आज गरीब-समर्थक एजैंडे की जगह ‘चालाकी भरे’ नारों ने ले ली है

punjabkesari.in Sunday, Nov 26, 2017 - 01:43 AM (IST)

19 नवम्बर 2017 का दिन देश भर में किसी प्रकार के समारोहों के बिना ही गुजर गया। यह हमारे इतिहास बोध पर एक शर्मनाक टिप्पणी है और साथ ही सत्ता तंत्र की निष्पक्षता पर भी एक मौन अट्टहास है। यह सरासर शर्म की बात थी। 

उस दिन इन्दिरा गांधी की 100वीं जयंती थी, वह इंदिरा जो कि देश की तीसरी और छठी प्रधानमंत्री रही थीं। बहुत से लोग उन्हें प्यार करते थे और उन्हें नफरत करने वालों की संख्या भी कम नहीं थी लेकिन वह जब तक जिंदा रहीं, कोई भी कभी उनकी अनदेखी नहीं कर पाया। प्रत्येक प्रधानमंत्री की सफलताएं और विफलताएं हैं। इन सफलताओं और विफलताओं को संबंधित समय और स्थान की पृष्ठभूमि में ही आंका जाना चाहिए और साथ यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि उस समय देश और इसके प्रधानमंत्री को कौन-कौन-सी चुनौतियां दरपेश थीं। जब इंदिरा गांधी 1966 में प्रधानमंत्री बनीं तो वस्तु स्थिति यूं थी : 

-1962 और 1965 के दो युद्धों ने देश के संसाधन निचोड़ लिए थे। 
-खाद्यान्नों की भारी किल्लत थी और देश पी.एल.-480 के अंतर्गत विदेशी खाद्य सहायता पर खतरनाक हद तक निर्भर था। 
-कांग्रेस पार्टी का संगठन बिल्कुल कमजोर हो चुका था और अगले 24 महीनों दौरान 8 राज्यों में इसे पराजय का मुंह देखना था। 

गरीबों का समर्थन हासिल करना 
1967 के चुनाव के असंतोषजनक परिणामों के बाद कांग्रेस के समस्त नेताओं में से केवल इंदिरा गांधी ही ऐसी नेता थीं जिन्होंने सही रूप में यह आंका था कि गरीब लोग कांग्रेस से दूर हट गए हैं। कांग्रेस को फिर से गरीब लोगों को अपने पाले में लाना होगा। इन्दिरा गांधी ने कांग्रेस की उस समय की प्रचलित विचारधारा-समाजवाद से पूरी तरह मेल खाता ठोस एजैंडा आगे बढ़ा कर भविष्य का मार्ग प्रशस्त किया। 

इन्दिरा गांधी ने कांग्रेस कार्यसमिति को एक 10 सूत्रीय कार्यक्रम भेजा। इसके कुछ बिंदू आज की उदारवादी बाजार अर्थव्यवस्था से मेल नहीं खाते। फिर भी मेरा मानना है कि उस समय यह कार्यक्रम आर्थिक और राजनीतिक दोनों ही दृष्टियों से न्यायोचित था। कुछ बिंदू-जैसे कि न्यूनतम जरूरतों का प्रावधान, ग्रामीण इलाकों के कार्यक्रम तथा भूमि सुधार आज भी प्रासंगिक हैं। उस समय गरीब लोग राजनीतिक पार्टियों की चेतना के दायरे के बाहर ही खड़े थे लेकिन इन्दिरा गांधी ने उन्हें अपने एजैंडे का केंद्र बिन्दू बनाया। बाद में 20 सूत्रीय कार्यक्रम ने इन्दिरा ने गरीब लोगों के हितों की बहुत सटीक तरीके से चिंता की, जिसमें अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए स्वच्छ पेयजल, स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा, सामाजिक न्याय; महिलाओं के लिए अवसर तथा पर्यावरणीय सुरक्षा जैसे मुद्दे भी शामिल थे। बेशक अलग-अलग मौकों पर बाद में भी विशिष्ट बिंदुओं पर मुद्दों को लेकर गरीबी उन्मूलन के लिए कार्यक्रम बनते रहे हैं, फिर भी सभी के पीछे 20 सूत्रीय कार्यक्रम की भावना ही प्रेरक का काम करती थी। 

गरीब फिर हाशिए पर धकेले
गरीबी के विरुद्ध इन्दिरा गांधी ने जिस तरह संगठित हल्ला बोला उससे बहुत लाभ मिले। 1984 तक गरीबी में लगभग 10 प्रतिशत की गिरावट आ गई थी और कुल आबादी में गरीबों का अनुपात 44 प्रतिशत रह गया था। गरीब लोग इन्दिरा गांधी को अपने संरक्षक एवं तारणहार के रूप में देखते थे और आज भी देखते हैं। एक के बाद एक कांग्रेस सरकारों और यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार ने भी गरीबों को अपने एजैंडे के केंद्र में रखा था। दुख की बात है अब स्थिति वैसी नहीं रही। 

