जल विवाद : भारत देशवासियों की प्यास कैसे बुझाएगा

punjabkesari.in Wednesday, Oct 04, 2023 - 04:43 AM (IST)

जलवायु परिवर्तन का पहला विनाशक प्रभाव हमारे द्वार पर दस्तक दे रहा है। 21वीं सदी के भारत में जल की खोज और उसका प्रबंधन सबसे जटिल कार्य बन गया है। हमारे दो-तिहाई से अधिक जलाशयों में जलस्तर सामान्य से कम है। प्रश्न उठता है कि आगामी वर्षों में भारत अपनी जल की आवश्यकता कहां से पूरी करेगा, विशेषकर इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए, कि विभिन्न राज्यों के बीच जल बंटवारे को लेकर अंतर्राज्यीय विवाद चल रहे हैं। 

पिछले सप्ताह 31वीं नार्थ जोन काऊंसिल, जिसमें पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल और संघ राज्य क्षेत्र शामिल हैं, की बैठक हुई तथा उसमें केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने सभी राज्यों से आग्रह किया कि वे अपने जल विवादों का खुले मन से तथा पारस्परिक चर्चा द्वारा समाधान करें। वर्तमान में पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के बीच अलग-अलग जल विवाद चल रहे हैं। पंजाब और हरियाणा ने भावनात्मक सतलुज-यमुना ङ्क्षलक नहर का मुद्दा उठाया, जो कई दशकों से उनके बीच विवाद का विषय बना हुआ है। 

पंजाब के मुख्यमंत्री मान ने नहर की एक बूंद पानी के बंटवारे का भी विरोध किया क्योंकि यह सूख गई है और इससे कानून और व्यवस्था के गंभीर मुद्दे हो सकते हैं। इसकी बजाय उन्होंने कहा कि गंगा-यमुना का पानी सतलुज के माध्यम से पंजाब तक पहुंचाया जाना चाहिए और साथ ही यह भी मांग की कि नए विचारार्थ विषय के साथ एक नए अधिकरण की स्थापना की जाए। हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर चाहते हैं कि पंजाब में सतलुज-यमुना लिंक नहर का निर्माण पूरा किया जाए। इससे महत्वपूर्ण जल संसाधनों का उत्पादक उपयोग होगा। उन्होंने सतलुज-यमुना लिंक नहर को पुरानी नंगल हाइडल चैनल के विकल्प के रूप में भी स्वीकार किया। दक्षिण में कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच एक बार पुन: कावेरी जल बंटवारे को लेकर तलवारें खिंच गई हैं। हालांकि कावेरी जल विनियमन समिति ने कर्नाटक को निर्देश दिया है कि वह तमिलनाडु को प्रतिदिन 3000 क्यूसेक पानी छोड़े। शुक्रवार को राज्य में तमिलनाडु को जल छोडऩे के विरुद्ध बंद आयोजित किया गया और समिति के निर्णय को उच्चतम न्यायालय में चुनौती देने की योजना बनाई गई। 

जल बंटवारे को लेकर अंतर्राज्यीय जल विवाद गत वर्षों में बढ़ते गए हैं और ये राजनीतिक दृृष्टि से संवेदनशील मुद्दे बन गए हैं। विशेषकर बड़े राज्यों के विभाजन के बाद अंतर्राज्यीय राजनीतिक और कानूनी लड़ाइयां इस संबंध में बढ़ी हैं क्योंकि कोई भी राज्य दूसरे राज्य को जल नहीं देना चाहता और यह ऐसे समय पर हो रहा है जब गंगा सहित 11 प्रमुख नदी बेसिनों में 2025 तक जल की कमी हो जाएगी तथा इससे एक करोड़ से अधिक लोग प्रभावित होंगे। वर्ष 2050 तक स्थिति और गंभीर हो जाएगी तथा जल की मांग 1180 मिलियन क्यूबिक मीटर तक पहुंच जाएगी, जो वर्तमान स्तर से 1.65 गुणा अधिक है, जबकि मीठे जल के स्रोत सीमित होते जा रहे हैं। भारत में विश्व की 18 प्रतिशत जनसंख्या रहती है, किंतु यहां पर केवल 4 प्रतिशत पीने योग्य जल है। यहां पर जितना जल है उससे अधिक उसकी बरबादी होती है। हम जल संरक्षण की बजाय अन्य परियोजनाओं पर अरबों रूपए खर्च कर देते हैं। इस समस्या के स्थायी और सतत समाधान की बजाय केन्द्र ने अल्पकालिक उपाय किए हैं और इससे स्थिति और उलझी है। 

केन्द्र पहले ही कृष्णा नदी जल बंटवारे को लेकर आंध्र और कर्नाटक, गोदावरी के जल बंटवारे को लेकर महाराष्ट्र और कर्नाटक, मांडेल मंडोवी बेसिन को लेकर गोवा और कर्नाटक, नर्मदा के जल बंटवारे को लेकर मध्य प्रदेश और गुजरात के बीच जल विवादों को सुलझाने में व्यस्त है, हालंाकि इस मामले की जांच और इस संबंध में निर्णय देने के लिए अंतर्राज्यीय जल विवाद अधिनियम 1956 के अंतर्गत 5 अधिकरणों का गठन किया गया है। इसके साथ ही राजनीतिक दल अपना अस्तित्व बचाने के लिए जल का मुद्दा उठाते हैं। वे यह नहीं समझते कि हमारी नदियों का अत्यधिक दोहन किया जा रहा है। उनमें प्रदूषण बढ़ता जा रहा है और उन्हें औद्योगिक अपशिष्ट और कूड़े के लिए एक डंपिंग ग्राऊंड बनाया जा रहा है। हालांकि गंगा, यमुना तथा ग्रामीण जल योजनाओं पर करोड़ों रुपए खर्च करने के बावजूद कुएं सूखे हैं और महिलाओं को अभी भी दूर से पानी लाना पड़ता है। दूसरी ओर राज्यों के हित राष्ट्रीय हितों पर हावी होने लग गए हैं। तेलंगाना ने केन्द्र से कहा है कि कृष्णा नदी जल बंटवारे के निर्णय पर पुनॢवचार करे क्योंकि इसमें आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक द्वारा उसके साथ अन्याय हुआ है। इस संबंध में सरकार क्या कर सकती है?

