75 वर्षों में हमने बहुत कुछ पाया और खोया भी

punjabkesari.in Friday, Aug 12, 2022 - 03:56 AM (IST)

जब भारत ने औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता प्राप्त की तो मैं 18 वर्ष का था। अब मैं 94 वर्ष का हूं, सटीक बताऊं तो 93 वर्ष तथा 3 महीने का। मुझे 15 अगस्त 1947 बहुत अच्छी तरह याद है। मेरा भाई एडगर, जो मुझसे डेढ़ वर्ष छोटा था तथा मैंने शहर का चक्कर लगाने के लिए शाम को एक सार्वजनिक बस पकड़ी। बस ऐसे लोगों से ठसाठस भरी थी जो इसी मकसद से उसमें सवार हुए थे। 

दक्षिण मुम्बई की प्रमुख सरकारी इमारतें रोशनियों से जगमगा रही थीं। हर ओर खुशी का एक सकारात्मक माहौल था। हम रात्रि भोज के लिए वापस लौटे और पूरी उत्सुकता से अपनी मां तथा अपनी नानी को अपने अनुभव के बारे में बताया, जिनके साथ हम अपने 2 छोटे भाई-बहनों के साथ रहते थे। 

महिलाओं तथा हमारे भाई-बहनों में से सबके हाथ में एक-एक नन्हा तिरंगा था। वह उसे हमारे बायकुला स्थित घर की बालकनी से लहरा रहे थे जो मुख्य डाक्टर अम्बेडकर मार्ग के एक छोर पर था। वे बहुत सोच-समझकर हमारे लिए कुछ अतिरिक्त झंडे लाए थे। रात्रि भोज के बाद हम खुली बालकनी में उनके साथ शामिल हो गए।

हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, जिन्हें प्यार से ‘पंडित जी’ कहा जाता था, ने 14-15 अगस्त की मध्यरात्रि को एक बहुत जोरदार भाषण दिया था। हम शाम तक उसे सुनते रहे। वह दिल से दिया गया भाषण था जिसने हमारी आंखों में आंसू ला दिए। तब से देश ने एक लम्बा सफर तय किया है। लोग भी बदल गए हैं।  एक बदलाव, जिससे मैं डरता हूं, वह है एक जीवंत लोकतंत्र जिसमें मैं पला-बढ़ा हूं, से एक पार्टी के प्रभुत्व वाले शासन में धीरे-धीरे बदलाव जैसे कि रूस तथा चीन और यहां तक कि उससे भी खराब हिटलर की जर्मनी। लोकतंत्र के लिए दोनों वामपंथी तथा दक्षिणपंथी अतिवादी खतरनाक हैं।  कम से कम मेरे जैसी साधारण आत्मा तो यही सोचती है। 

एक प्रभुत्वशाली राजनीतिक दल द्वारा सेना, मीडिया तथा न्यायपालिका जैसे अत्यंत सम्मानित संस्थानों में घुसपैठ प्रत्येक सोचवान भारतीय के लिए चिंता का विषय होनी चाहिए। यह संस्थान, जो शक्ति के दुरुपयोग पर नियंत्रण तथा संतुलन की गारंटी देते हैं, पूर्णत: अपने स्थान पर थे। दुख की बात यह है कि हमारी आंखों के सामने ही ये नियंत्रणों तथा संतुलनों का क्षरण हो रहा है। 

उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियों में दखलअंदाजी के प्रयास पहले भी किए गए थे लेकिन अब इन्हें कहीं अधिक वैज्ञानिक तरीके से हासिल किया जा रहा है। उदाहरण के लिए हाईकोर्ट में जज बनने के लिए अल्पसंख्यक उम्मीदवारों को संभवत: सुप्रीमकोर्ट कालेजियम की जांच का सामना करना पड़ता है लेकिन 80 प्रतिशत को भारत सरकार के कानून-मंत्रालय द्वारा खारिज कर दिया जाता है। सीधे तौर पर नकारने से बचा जाता है लेकिन यह सुनिश्चित करने के लिए उनकी वरिष्ठता प्रभावित हो, रास्ते के तौर पर देरी को अपनाया जाता है ताकि वे प्रधान न्यायाधीश के पद तक न पहुंच सकें। उद्देश्यों को प्राप्त करने का यह कहीं अधिक चतुराईपूर्ण रास्ता है। 

लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका सत्ता में बैठे लोगों को जवाबदेह बनाना है। लेकिन यदि सरकारी विज्ञापन पिं्रट तथा इलैक्ट्रिक मीडिया की कमाई के प्रमुख स्रोत हैं तथा सरकार की ओर झुकाव वाले चुङ्क्षनदा पत्रकारों को नियमित रूप से ‘भीतरी’ सूचना लीक की जाती है तो मीडिया पर कब्जा करने की प्रक्रिया भी सफलता की ओर अग्रसर है। लोकतंत्र की एक महान किलेबंदी को सफलतापूर्वक भेद लिया गया है। 

