क्या पांच हिंदू ही पहले पंज प्यारे सजे थे?
punjabkesari.in Tuesday, Sep 12, 2023 - 05:04 AM (IST)

‘‘पांच हिन्दू ही पहले पंज प्यारे सजे थे।’’ स. त्रिलोचन सिंह की ओर से लिखा गया एक बहुत ही विवादित और अवांछित लेख बड़ी गिनती में वायरल हो रहा है। इसने पंथक राजनीति में हलचल पैदा कर दी है। मगर धार्मिक और ऐतिहासिक तौर पर यह बेबुनियाद और गलत लेख है। यह क्यों और किस मकसद के लिए लिखवाया या लिखा गया है यह तो कहा नहीं जा सकता मगर यदि इसको अनदेखा किया जाता है तो यह भविष्य में कई भ्रम पैदा करने का कारण बन सकता है क्योंकि यह लेख किसी सिख की ओर से लिखा और प्रसारित किया गया है।
इसमें गुरु इतिहास और सिख इतिहास के बारे में कई मनगढंत बातें अंकित करके नया ही वृत्तांत दर्शाने की कोशिश की है। इससे खालसा के इतिहास और मत के बारे में शंकाएं पैदा करने की कोशिश की गई है। इसलिए इस बारे में विचार करना बेहद लाजमी है ताकि सभी तथ्यों को पेश किया जा सके। सिख पंथ की नींव श्री गुरु नानक देव जी ने रखी और फिर 1699 को बैसाखी वाले दिन गुरु गोबिंद सिंह जी ने इसे सम्पूर्ण कर गुरु पंथ में तबदील कर दिया।
श्री गुरु गोबिंद सिंह जी की ओर से अमृत की दात देने से पूर्व ही सिख और सिखी पूरी तरह से सुदृढ़ और संस्थागत हो चुके थे। अब यदि हिन्दुओं को ही गुरु गोङ्क्षबद सिंह जी ने पंज प्यारों की सृजना था तो गुरु नानक देव जी से लेकर 1699 की बैसाखी तक गुरुकाल की कृपा से तैयार किए गए सिख कहां हैं। इस लेख मुताबिक 1469 से लेकर 1699 की सारी घटना ही आलोप कर दी गई है। श्री गुरु गोङ्क्षबद सिंह जी को अपना शीश भेंट करने वाले शूरवीर पंज प्यारे गुरु के अनन्य सिख थे। उन्हें हिन्दू कहना महान योद्धाओं को सिखी से वंचित करना और बहुत बड़ी धार्मिक अवज्ञा है।
श्री गुरु नानक देव जी महाराज ने चार उदासियां कीं तथा जगह-जगह पर धर्मशालाएं और संगतें कायम कीं। जैसे छोटी संगत, बड़ी संगत, कच्ची संगत, पक्की संगत इत्यादि। यह सिलसिला बाद में भी गुरुकाल में निरन्तर जारी रहा। इन संगतों को स्थायी तौर पर धर्म से जोडऩे के लिए श्री गुरु अमरदास जी ने मंजियां और मसंद स्थापित किए। गुरु साहिब के मार्ग को अपनाने वाले सिख कहलवाए। यह शब्द सिख किसी वेद, पुराण और शास्त्र में नहीं था। मगर गुरु नानक देव जी से आरंभ होकर सिख, गुरु सिख, गुरबाणी, गुरु इतिहास और सिख परम्परा में यह शब्द पूरी तरह से प्रसिद्ध हो गया।
गुरु नानक देव जी की ओर से लगाए गए गुरुसिखी के पौधे की महक इतनी फैल चुकी थी कि भाई मनी सिंह द्वारा रचित सिखों की भक्त माला में करीब 200 सिखों का जिक्र है तथा प्रत्येक को भाई शब्द से संबोधित किया गया है। इसी तरह श्री गुरु हरगोबिंद सिंह जी और श्री गुरु तेग बहादुर जी के हुक्मनामे भी मौजूद हैं जिनमें गुरु साहिब ने गुरुसिखों के नाम अंकित किए। श्री गुरु हरगोबिंद जी ने अपने हुक्मनामे में सिखों के बारे में लिखा है कि ‘‘तुसीं मेरे खालसा हो।’’ खालसा उस जमीन को कहा जाता है जो सीधे तौर पर बादशाह के अधीन हो और जिस पर कोई कर या लगान न हो।