क्या वह आसमान की ओर नजरें गड़ाए रखे और इस तथ्य को नजरंदाज कर दे कि धरती के तापमान में वृृद्धि के कारण ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और आने वाले वर्षों में भारत को पानी कहां से मिलेगा। इस समस्या को समझते हुए मोदी सरकार राज्यों के बीच इस समस्या के स्थायी समाधान को प्रोत्साहित कर सकती है और उनका समाधान था जल बंटवारा समानता और इसके लिए एक संवैधानिक तंत्र बनाया जाए, जिसमें जल संकट के समय भी जल बंटवारा समानता सुनिश्चित करने के लिए केन्द्र को जल प्रशासन के स्वायत्त अधिकार दिए जाएं। वर्षों तक लटके रहने के बाद लग रहा है कि भारत अब कुछ बड़ी नदियों को जोडऩे के लिए 87 बिलियन डालर की योजना पर कार्य करेगा ताकि बाढ़ अैर सूखे पर अंकुश लग सके। जो राज्य बाढ़ प्रवण नहीं थे, उनमें अधिक आपदाएं आ रही हैं और जो बाढ़ प्रवण हैं, उनमें स्थिति और बिगड़ी है और इन सबका कारण नदियों में भारी मात्रा में गाद का जमा होना है। 

नदियों को आपस में जोडऩे की योजना के पक्षधरों का कहना है कि इससे हमारी जल की समस्याओं का भी समाधान होगा क्योंकि इससे वर्षा जल के संचय में सहायता मिलेगी जिसे जलाशयों मे जमा किया जाएगा और उनके माध्यम से ऐसे क्षेत्रों में पहुंचाया जाएगा जहां पर जल की कमी है। इससे नौ परिवहन और मत्स्य पालन की सुविधा भी मिलेगी और ग्रामीण क्षेत्रों में आय में भी वृृद्धि होगी। ब्रह्मपुत्र, महानदी, गंगा और गोदावरी से अतिरिक्त बाढ़ का जल नहरों और बांधों के माध्यम से दक्षिण भारत की कम जल वाली नदियों तक पहुंचाया जा सकता है और इससे कृषि उत्पादन बढ़ेगा, वन क्षेत्र बढ़ेंगे और प्रदूषण कम होगा। पहले ही सुजलाम, सुफलाम, साबरमती-सरस्वती, भादर-माही सहित अनेक नदियों को जोडऩे की योजनाओं का सकारात्मक लाभ मिलना शुरू हो गया है।  

नदियों को आपस में जोडऩे की योजना सभी समस्याओं का समाधान नहीं है क्योंकि जल पैदा नहीं किया जा सकता और न ही उसे कारखानों में बनाया जा सकता है और न ही तेल की तरह आयात किया जा सकता है। इसलिए उपलब्ध जल संसाधनों का प्रबंधन महत्वपूर्ण बन जाता है। अधिकरण सामान्यतया समान तर्कयुक्त जल उपयोग और पारस्परिक लाभ के अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों और पद्धतियों का उपयोग करते हैं, किंतु इन्हें कानूनी समर्थन प्राप्त नहीं, फलत: जब राज्य इसको चुनौती देते हैं तो कानूनी उलझन से यह संघर्ष और बढ़ जाता है और समस्या के समाधान में विलंब होता है। लोक सभा ने अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद संशोधन विधेयक 2017 पारित किया जिसमें स्थायी नदी जल विवाद अधिकरण की स्थापना और एक मध्यस्थता समिति के गठन का प्रावधान किया गया है किंतु इसके कार्यान्वयन के तंत्र की रूपरेखा अभी तैयार नहंी की गई है जिसके चलते राज्य इसमें बाधा उत्पन्न करते हैं या अधिकरण के आदेशों के विरुद्ध न्यायालय चले जाते हैं। यह समस्या जल की मांग और आपूॢत से भी अधिक गंभीर है। 

समय की मांग है कि इस संबंध में व्यावहारिक और मिशन मोड पर आधारित उपाय किए जाएं, जिसमें दीर्घकालिक उपायों पर बल दिया जाए और स्थानीय जल प्रबंधन को प्राथमिकता दी जाए। स्थानीय नम भूमि जल स्रोतों को बहाल किया जाए तथा जल के पुनर्उपयोग पर बल दिया जाए। समय आ गया है कि केन्द्र जल को एक राष्ट्रीय परिसंपत्ति माने और इस समस्या का दीर्घकालीन समाधान करे। हमारे नेताओं को जुबानी जमाखर्च बंद करना होगा क्योंकि इससे भारत की बढ़ती प्यास नहीं बुझेगी। हमें इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि पानी राज्य की संपत्ति नहीं अपितु यह सबका है।-पूनम आई. कौशिश
 


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