सशस्त्र बलों, विशेषकर सेना में सेंध लगाना काफी अधिक कठिन है। भाग्य से पूर्ववर्ती सरकारों ने सशस्त्र बलों में नियुक्तियों तथा स्थानांतरणों  में पवित्रता बनाए रखी। उन्होंने एक हद से आगे दखलअंदाजी नहीं की क्योंकि सेना, नौसेना तथा वायुसेना का सामान्य जनता के साथ कोई संवाद नहीं होता जो शासन करने के लिए वांछित मतदाता आधार उपलब्ध करवाती है। मगर अति वामपंथी तथा अति दक्षिणपंथी सरकारें अपनी विचारधारा स्थापित करने के लिए ऐसा करना चाहती हैं। यह एक खतरनाक कदम है जिस पर हाल ही में ध्यान गया।

सेना की प्रकृति राजनीतिक चालबाजियों की ओर झुकाव की नहीं है। इसने हमेशा इस तरह की दखलअंदाजियों का विरोध किया है। नियुक्तियों तथा स्थानांतरणों की शक्ति का दुरुपयोग काम कर गया। यह कठिन नहीं था क्योंकि महत्वकांक्षा मानवीय व्यवहार का एक प्रमुख कारक है तथा  दर्जनों ऐसे अधिकारी हमेशा उपलब्ध रहते हैं जो अपनी आत्मा बेचने के लिए तैयार होते हैं। इसका श्रेय सेना के शीर्ष अधिकारियों को जाता है कि वे इस तरह के रिसाव को रोकने में सफल रहे हैं, लेकिन ऐसा दिखाई देता है कि अब ऐसा होने लगा है। 

इस गंभीर तथा विपरीत घटनाक्रम के अतिरिक्त मैं समुदायों के बीच एकता के विखंडन को भी एक प्रमुख विनाशकारी अभिशाप मानता हूं। विभाजित देश एक दृढ़ शिकारी के लिए एक बैठी हुई बत्तख की तरह है। देश में सुरक्षा का माहौल निश्चित तौर पर ङ्क्षचता का कारण है। कोई भी मानव बल तथा हथियार विभिन्न धार्मिक तथा जातीय समुदायों के बीच एकता तथा समझ व स्थान नहीं ले सकता। यह एक ऐसा सच है जिसे सत्ताधारी शासन को हजम करना सीखना होगा। 

गत 75 वर्षों में हमने बहुत कुछ प्राप्त किया है। यह प्रक्रिया 1947 में पंडित जी द्वारा अर्थव्यवस्था को नई ऊंचाइयों तक ले जाने में देश की भूमिका बनाने के साथ शुरू की गई। उनकी बेटी ने निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके समाजवादी एजैंडे को और आगे बढ़ाया।  मैं एक अर्थशास्त्री नहीं हूं तथा न ही मैं किसी ऐसी चीज को छूने जा रहा हूं जिसके बारे में बोलने में मैं सक्षम नहीं। लेकिन मैं सरकार तथा टिप्पणीकारों द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों को पढ़ता हूं। मेरा अपना मानना है कि प्रत्येक सरकार ने अपनी विचारधारा के अनुसार जितना हो सका प्रयास किया। इस प्राचीन धरती के लोग सहनशील तथा विश्वास करने वाले हैं। जो भी उनके सामने आया उन्होंने उसे स्वीकार किया। 

यह व्यवहार संभवत: बदलने वाला नहीं। प्राथमिक शिक्षा में उठाए गए कदम स्पष्ट दिखाई देते हैं जिन्होंने सोशल मीडिया तथा टैलीविजन द्वारा प्रभावित अधिक प्रबुद्ध युवाओं की एक नई पीढ़ी तैयार की है। वे प्रश्र पूछने तथा खुद के बारे में निर्णय लेने के लिए तैयार हैं। देश के राजनीतिज्ञों द्वारा किए जा रहे डींगे मारने वाले प्रचार को खारिज करते हुए हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि गत 75 वर्षों के दौरान व्यवहारों में कई बदलाव आए हैं। इनमें से अधिकतर बदलाव बेहतरी के लिए हैं। वे बदलाव, जिन्होंने युवाओं के मन में विश्वास, स्वतंत्र सोच तथा अनगढ़ सच की स्थापना की है, आने वाले वर्षों में सच्ची प्रगति के तौर पर दिखाई देंगे।-जूलियो रिबैरो(पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी)     


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