शाकाहार, मांसाहार और अब वीगन आहार

punjabkesari.in Saturday, Jan 20, 2024 - 06:38 AM (IST)

यह व्यक्ति पर निर्भर है कि वह क्या खाए पिए लेकिन स्वस्थ रहने के लिए शरीर को जरूरी विटामिन, खनिज और अन्य पौष्टिक चीजों की जरूरत होती है। ये तत्व अनाज, सब्जी, दूध, फल, अंडे, मांस, मछली तथा अन्य पदार्थों से मिल जाते हैं। खाने पीने के मामले में अपने से ज्यादा दूसरों की बात नहीं माननी चाहिए। जिसका जो मन करे या स्वाद सुगंध में अच्छा लगे, वही खाया-पिया जाए, किसी का क्या जाता है? यहां तक तो ठीक है लेकिन जब कोई यह कहे कि जो वह खानपान में इस्तेमाल करता है, वही दूसरे भी करें, तब समस्या हो जाती है।

खानपान के प्रकार : आम तौर पर एक तो शाकाहारी होते हैं जो केवल साग सब्जी, दाल भात, फल, मेवे जैसी चीजों के अलावा कुछ नहीं खाते। दूसरे वे जो यह तो खाते ही हैं लेकिन साथ में पशुओं से प्राप्त चीजें जैसे दूध और उससे बने पदार्थ, शहद, अंडे भी खा लेते हैं और शाकाहारी ही कहलाते हैं। तीसरे वे जो इन सबके साथ कभी-कभी मांस मछली का भी सेवन कर लेते हैं और मिश्रित शाकाहारी कहे जा सकते हैं। चौथे वे जो मांसाहार के अलावा कुछ नहीं खाते। 

यह तो हो गया सामान्य सा वर्गीकरण लेकिन पिछले कुछ वर्षों से दुनिया भर में एक चलन बढ़ रहा है और भारत भी इससे अछूता नहीं है। यह है सिर्फ और सिर्फ वही खाया जाए जो जमीन में उगता है या पेड़ पौधों से मिलता है। अगर किसी भी पशु से मिला है तो वह उनके लिए खाने योग्य नहीं है। इसमें दुधारू पशुओं से मिलने वाला दूध और उससे बने पदार्थ, मधु मक्खी से मिला शहद और वह सब शामिल है जो किसी भी पशु, पक्षी, कीट आदि से मिला हो। यहां तक तो गनीमत है लेकिन इनके लिए वह सब भी किसी काम का नहीं जो किसी भी रूप में पशु से मिला हो। 

जैसे कि भेड़ या किसी अन्य जानवर से मिली ऊन से बने वस्त्र जो इनके लिए वॢजत हैं। अब जहां सर्दी बहुत पड़ती है तो वहां ऊनी कपड़ों की जरूरत तो होगी ही लेकिन यह नहीं पहनेंगे। स्वैटर, शाल, चमड़े की जैकेट, बैल्ट, पर्स या बैग और इसी तरह की दूसरी चीजें जिनको बनाने में किसी भी पशु का इस्तेमाल हुआ हो, चाहे हाथी दांत से कुछ बना है, इनके लिए व्यर्थ है। इसी तरह रेशमी वस्त्र यानी सिल्क की साड़ी, कुर्ता, कमीज कुछ नहीं पहन सकते। मतलब यह कि न ऐसा कुछ खाएंगे या पिएंगे और पहनेंगे जिसका संबंध किसी पशु से हो। ये लोग वेगन कहलाते हैं और हमारे देश का विशेषकर युवा वर्ग और उसमें भी धनी लोग इसे काफी संख्या में अपना रहे हैं। इसे उनका लाइफ स्टाइल कह सकते हैं और कह सकते हैं कि वीगन बनना या कहलाना एक फैशन है। 

अब ये लोग अधिकतर पैसे वाले हैं तो ये खान पान और पहनावे में वे सब वस्तुएं रख सकते हैं जिन्हें बनाने के लिए किसी भी प्रकार से किसी भी पशु से प्राप्त वस्तु का इस्तेमाल न किया गया हो। इनके लिए खास तौर पर वेगन फूड तैयार किए जाते हैं, सिंथैटिक कपड़े बनते हैं, जाहिर है कि इनकी कीमत इतनी होती है कि हर कोई नहीं खरीद सकता। मतलब यह कि यदि स्वस्थ रहना है तो महंगी और ज्यादातर विदेशी वस्तुओं का इस्तेमाल हो। 

अब जो दूध या अंडा कुछ रुपयों का अपनी जरूरत भर मिल जाए और दूसरी तरफ  वेगन होने के चक्कर में सैंकड़ों रुपए खर्च हो जाएं तो इसे अमीरों का चोंचला ही कहा जाएगा। यहां एक समस्या और होती है और वह यह कि दूध, पनीर, अंडे से जो पौष्टिकता मिलती है और दूसरी खाने-पीने की चीजों से जरूरी विटामिन, मिनरल और ऊर्जा शरीर को मिलती है, वह न मिलने से शरीर को तो बीमार पडऩा ही है। सोचिए शिशु को दूध न मिले तो वह कितना कमजोर रह जाएगा। युवाओं को अगर पौष्टिक भोजन न मिले तो उनका बौद्धिक विकास रुक जाएगा। इसके लिए वे सब पदार्थ जरूरी हैं जो वेगन के लिए त्याज्य हैं। 