यह बात निर्विवादित रूप में बिल्कुल सही है कि आरंभ में सिखी की पनीरी में बड़ा योगदान देने वाले हिन्दू ही थे। मगर वे सिख सजे थे क्योंकि वे सिखों की कुर्बानियों, उनके आचरण तथा दूसरों के लिए अपना आप न्यौछावर करने के जज्बे से प्रभावित हुए थे। पंथ प्रकाश में इसका जिक्र है, ‘‘पले-पलाए इन महि आवे।’’ यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि एक बार सिंह सजने के बाद सिखी का त्याग करने वाला पतित होता है, सहजधारी या हिन्दू नहीं।
इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि जैसे इस्लाम, ईसाई धर्म या यहूदी धर्म का आरंभ और स्त्रोत उनकी धार्मिक पुस्तकें और उनके पैगाम्बर भी सांझे हैं मगर उनकी धार्मिक हस्ती होने पर कभी भी विवाद पैदा नहीं हुआ। पौराणिक गाथाओं के विवरण दिए गए हैं। मगर शर्त केवल एक ही थी कि सारी मानवता का कत्र्ता और पूजनीय हस्ती या स्तुति केवल एक अकाल पुरख ही है। यह कहना कि पहले पंज प्यारे हिन्दू थे, सरासर गलत और किसी विशेष मकसद से कहा गया है। यह पंथक भाईचारे में उत्तेजना पैदा करने में तथा सिख अस्तित्व पर प्रहार करने वाला बयान है। अमृत का अधिकारी हर प्राणी मात्र है। मगर अमृत पीने के लिए कुछ बुनियादी शर्तें हैं। गैर-सिख से सिख सजने के मध्य एक पड़ाव सिख होने का है। हिन्दू से सिख सजने के लिए कुछ महीने का समय लगता है।
श्री गुरु गोबिंद सिंह जी की ओर से अमृत की दात देने से पहले गुरु, सिख, संगत, गुरबाणी, गुरु ग्रंथ साहिब, कथा-कीर्तन, सिख मर्यादा, सचखंड श्री हरिमंदिर साहिब, श्री अकाल तख्त साहिब, श्री निशान, नगारे, लंगर, चौकियां, झंडे इत्यादि सभी सिद्धांत और परम्पराएं सदृढ़ हो चुकी थीं। अमृत प्राप्ति की राह झटपट तय नहीं होती। इसके लिए दृढ़ इरादे, तैयारी और समय की जरूरत होती है। इतिहास गवाह है कि घल्लूघारों के समय भी केशों वाले सिखों के सिर के मूल्य ही 80-80 रुपए पड़ते थे, किसी आम सिर के नहीं। बंदा बहादुर के साथ जिन 700 सिखों को कैद करके दिल्ली लाया गया था उनके साथ नेजों पर सैंकड़ों सिखों के सिर टंगे हुए थे और उनके केश खोलकर पीछे किए गए थे, यह बताने के लिए कि ये सिखों के सिर हैं। मुद्दा केवल लिखने, पढऩे, बोलने या प्रचार करने का नहीं बल्कि मानने और उस पर अमल करने का है। यदि कोई मुसलमान, हिन्दू, जैन, बौद्ध, ईसाई या कोई अन्य भी सिखों को अपना भाई कहता है तो फिर सिखों को उस पर ऐतराज क्यों होगा।-गुरचरणजीत सिंह लाम्बा