डेरा बाबा नानक से ढाका तक का ‘सफर’

punjabkesari.in Thursday, Nov 14, 2019 - 03:39 AM (IST)

9 नवम्बर को प्रात: 9 बजे मैं भारत के उत्तर पश्चिमी छोर में डेरा बाबा नानक के आव्रजन टर्मिनल पर पहुंचा। यहां से मुझे कॉरीडोर के रास्ते पाकिस्तान में गुरुद्वारा श्री करतारपुर साहिब में माथा टेकने जाना था। पंजाबियों के दिलों तथा दिमाग में करतारपुर साहिब एक अहम स्थान रखता है। चाहे फिर वह सिख हों या फिर गैर सिख। सीरिल रैडक्लिफ ने भारतीय उपमहाद्वीप में भारत-पाकिस्तान को बांटने वाली लकीर खींच दी जिसने श्री करतारपुर साहिब को पाकिस्तान में डाल दिया। दोनों देशों में खटास बढ़ गई और दोनों के मनों में यह बात घर कर गई। 

पंजाबियों विशेष तौर पर सिखों का मानना था कि उन्हें पाकिस्तान में पडऩे वाले धार्मिक स्थलों के ‘खुले दीदार’ करने का मौके मिले। उन स्थलों का बिना किसी पाबंदी के पूजा का अधिकार मिले। वास्तव में यह अरदास कबूल हुई। लम्बे इंतजार के बाद हम भारतीय सरहद में ‘नो मैन्स लैंड’ के 30 मीटर के दायरे को पार कर पाकिस्तानी सीमा में दाखिल हुए। वहां पर पाकिस्तान विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता मोहम्मद फैजल ने हमारा स्वागत किया जिनको मैं पहले से जानता था। 

आव्रजन तथा कस्टम को क्लीयर करने के बाद मैं फिर बस में बैठा जो गुरुद्वारे के लिए रवाना हो गई। यह यात्रा अविस्मरणीय थी। तेज हवाओं के झोंकों ने सूर्य की गर्मी को मद्धम कर दिया। कॉरीडोर सड़क के दोनों ओर कंटीली तार लगी थी। जहां पर सुरक्षा अधिकारियों को हम स्पष्ट तौर पर देख सकते थे। पाकिस्तान रेंजर घोड़ों पर सवार होकर पैट्रोङ्क्षलग कर रहे थे। कुछ मिट्टी के घर और उनकी छतें दूर से दिखाई दे रही थीं जो यह दर्शाती थीं कि कैसे दक्षिण एशिया के कुछ हिस्से गरीबी से ग्रस्त हैं। 

क्या करतारपुर साहिब एक नए अध्याय को लिख पाएगा। क्या यह दिमागी और शारीरिक बंधनों को तोड़ पाएगा। यह सोचते हुए मैंने जल्द ही गुरुद्वारा के द्वार को देखा। बस रुकते ही मैंने देखा कि दोपहर में सूर्य की किरणें संगमरमर पर पड़ रही थीं। बस के वहां पहुंचने से पहले कुछ भ्रम पैदा हुए। माथा टेकने के बाद हम खुले आंगन में पहुंचे जहां पर श्रद्धालुओं का एक विशाल हजूम उपस्थित था। इसी दौरान मुझे भारतीय प्रैस संवाददाता ने टैलीविजन के लिए बोलने हेतु कहा। मेरे कांग्रेस के 12वीं बार प्रवक्ता बनने के बाद उन्होंने मुझे घेर लिया जिनमें से कुछेक मेरे दोस्त भी थे। हम श्रद्धालुओं में मिल गए। यहां पर देश-विदेश से आए श्रद्धालु दिखाई दे रहे थे। कुछेक पाकिस्तानी लोगों से मैंने बातचीत की जो बड़ी उत्सुकता से मेरे अंदर दौड़ रहे भारतीय खून को पहचानने की कोशिश कर रहे थे। कुछेक ने मेरे संग सैल्फी भी ली और कइयों ने तो मुझे छू कर यह देखना चाहा कि मैं वास्तव में इंसान ही हूं। 

