मदरसों में शिक्षा का सच

punjabkesari.in Thursday, Mar 28, 2024 - 05:14 AM (IST)

गत 22 मार्च को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने ‘उत्तरप्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम’ को असंवैधानिक ठहरा दिया। इसे 2004 में समाजवादी पार्टी की तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार ने लागू किया था। अदालत ने इस अधिनियम को संविधान-विरोधी घोषित किया है और इसे सैकुलरवाद का उल्लंघन माना है। न्यायालय ने याचिकाकत्र्ता के तर्क को बरकरार रखते हुए ‘मदरसा अधिनियम की योजना और उद्देश्य केवल इस्लाम में शिक्षा, निर्देश और दर्शन को बढ़ावा देना’ वाला बताया है। कई मुस्लिम संगठनों ने इस निर्णय को शीर्ष अदालत में चुनौती देने की बात कही है। उनका कहना है कि इससे मुसलमान छात्र मुख्यधारा से दूर हो जाएंगे। 

एक रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश में पंजीकृत 13 हजार से अधिक मदरसों में पढऩे वाले छात्रों की संख्या लगभग 16 लाख है। कुल 33,689 मदरसा शिक्षकों में साढ़े नौ हजार सरकार द्वारा वित्तपोषित हैं। मदरसा शिक्षा प्रणाली मूलत: मजहब आधारित है। यहां पढऩे वाले बच्चे लगभग शत-प्रतिशत, तो शिक्षक कुछ अपवादों को छोड़कर मुस्लिम ही होते हैं। संक्षेप में कहें, तो इसका पूरा ‘ईको-सिस्टम’ इस्लामी और उसी पहचान तक सीमित होता है। 

इसलिए यह स्वाभाविक है कि यहां छात्रों को मिलने वाली शिक्षा का आधार मजहबी और उनका देश के अन्य मतावलंबी छात्रों के साथ मेल-जोल भी न के बराबर होगा। यदि इस वर्ग के छात्रों का गैर-इस्लामी बच्चों से संपर्क नहीं होगा और केवल अपने ही समुदाय के लोगों के बीच में रहेंगे, तो उनका दृष्टिकोण, विचार, वेशभूषा, भाषा, आकांक्षाएं और सांस्कृतिक पहचान के बारे में उनकी समझ न केवल शेष समाज से अलग होंगी, अपितु उनके सपने और महत्वाकांक्षा भी अलग होंगे। 

जिस समय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश मदरसा कानून को रद्द करने का फैसला दिया, ठीक उसी दिन (22 मार्च) हजारों किलोमीटर दूर रूस की राजधानी मॉस्को भीषण आतंकवादी हमला झेल रही थी। क्रॉकस सिटी हॉल पर हुए आतंकी हमले में 140 से अधिक निरपराध मारे गए। अफगानिस्तान स्थित उस सुन्नी जिहादी समूह इस्लामिक स्टेट-खोरासन (आई.एस.-के) ने इस हमले की जिम्मेदारी ली है, जिसकी या उस जैसे अन्य जिहादी संगठनों की वैचारिक घुटटी को मदरसा शिक्षा पद्धति से प्रोत्साहन मिलता है। तालिबान का जन्म इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। समाज का एक वर्ग, जो जिहादी अवधारणा से सरसरी तौर पर अवगत है, उसका अक्सर तर्क होता है कि गणित, अंग्रेजी, विज्ञान और कम्प्यूटर की शिक्षा देकर मदरसा छात्रों का दृष्टिकोण आधुनिक और वैज्ञानिक बनाया और उन्हें मजहबी कट्टरता के विष से बचाया जा सकता है। 

सच तो यह है कि गणित, विज्ञान और कम्प्यूटर रूपी आधुनिक विषय केवल एक माध्यम है। इनका उपयोग/दुरुपयोग कैसे किया जा सकता है, यह सब उपयोगकत्र्ता के चिंतन पर निर्भर करता है। यदि वाकई ऐसा होता, तो भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई.आई.टी.) गुवाहाटी में बायोसाइंस विषय में चौथे वर्ष का छात्र तौसीफ अली फारूकी आतंकवादी संगठन आई.एस.आई.एस. के प्रति निष्ठा रखने के मामले में 24 मार्च को गिरफ्तार क्यों हुआ? तौसीफ ने सोशल मीडिया पर लिखा था, ‘‘मेरे पश्चाताप के बाद मेरा पहला कदम इस्लामी स्टेट को अपना वचन देने के लिए मुस्लिमों की ओर हिजरत करना है, जिसे आईएस-खोरासन के रूप में जाना जाता है। 

