हम शरीर से स्वतंत्र हैं पर आत्मा से अभी भी बंधे हुए
punjabkesari.in Sunday, Oct 19, 2025 - 05:20 AM (IST)
1947 में मिली आजादी एक स्वर्ण किरण थी! हमने तिरंगा फहराया, राष्ट्रगान गाया और एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में सांस ली, पर क्या वह स्वतंत्रता पूरी थी? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हालिया उद्घोष ‘भारत का सबसे बड़ा दुश्मन कोई विदेशी ताकत नहीं बल्कि हमारी निर्भरता न होना है’ इस गहन प्रश्न को एक बार फिर से जीवंत कर गया है। यह सिर्फ एक बयान नहीं बल्कि हमारे सामूहिक विवेक को झकझोरने वाला सत्य है जो हमें उस शीशे के सामने खड़ा कर देता है जहां हमारी राजनीतिक आजादी की चमक आर्थिक और डिजिटल पराधीनता की धुंध में खोई हुई दिखती है।
कल्पना कीजिए एक विशाल वृक्ष की, जिसकी जड़ें तो अपनी मिट्टी में हैं, पर उसकी शाखाएं और फल दूसरों के बगीचे में उग रहे हों। कुछ ऐसी ही स्थिति रही है हमारी। हमारे सैनिक जो देश की सीमा पर सीना ताने खड़े हैं, उनके हथियार अक्सर विदेशी फैक्टरियों से आते रहे। हमारे युवाओं के सपनों को पंख देने वाले विश्वविद्यालय अक्सर सात समंदर पार पाए गए और हमारी ‘डिजिटल धड़कनें ’ अमरीकी कंपनियों के अदृश्य एल्गोरिदम के इशारों पर नाचती रहीं। यह कैसी आजादी है जहां हम शरीर से स्वतंत्र हैं पर आत्मा से अभी भी बंधे हुए हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि हमारी अर्थव्यवस्था की नसों में कौन सा रक्त बह रहा है? पी.डब्ल्यू.सी., डेलाइट, ई.वाई. और के.पी.एम.जी. ये चार विशालकाय कंपनियां जिन्हें हम ‘बिग फॉर’ कहते हैं, दशकों से भारत की आर्थिक धमनियों पर अपना कब्जा जमाए बैठी हैं। पी.डब्ल्यू.सी. ने तो 1880 में ही कोलकाता में अपने तंबू गाड़ दिए थे, जब भारत में अंग्रेजों का राज था! ई.वाई. 1914 से यहां है, डेलाइट 1976 से और के.पी.एम.जी. 1993 से।
सोशल मीडिया पर इन कंपनियों द्वारा भारत से लूटे जा रहे अरबों-खरबों रुपयों की बहस छिड़ी रहती है । कोई 38,000 करोड़ रुपए कहता है, कोई 45,000 करोड़ पर असली खेल पैसों का नहीं बल्कि ‘डेटा’ का है! एन.एस.ई. में सूचीबद्ध कंपनियों ने पिछले साल लगभग 1,903 करोड़ ऑडिट फीस दी, जिसमें से बिग फोर का हिस्सा 550-600 करोड़ रुपए था। यह रकम भले ही छोटी लगे, पर इसका महत्व ‘कुबेर के खजाने’ से कम नहीं। ये फर्में जानती हैं कि कौन सी भारतीय कंपनी कहां से कच्चा माल खरीदती है, किस भाव बेचती है, किस सैक्टर में हमारी ताकत है और कहां हमारी नसें कमजोर हैं।
यह जानकारी सोने से भी ज्यादा कीमती है! यही वो खुफिया जानकारी है जिसका इस्तेमाल अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजैंसियां हमें ‘बी.बी.बी.’ या ‘बी.बी.बी.-’ जैसी रैंकिंग थमाने के लिए करती हैं। यानी, हमारा ही डेटा हमारे खिलाफ एक हथियार की तरह इस्तेमाल होता है। यहां यह समझना आवश्यक है कि यह सिर्फ व्यापार का मामला नहीं बल्कि यह हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा का हृदय भेदी प्रश्न भी है! इस अदृश्य खतरे को चीन ने बहुत पहले पहचान लिया था। वहां विदेशी ऑडिट फर्मों पर ‘ड्रैगन’ की कड़ी निगरानी रहती है। पी.डब्ल्यू.सी. को तो चीन में उसकी रियल एस्टेट कम्पनी एवरग्रांडे मामले में भारी आर्थिक दंड और 6 माह का प्रतिबंध भी झेलना पड़ा था। रूस ने भी यूक्रेन युद्ध के बाद पश्चिमी सेवाओं को सीधे-सीधे ‘रैड कार्ड’ दिखा दिया और वी.के. तथा टैलीग्राम जैसे अपने सोशल मीडिया प्लेटफार्म खड़े कर लिए। ये देश दुनिया को चिल्ला-चिल्लाकर बता रहे हैं कि आत्मनिर्भरता केवल एक जोशीला नारा नहीं बल्कि राष्ट्र की सुरक्षा और संप्रभुता का अंतिम गढ़ है।
अब भारत भी उसी चौराहे पर खड़ा है, जहां उसे अपना रास्ता खुद बनाना है। मोदी सरकार का सपना है कि भारत अपनी खुद की ‘ग्रुप ऑफ फोर’ फर्मों का निर्माण करे। ऐसी भारतीय कंपनियां जो न केवल हमारे देश की कंपनियों का ऑडिट करें बल्कि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी अपनी विश्वसनीयता का लोहा मनवाएं। हालांकि यह चुनौती आसान नहीं है क्योंकि डेलाइट या पी.डब्ल्यू.सी. जैसी कंपनियों ने 100 साल में अपना साम्राज्य खड़ा किया है, पर यह असंभव भी नहीं है! पर असली युद्ध तो डिजिटल रणभूमि में लड़ा जा रहा है! सुबह आंख खुलते ही हम व्हाट्सअप खोलते हैं, दिन भर यू-ट्यूब या इंस्टाग्राम पर सर्फ करते हैं और शाम को फेसबुक पर अपनी जिंदगी की कहानियां पोस्ट करते हैं। ये सब अमरीकी कंपनियों के प्लेटफार्म हैं, जिनकी अदृश्य डोरियों से हमारे विचार और भावनाएं नियंत्रित होती हैं। उनके एल्गोरिदम तय करते हैं कि कौन सी खबर आपको दिखेगी, किसका वीडियो वायरल होगा और कौन-सी आवाज दब जाएगी।
समस्याएं अनेक हैं लेकिन इन सबका हल एक ही है ‘आत्मनिर्भरता’। हमें अपनी अकाऊंटिंग फर्मों को विश्वस्तरीय बनाना होगा, अपने स्वदेशी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म खड़े करने होंगे जो हमारी संस्कृति और आवाज़ को बुलंद करें। साथ ही हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था को इतना मजबूत करना होगा कि हमारे बच्चे विदेश जाने के बजाय यहीं अपने सपनों को पंख दें। अपनी रक्षा इंडस्ट्री को सही मायने में आत्मनिर्भर बनाना होगा। अब वक्त है आर्थिक और डिजिटल स्वतंत्रता हासिल करके आत्मनिर्भर होने का।-डा. नीलम महेंद्र