गुरु के आगे नतमस्तक होने से बड़ा कुछ भी नहीं 
गुरु के आगे नतमस्तक होने से बड़ा कुछ भी नहीं था। एक घंटे के बाद हमने वापस जाने की ठानी, पाकिस्तान की ओर से एक वाहन का इंतजाम भी किया गया था, जो हमें टर्मिनल तक ले जा सके। जैसे ही हम द्वार के निकट पहुंचे, 20 वर्षीय ऊंची कद-काठी का पाकिस्तानी सेना का एक अधिकारी जो मेरा अंगरक्षक भी था, मुझसे बोला सर क्या हम भी कभी सीमा पार जा सकेंगे। भोलेपन से किया गया यह सवाल उसके चेहरे से झलक रहा था। एक दर्द भरे लहजे से निकली उसकी आवाज को मैं पहचान पाया और बोला ‘इंशा अल्लाह’। द्वार पर मैंने हाथ मिलाया जहां पर बी.एस.एफ. के अधिकारियों ने मुझे शुभकामनाएं दीं। इससे मुझे सुकून मिला। लौटने वाले हम लोग पहले थे। पूरी यात्रा ने दो घंटे लिए। 

बंगलादेश की तंग गलियां
तीन दिनों के बाद मैंने अपने आपको भारत के पूर्वी छोर पर पाया। अब मैं बंगलादेश की राजधानी ढाका में एक वैश्विक संवाद के लिए पहुंचा था। वहां की तंग गलियों में से ट्रैफिक शायद ही निकल सकता था। प्रदूषण के मारे गले बंद हो रहे थे, जोर से बजने वाले हार्न के कारण कान बंद हो रहे थे। ट्रैफिक लाइट्स भी कार्य नहीं कर रही थीं। सटी हुई इमारतों के बीच में से प्रत्येक वाहन दूसरे से आगे निकलने की होड़ में था। भारत के प्रत्येक शहर की भी ऐसी व्यवस्था या फिर यह कह लें कि उपमहाद्वीप में भीड़भाड़ दिखाई देती है और इंतजाम न के बराबर हैं। 

हमें भी यूरोपीय माडल का अनुसरण करना होगा
भारतीय उपमहाद्वीप में ज्यादातर लोग 19वीं सदी में जीते हैं। 21वीं सदी एशियाई सदी कहलाएगी। मगर इसके लिए नेताओं तथा नीतियां बनाने वालों को अपना जज्बा दिखाना होगा। यदि दक्षिण एशिया को पावर हाऊस बनना है तो यही बात एशियाई सदी को आगे बढ़ाएगी। इसे जरूरत है पदार्थों, लोगों, विचारों तथा संस्कृति को ईरान की पश्चिमी सीमा से लेकर थाईलैंड की पूर्वी सीमा तक आगे बढ़ाने की। 

इसे जरूरत है मूलभूत ढांचे तथा एक ऊपर ले जाने वाली सोच की। हम यूरोप की तरफ देखें जिसने पिछले 100 सालों में दो विश्व युद्ध लड़े। उन्होंने हत्याओं तथा एक-दूसरे को लूटने का दौर देखा तभी तो वे कल को देख सके हैं। 1945 में यूरोप तबाह हुआ मगर उसने अपने आपको इस तरह स्थापित किया कि अब वह एकत्रित, खुशहाल तथा शक्तिशाली दिखता है। भारत को भी ऐसे ही माडल का अनुसरण करना होगा और दीवारों तथा सरहदों को अब गिराना होगा। हमें ईमानदारी से दक्षिण एशियाई यूनियन का गठन करना होगा। यह हमारी अगली पीढ़ी की कामना होगी जो हमारे बाद आएगी।-मनीष तिवारी


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