केंद्र सरकार के साथ-साथ कई राज्य सरकारों ने भी गरीबों को फिर से हाशिए पर धकेल दिया है। कुल सरकारी खर्च में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले खर्च का अनुपात  घटा दिया गया है। महात्मा गांधी नरेगा की ‘‘यू.पी.ए. सरकार की गलतियों का शिलालेख’’ कह कर ङ्क्षनदा की गई। 2014-15 तथा 2015-16 में कृषि उत्पादों पर दिए जाने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्यों में बिल्कुल नाममात्र की वृद्धि की गई जिससे कृषक समुदाय की दुख-तकलीफों में वृद्धि हो गई। छोटे और मंझौले उद्यमों को बैंक ऋण से इंकार किया जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि गत तीन वर्षों में रोजगार सृजन के लिए कोई उल्लेखनीय प्रयास नहीं किए गए जबकि हर वर्ष एक करोड़ 20 लाख नए युवा रोजगार बाजार में प्रवेश करते हैं।

गरीबों से धोखाधड़ी यूं हुई
गरीब समर्थक एजैंडे के स्थान पर चालाकी भरे नारे आ गए हैं। हमारे शहर मुश्किल से ही इंसानी जीवन के योग्य हैं। फिर भी हम कथित ‘स्मार्ट सिटीज’ पर भारी धनराशियां खर्च करेंगे, हालांकि यह कार्यक्रम चुने हुए शहरों के कुल क्षेत्र के बहुत छोटे से हिस्से को ही प्रभावित करेगा। हम कर्ज पर लिए हुए एक लाख करोड़ रुपए को बुलेट ट्रेन पर खर्च करेंगे जबकि गरीब लोगों द्वारा प्रयुक्त अद्र्धशहरी क्षेत्रों की रेलगाडिय़ों, फुट ब्रिजों के साथ-साथ देश के बहुत बड़े हिस्से में रेलवे का आधारभूत ढांचा नकारा हो चुका है। 

‘कैशलैस’ अर्थव्यवस्था के संदिग्ध लक्ष्य का पीछा करते हुए हमने 86 प्रतिशत करंसी को नोटबंदी से नकारा कर दिया जबकि करोड़ों लोगों पर टूटे दुख और गरीबी के पहाड़ के बोझ की हिकारत से अनदेखी कर दी गई। सरकार ‘स्टार्ट-अप इंडिया’ एवं ‘स्टैंड-अप इंडिया’ के लिए पैसा उपलब्ध करवाएगी लेकिन उन हजारों छोटे कारोबारों की ओर ध्यान नहीं देगी जो बंद हो चुके हैं और अब अपने साथ हजारों रोजगारों को भी ले डूबे हैं। सरकार दीवालिया कानून को तो सख्ती से कार्यान्वित करेगी लेकिन राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम को कूड़े के ढेर पर फैंक देगी। स्वस्थ जीवनशैली हेतु योग को बढ़ावा देने के लिए तो करोड़ों रुपए खर्च किए जाएंगे लेकिन वृद्धों, विधवाओं तथा बेसहारा लोगों को प्रतिमाह हजार रुपए पैंशन से इंकार कर दिया जाएगा और उन्हें मरने दिया जाएगा।(अकेले तमिलनाडु में ही पैंशन के लिए आए हुए 27,06,758 आवेदनों को रद्दी की टोकरी में फैंक दिया गया है क्योंकि राज्य सरकार के पास कोई पैसा ही नहीं।)

मूडीज, प्यू रिसर्च एवं विश्व बैंक की नजरों में परवान चढऩे के लिए तो हर प्रयास किया जा रहा है लेकिन इन प्रयासों में क्या गरीबों के लिए कोई जगह है? ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनैस’ की सूची में भारत का 100वां स्थान बहुत संतोष की बात है लेकिन भूख की सूची में हमारा 100वां स्थान उतनी ही शर्म की बात भी है। लोगों को सदैव इस बात पर पहरा देना चाहिए कि कोई भी सरकार भारत की उस 22 प्रतिशत आबादी को न भुला पाए जो अभी भी गरीब है। इन लोगों को भी सम्मान की जिंदगी जीने का अधिकार है और यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे इन्दिरा गांधी ने समझा, स्वीकार किया और जीवन भर इसके पक्ष में डटी रहीं।-पी. चिदम्बरम


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