मुलजिमों को हथकड़ी न लगाना कहां तक प्रासंगिक है

punjabkesari.in Sunday, May 23, 2021 - 05:51 AM (IST)

पुलिसमैन को देखते ही आम जनमानस के मानसिक पटल पर कोई अच्छा संदेश नहीं जाता है तथा उसे बुराई का पर्याय मान लिया जाता है। अंग्रेजों के समय से मिली विरासत तथा उसी समय की भारतीय दंड संहिता (1860) पुलिस की छवि को धूमिल करती आ रही है। कोई अपराधी जब पुलिस की अभिरक्षा से भागने में सफल हो जाता है तो पुलिस को कोढ़ी (अपंग) की संज्ञा दे दी जाती है तथा जब किसी संगीनअपराधी को हथकड़ी लगा कर न्यायालय तक या फिर इधर से उधर अन्वेषण के लिए ले जाया जाता है तब न्यायालय व मानवाधिकार संस्थाएं उसे कलंकी की संज्ञा देने लगते हैं तथा संविधान की धाराओं (धारा 14,19,21 व 22) के उल्लंघन का दोषी मान लेते हैं। 

भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (1973) की धारा 46 के अंतर्गत मुलजिमों को हिरासत में लेने का अधिकार है तथा महिला अपराधियों के अतिरिक्त यदि कोई मुलजिम भागने की या हिंसा करने की कोशिश करता है तो पुलिस उसे अभिरक्षा में रखने के लिए उचित बल का प्रयोग कर सकती है।

इसी तरह पंजाब पुलिस रूल्ज (1934) जोकि हरियाणा व हिमाचल में भी लागू हैं, के चैप्टर 26 की धारा 26, 19, 26, 21 व 26, 22 के अंतर्गत ऐसे मुलजिमों को हथकड़ी लगाने का प्रावधान है जो किसी संगीन अपराध (जिनकी सजा 3 वर्ष से अधिक हो) में संलिप्त हो या फिर जिनका हिंसक या भागने का अंदेशा हो। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने इन नियमों को भी एक केस में (सिटीजन ऑफ डैमोक्रेसी बनाम स्टेट ऑफ असम 1995) के निर्णय में यह कह कर निरस्त कर दिया कि यह सब धाराएं मनमानी व गैर-संवैधानिक हैं तथा कि मुलजिमों को हथकड़ी लगाना अमानवीय है। 

इससे पहले भी वर्ष 1978 में सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन (1978) व वर्ष 1992 में अंजनी कुमार सिन्हा बनाम स्टेट ऑफ बिहार में भी ऐसा ही निर्णय दिया था कि आमतौर पर मुलजिमों को हथकड़ी नहीं लगाई जा सकती तथा केवल गंभीर प्रकृति के मुकद्दमों में, उनके हिंसक होने या भाग जाने की प्रत्याशा में ही हथकड़ी लगाई जा सकती है मगर उसके लिए न्यायालय से पूर्व इजाजत लेना आवश्यक होगा या फिर यहां इजाजत मिलने में विल ब हो तब उन हालातों में रोजनामचे में उसकी विस्तृत जानकारी देकर ही हथकड़ी लगानी होगी। मगर अब प्रश्र उठता है कि यदि कोई मुलजिम यात्रा के समय चालाकी से या फिर हिंसक होकर भागने की कोशिश करता है तब पुलिस वाला क्या करे। 

अब न तो वह पूर्व इजाजत ले सकता है और न ही रोजनामचे में इसका पूर्व इंद्राज कर सकता है, तब ऐसे में वह पुलिस कर्मी एक बहुत बड़ी दुविधा वाली स्थिति में होगा। अगर हम मुलजिमों की संगीन अपराधों से संलिप्तता की बात करें तो यह स्पष्ट है कि हत्या, रेप, मादक पदार्थों व बड़े-बड़े फ्रॉड (धोखाधड़ी) के मुकद्दमों में मुलजिमों को बड़ी मेहनत के बाद ही गिर तार किया होता है तथा ऐसे संगीन अपराधों में संलिप्त अपराधी हमेशा पुलिस की अभिरक्षा से भागने की फिराक में होते हैं तथा ऐसे अपराधियों को हथकड़ी लगाने का तो नियमों में ही प्रावधान होना चाहिए।

बात यहीं पर ही समाप्त नहीं हो जाती, यदिकोई मुलजिम पुलिस की हिरासत से भाग जाता है तो संबंधित पुलिसकर्मी के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता (1860) की धारा 223 के अंतर्गत मुकद्दमा दर्ज कर दिया जाता है जिसमें दो वर्ष तक की सजा का प्रावधान है। 

जरा सोचिए कि कितनी विड बना है एक कर्मठ, निष्ठावान व मुस्तैद जवान जोकि न जाने कितनी मुश्किल से पुलिस में भर्ती हुआ होगा तथा न जाने उसकी अपने व विभाग के प्रति कितनी निष्ठाएं व आशाएं थीं, की मानसिक प्रवृत्ति पर क्या गुजरती होगी। उसको विभाग भी तुरन्त निलंबित कर देता है तथा विभागीय जांच के आदेश दे दिए जाते हैं। कोर्ट से पुलिसकर्मी मुकद्दमों में भले ही छूट जाए मगर विभाग तो उसे सजा देकर ही छोड़ता है। ऐसे में पुलिसकर्मी का तनावग्रस्त होना स्वाभाविक ही है तथा उसका व्यवहार भी असामान्य हो जाएगा जिसके फलस्वरूप वह अपने कार्य का निष्पादन सही ढंग से नहीं कर पाएगा। 

हथकड़ी लगाने के लिए भी न्यायालयों की पूर्व आज्ञा लेना आवश्यक है। सरकार को चाहिए कि वह पुलिस के प्रति अपने नजरिए को बदले तथा कम से कम डी.एस.पी. या जिला अधीक्षक जिसने कि जिले में अपराध को नियंत्रण में रखना है को मुलजिमों को हथकड़ी लगाने या न लगाने के अधिकार व संगीन मुकद्दमों में विशेषत: आतंकवाद से संबंधित केसों में गवाहों के बयानों को लिखने व उनकी कानूनी मान्यता के अधिकार को स्वीकृति प्रदान कर देनी चाहिए अन्यथा गवाह अपने बयानों से मुकरते रहेंगे तथा मुलजिम सजा मुक्त होते रहेंगे।-आर.एम.शर्मा(पूर्व डी.आई.डी. हि.प्रा.)


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