा कुमार को पराजित करने के लिए जादुई संख्या है। कोविंद दूसरे दलित राष्ट्रपति होंगे, पहले के.आर. नारायणन (1997-2002) थे। 

कोई राष्ट्रपति से क्या आशा कर सकता है? उसे अच्छा या अच्छी दिखना चाहिए, निष्पक्ष हो, उसका रिकार्ड स्वच्छ हो और वह सभी को स्वीकार्य हो, एक सक्षम संचारक जो अपने मन की बात कहने में हिचकिचाए नहीं और संवैधानिक तथा कानूनी मामलों में कुशाग्र हो। कम जाने-पहचाने कोविंद में इनमें से अधिकतर खूबियां हैं। कोविंद कौन हैं? वह व्यवसाय से वकील हैं, हिन्दुत्व विचारधारा को मानने वाले और भाजपा का दलित चेहरा जो दो बार राज्यसभा सदस्य रह चुके हैं। उन्होंने मोरारजी देसाई के सहयोगी के तौर पर काम किया है। वह कानपुर से हैं और उन्होंने उत्तर प्रदेश व बिहार में काम किया है और उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का समर्थन प्राप्त है। कोविंद भाजपा के अनुसूचित जाति मोर्चा के प्रमुख (1998-2002) तथा अखिल भारतीय कोली समाज के अध्यक्ष रहे हैं। 

कोविंद ही क्यों? कुछ समय पहले एक समारोह में प्रधानमंंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा कहे गए भावनापूर्ण शब्द कि ‘‘यदि आप चाहो तो मुझे गोली मार दो मगर दलितों को खतरे में मत डालो’’, भाजपा की दलितों तक पहुंच को दर्शाते हैं। भाजपा को आशा है कि कोविंद की पदोन्नति से वह उत्तर प्रदेश में बसपा के प्रभाव का मुकाबला कर सकेगी और अन्य स्थानों पर विपक्ष तथा दलितों को निष्प्रभावी कर पाएगी ताकि दलितों पर हालिया अत्याचारों के बाद भाजपा पर दलित विरोधी होने का ठप्पा न लग सके। वह भाजपा के साथ दलितों की दूरियों को खत्म कर सकती है, हालांकि उन्होंने मोदी को वोट दिया था। 

अब जब कोविंद राष्ट्रपति भवन के नए ‘किराएदार’ बनने जा रहे हैं तो उनके सामने क्या चुनौतियां होंगी? क्या वह के.आर. नारायणन के रास्ते पर चलेंगे जिन्होंने यूनाइटिड फ्रंट तथा वाजपेयी नीत राजग सरकार के अन्तर्गत दो अलग शासनों में राजनीतिक तौर पर चुनौतीपूर्ण समयों का सामना करते हुए संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखा, तत्कालीन सरकार से दो बार धारा 356 बारे अपनी सलाह पर पुनर्विचार करने को कहा। अक्तूबर 1987 में उन्होंने यूनाइटिड फ्रंट सरकार से कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त करने के अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने को कहा और अक्तूबर  1998 में उन्होंने वाजपेयी मंत्रिमंडल के एक प्रस्ताव को लौटा दिया जिसमें बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने को कहा गया था। यदि कोई ऐसी स्थिति बनती है तो क्या कोविंद वैसे ही करेंगे? जब उन्हें नामांकित किया गया तो उन्होंने यह वायदा करके अच्छी शुरूआत की कि वह संविधान की रक्षा करेंगे। 