यह मुस्लिमीन और काफिरों के बीच एक लड़ाई है।’’ भारत सहित शेष दुनिया में तौसीफ जैसे असंख्य उदाहरण हैं। सितंबर 2001 में अमरीका पर 9/11 आतंकवादी हमला करने वाले जिहादी आधुनिक-नवीन विषयों में पारंगत थे और हवाई जहाज तक उड़ाना जानते थे। कटु सत्य तो यह है कि मजहबी कट्टरता का विज्ञान, अंग्रेजी, गणित और कम्प्यूटर आदि के साथ सम्मिलन मध्यकालीन जिहादी मानसिकता को आधुनिक यंत्र-तंत्र के साथ न केवल सशक्त बनाना है, अपितु इसके अधिक विकराल होने की भी संभावना बनी रहेगी। 

क्या कारण है कि मुस्लिमों का विश्व के अधिकांश गैर-इस्लामी समाज में शांतिपूर्ण ‘सह-अस्तित्व’ के साथ रहना लगभग असंभव है? इसका उत्तर इस्लामी अनुयायियों के एक बड़े हिस्से का ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरित होना होता है। इस मानवता विरोधी चिंतन का उन्मूलन तभी संभव है, जब मुस्लिम समाज के भीतर से ही इसके खिलाफ आवाज उठे, जो यह कह सके कि मजहबी ग्रंथों में शामिल होने के बाद भी यह मान्यताएं अस्वीकार्य हैं क्योंकि वह कालबाह्य हो चुकी हैं और इनका आधुनिक विश्व में कोई स्थान नहीं है। कल्पना कीजिए एक तरफ समाज सती-प्रथा, दहेज-प्रथा और अस्पृश्यता जैसे अभिशापों से लड़ रहा हो, वहीं अधिकांश राजकीय वित्तपोषित शिक्षण संस्थाएं बच्चों को प्राचीन ग्रंथों को उद्धृत करके यह बताने का प्रयास करें कि यह सब मान्यताएं शास्त्रानुकूल हैं तब क्या इन सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध सफलता प्राप्त कर सकते हैं? 

एक व्यक्ति का समरस ङ्क्षचतन और आचरण, आदर्श समाज की कल्पना की पहली सीढ़ी है, जिसमें परिवार और बाल्यकाल में मिले संस्कार की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। यदि हम अपने समाज को समतावादी और समरसतापूर्ण बनाना चाहते हैं, जहां सभी लोग समान हों,  उनका उनकी आस्था, परंपरा और मान्यताओं का सम्मान हो और उन्हें जीवन जीने की स्वतंत्रता प्राप्त हो तो हमें उन शाश्वत जीवन मूल्यों को अंगीकार करना होगा, जिसकी ‘डिफॉल्ट सैटिंग’ बहुलतावाद और पंथनिरपेक्षता है। भारत विविधताओं का देश है और यहां नागरिकों की पहचान बहुआयामी हो सकती है। परंतु कुछ मामलों में देश के सभी नागरिकों की पहचान सांझी होनी चाहिए। आवश्यकता इस बात की है कि सभी बच्चे समरूप विद्यालयों से शिक्षा प्राप्त करें, जिससे उनमें ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ और ‘एकम् सत् विप्रा बहुधा वदंति’ जैसे सांझे मूल्य अंकुरित हो सके। 

किसी भी मजहब या वैचारिक अधिष्ठान को यह अधिकार नहीं है कि वह लोकतांत्रिक, बहुलतावाद और सैकुलरवाद जैसे मूल्यों का अपनी मजहब या विचारधारा से प्रेरित होकर उनका क्षरण करें। इसलिए भारत में मदरसे राज्याश्रय से मुक्त होकर मुस्लिम समाज के निजी संसाधनों द्वारा संचालित हों और उनकी भूमिका केवल बच्चों को दीनी तालीम देने तक सीमित होनी चाहिए। इस पृष्ठभूमि में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय स्वागत योग्य है।-बलबीर पुंज 
 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News