वीगन लोगों का कहना है कि अगर उनके आहार में कमी है तो वे दवाइयां ले लेंगे लेकिन प्रश्न यह है कि क्या कोई एलोपैथिक दवा है जिसके बनने से पहले उसकी उपयोगिता की जांच के लिए चूहे, बंदर जैसे जानवरों का इस्तेमाल न किया गया हो। कोविड की डोज का भी परीक्षण बंदर पर हुआ था और उसके लिए विशेष रूप से बंदरों को पकड़वा कर मंगाया गया था। जहां तक आयुर्वैदिक और होम्योपैथिक या यूनानी दवाओं की बात है तो इन्हें एलोपैथी के सामने कुछ नहीं समझा जाता। 

स्कैम का खतरा : इस बात की चर्चा भी चल निकली है कि वीगन आहार और वस्त्रों की लोकप्रियता और बिक्री बढ़ाने के लिए मल्टी नैशनल कंपनियों में होड़ लगी हुई है कि कैसे वे अपना माल बेचें। यह एक स्कैम की तरह है जिसके पीछे उद्देश्य यह है कि हमारे जैसे विकासशील देश की अर्थव्यवस्था को कैसे चौपट किया जाए? इसे इस तरह समझना होगा। हमारे देश में पशु पालन, खेतीबाड़ी का हिस्सा है और लगभग दो तिहाई ग्रामीण आबादी इससे जुड़ी है। इसमें गाय भैंस जैसे दुधारू पशुओं के अतिरिक्त भेड़, बकरी, मुर्गी, सुअर से लेकर मधुमक्खी पालन तक के व्यवसाय आते हैं। अनुमान के मुताबिक इन सभी पशुओं की मिलाजुली संख्या तीन सौ करोड़ के लगभग होगी। 

प्रश्न शाकाहारी या मांसाहारी होने का नहीं है बल्कि इस सोच का है कि कोई कैसे इतने विशाल पैमाने पर चल रहे ग्रामीण और कुटीर उद्योग को समाप्त करने के बारे में सोच सकता है। खतरा इस बात का है कि यदि वीगन लोग आंदोलन करने लगें और पशुओं से मिलने वाली सभी चीजों पर प्रतिबंध लगाने की मांग करें तो क्या उस स्थिति से निपटने के लिए हम तैयार हैं? पहले ही गौरक्षा आंदोलन नाक में दम किए है। 

असल में यह प्रश्न पशुओं के ऊपर होने वाले अत्याचार या उनके अधिकारों की रक्षा या वकालत करने का नहीं है बल्कि इसे लेकर बढ़ रही सोच का है। आप व्यक्तिगत रूप से अपने खानपान का निर्धारण कर सकते हैं लेकिन इसकी आड़ में कोई दूसरा एजैंडा चलाना और अफरा-तफरी का माहौल पैदा करना घातक होगा। असल में वीगन सोच की शुरूआत पशुओं पर होने वाले अत्याचार और उनकी हत्या रोकने से हुई थी। यहां तक तो ठीक है क्योंकि निर्दयता को कभी स्वीकार नहीं किया गया चाहे वह मनुष्य के साथ हो या मूक पशु के साथ। परंतु यदि इसे खानपान से जोड़ दिया जाता है तो यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन कहा जाएगा। वीगन यह कहते हैं कि दूध और उससे बने पदार्थ जैसे दही, पनीर, खोया, घी आदि का सेवन नहीं करेंगे पर खाद्य तेलों से बने पदार्थों और इसके साथ ही पेड़ पौधों से प्राप्त वस्तुओं का सेवन कर सकते हैं। 

यहां तर्क यह दिया जा सकता है कि वनस्पतियां और पेड़-पौधों की प्रजातियां भी तो जीवन का पर्याय हैं। बीज, अंकुर, पुष्प, फल और फिर पतझड़ यह सब क्या बताते हैं कि इनमें भी जीवन है। तो फिर वीगन को इनका भी सेवन नहीं करना चाहिए। अगर यह हुआ तब तो वे भूखे ही रहेंगे। इसलिए वेगन होना केवल एक भ्रम या मिथक है जो जितना जल्दी टूट जाए उतना ही बेहतर है। अभी हमारे यहां लगभग चौथाई आबादी शाकाहारी है और उनके लगभग एक तिहाई वीगन हैं, इसलिए कह सकते हैं कि चिंता की बात नहीं लेकिन सामाजिक तानाबाना तोडऩे के लिए एक चिंगारी ही काफी है, इसलिए सावधानी आवश्यक है।-पूरन चंद सरीन
 


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