पड़ोस के लिए हमें अंधा-गूंगा और बहरा नहीं होना चाहिए

punjabkesari.in Sunday, Apr 04, 2021 - 03:45 AM (IST)

मैं अक्सर अपने आप से यह सवाल पूछता हूं कि भारत में किस तरह का लोकतंत्र है? मुझे इस बात की पुष्टि करने के लिए ‘फ्रीडम हाऊस’ की आवश्यकता नहीं है कि घर पर हम केवल ‘आंशिक रूप से स्वतंत्र हैं’। मेरे लिए यह कुछ समय के लिए स्पष्ट है। मगर भारतीय सीमाओं से परे क्या विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपने सिद्धांतों के लिए खड़ा है जिसके लिए यह कथित रूप से प्रतिबद्ध है। क्या हम विदेशों में चुनी हुई सरकारों, स्वतंत्रता, मानवाधिकारों, बोलने की स्वतंत्रता और निष्पक्ष प्रक्रिया का समर्थन करते हैं? 

यदि आप पिछले 2 महीने से प्रत्येक दिन म्यांमार में होने वाली त्रासदी के बारे में भारत की प्रतिक्रिया को न्यायोचित ठहराते हैं तो मेरा इसके लिए जवाब न में ही होगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि सैन्य शासन के खिलाफ जारी प्रतिरोध की रिपोर्ट हमारे समाचार पत्र करते हैं। लेकिन टैलीविजन समाचार चैनल कभी-कभार ही इसके बारे में रिपोर्टिंग करते हैं। लेकिन हमारी सरकार जो हमारे लिए बोलने हेतु चुनी गई है, वह चुप है। सेना जो रोजाना ही बेगुनाह प्रदर्शनकारियों को मार रही है, उसके खिलाफ आलोचना का एक शब्द भी बोला नहीं जाता। न ही उसकी निंदा की जाती है। यह भी चिंता की बात नहीं है कि जब जनरल अपने ही नागरिकों की पीठ में गोली मारने की धमकी देते हैं या उनके सिर में गोली मारते हैं। 

यह सब कुछ हमारे पड़ोस में हो रहा है। म्यांमार हमारा एक पड़ोसी देश है। इस देश ने बुद्ध के प्रेम और शांति के संदेश को गले लगाया था। संक्षेप में यह दुनिया का हमारा हिस्सा है फिर भी हमने अपनी आंखें बंद कर रखी हैं, अपने कानों को बंद कर रखा है और अपने होंठ सी रखे हैं। हमारे पास कहने को कुछ भी नहीं है। हम शरणार्थियों के लिए अपने दरवाजे भी बंद कर देते हैं जो अपने जीवन के लिए कशमकश कर रहे हैं।

अफसोस की बात यह है कि यह सब कुछ पहली बार नहीं है जब हमने म्यांमार के लोगों और लोकतंत्र के लिए उनके संघर्ष की तरफ अपनी पीठ कर रखी है। हमारी प्रतिक्रिया 1988 में अलग नहीं थी जब सेना ने आंग सान सू की की पहली चुनावी जीत को पहचानने से इंकार कर दिया था। 

30 सालों का सैन्य शासन चला। दुनिया सू की के साथ खड़ी थी। भारत ने उन्हें नेहरू पुरस्कार देने के बाद उनको भुलाने की भरसक कोशिश की। फिर भी भारत सू की का दूसरा अपना देश है। वह दिल्ली में स्कूल और कालेज में पढ़ी थीं। उनकी मां 1960 से 1967 तक राजदूत थीं। उन्होंने भारत के साथ कूटनीतिक सांझेदारी निभाई। 

उन अंधेरे दशकों में जब भारत ने लोकतंत्र की टिमटिमाती लौ को जगाए रखने के लिए कुछ नहीं किया तब सू की ने 2015 में मुझसे कहा था कि, ‘‘उन्होंने हमसे दूर रहने की कोशिश की जिससे मुझे दुख हुआ क्योंकि मुझे भारत से बेहद लगाव है। आजादी से पहले के दिनों से भारतीय और बर्मा के नेता घनिष्ठ मित्र थे। इसने मुझे दुखी किया है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र सैन्य सरकार के साथ अपने अच्छे संबंध बनाए रखना चाहता है और लोकतंत्र की ओर अपनी पीठ दिखा रहा है।’’ और अब हम इसे फिर से कर रहे हैं। सू की की सरकार निष्पक्ष रूप से चुनी गई सरकार थी। वह अब तक की देश की सबसे लोकप्रिय नेता है। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र इन सरल अखंडनीय तथ्यों को कैसे भुला सकता है? 

म्यांमार जुंटा का समर्थन करने का हम दावा करते हैं जो हमारे उत्तर-पूर्व में अलगाववादियों और विद्रोहियों से निपटती है। मैं इससे इंकार नहीं करता कि यह महत्वपूर्ण है लेकिन लोकतंत्र और भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। हमारे सिद्धांत हमेशा हमारी पहली ङ्क्षचता होनी चाहिएं। हमें अलगाववाद और उग्रवाद को पराजित करने तथा लोकतंत्र को बनाए रखने की हमारी प्रतिबद्धता को कायम रखना होगा। लेकिन यदि हमारे पड़ोस में कुछ दमनकारी होता है तो हमें बहरा, गूंगा और अंधा नहीं होना चाहिए। इससे हम अपनी अखंडता को कम कर लेंगे। हमें यह प्रभावित नहीं करता कि हम खुद को कैसे देखते हैं, बल्कि हमें यह प्रभावित करता है कि दुनिया हमें कैसे देखती है? सच्चाई भारत के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह एक लोकतंत्र है।-करण थापर


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