के.आर. नारायणन ने पदभार सम्भालते हुए कहा था, ‘‘राष्ट्रपति की भूमिका संविधान की सीमाओं के भीतर होनी चाहिए मगर संविधान कुछ परिस्थितियों में राष्ट्रपति को कुछ सीमित कड़े अधिकार देता है। मैं नहीं जानता कि कैसे ये विशेष परिस्थितियां उत्पन्न होंगी... राष्ट्रपति की भूमिका एक कठिन स्थिति में संविधान की भावना के अनुरूप सही सोच वाली होनी चाहिए।’’ यह कोविंद पर भी उतना ही लागू होता है क्योंकि हम नहीं जानते कि अगले 5 वर्षों में क्या स्थिति पैदा होगी? दूसरे, 2019 के चुनावों के बाद यदि राजग के पास पर्याप्त बहुमत हुआ तो कोई समस्या नहीं होगी मगर यदि खंडित जनादेश मिला तो राष्ट्रपति की भूमिका महत्वपूर्ण होगी और उन्हें कठिन निर्णय लेना पड़ेगा जैसा कि संजीवा रैड्डी जैसे उनके कुछ पूर्ववर्तियों ने किया था। जैसी अब स्थिति है, 2019 के चुनावों के बाद मोदी की वापसी की आशा है क्योंकि उनके सामने कोई चुनौती नहीं है। 

तीसरा है कार्यकारिणी के साथ मधुर संबंध बनाना। संजीवा रैड्डी, ज्ञानी जैल सिंह, के.आर. नारायणन तथा यहां तक कि डा. राजेन्द्र प्रसाद के कार्यकाल के दौरान रायसीना हिल्स तथा रेसकोर्स रोड के बीच तनातनी के उदाहरण हैं। दूसरी ओर प्रणव मुखर्जी, फखरुद्दीन अली अहमद, डा. एस. राधाकृष्णन तथा प्रतिभा पाटिल जैसे राष्ट्रपति सीमा रेखा के भीतर ही रहे। कोविंद चूंकि एक अनुशासित पार्टी वर्कर हैं इसलिए उनसे मोदी के साथ सौहार्दपूर्ण संबंधों की आशा की जाती है। चौथे, वह राष्ट्रपति के क्षमादानों से कैसे निपटेंगे? भारतीय संविधान की धारा 72 के अन्तर्गत एक राष्ट्रपति मृत्युदंड को माफ, लंबित अथवा कम कर सकता है मगर उसे ऐसी कार्रवाई मंत्रिमंडल की सलाह पर करनी होती है। राष्ट्रपति एस. राधाकृष्णन ने अपने सामने मृत्युदंड के सभी 57 मामलों में पेश दया याचिकाओं पर सजा में बदलाव कर दिया था। 

राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद तथा एन. संजीवा रैड्डी ने अपने कार्यकाल के दौरान किसी दया याचिका का निपटारा नहीं किया था। ज्ञानी जैल सिंह ने 32 में से 30 दया याचिकाओं को ठुकरा दिया था जबकि आर. वेंकटरमण ने 50 मामलों में से 45 को खारिज कर दिया था। शंकर दयाल शर्मा ने सभी 14 मामलों में दया याचिकाएं ठुकरा दी थीं जबकि कलाम ने एक मामले में दया याचिका ठुकरा दी थी तथा एक अन्य मामले में मृत्युदंड में बदलाव कर दिया था और 23 अन्य मामलों में कोई निर्णय नहीं लिया था। प्रतिभा पाटिल ने 43 दोषियों को क्षमा जबकि 3 याचिकाओं को खारिज कर दिया था। कोविंद भाग्यशाली हैं कि प्रणव मुखर्जी ने अपना मेज साफ कर दिया है और 30 मामलों को ठुकराया तथा मृत्युदंड पाए 4 दोषियों की सजा में बदलाव कर दिया जिनमें से अंतिम जनवरी में था।

उनकी पांचवीं चुनौती कूटनीतिक है क्योंकि वह राष्ट्र प्रमुख होने के नाते राष्ट्रपतियों तथा प्रधानमंत्रियों की मेजबानी करेंगे। उनको कोई कूटनीतिक अनुभव नहीं है मगर उन्हें सलाह देने के लिए एक अच्छी टीम के साथ इससे पार पाया जा सकता है। कोविंद की पदोन्नति से शीर्ष चार संवैधानिक पदों का भगवाकरण पूर्ण हो गया है। यह पहली बार होगा कि भाजपा का अपना राष्ट्रपति होगा और सम्भवत: उपराष्ट्रपति भी जबकि प्रधानमंत्री तथा लोकसभा अध्यक्ष पहले ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खेमे से हैं।
 


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