फसल के दाम का ‘सच’ और किसानों की त्रासदी

punjabkesari.in Thursday, Mar 22, 2018 - 03:31 AM (IST)

कल रात एक छोटा-सा वीडियो देखा। इस वीडियो में महाराष्ट्र के जालना जिले का एक किसान अपने खेत में लगी गोभी की फसल को तहस-नहस कर रहा है। किसान का नाम है प्रेम सिंह लखीराम चव्हाण। 

कहानी यह है कि खरीफ में कपास की फसल बर्बाद होने के बाद प्रेम सिंह ने अपने खेत में टमाटर और गोभी लगाई लेकिन जब 4 क्विंटल टमाटर बाजार में बेचने गया तो मिले सिर्फ  442 रुपए और बाजार ले जाने का खर्च हुआ 600 रुपए। फसल उगाने का 25000 रुपए का खर्चा अलग। इस हताशा और क्षोभ में वह फावड़ा उठाता है और खेत में खड़ी गोभी की फसल को भी नष्ट कर देता है। 

जालना के इस किसान की कहानी पूरे देश के किसान की दोहरी त्रासदी का एक नमूना भर है। सूखे, अतिवृष्टि या बीमारी के चलते अगर फसल खराब हो गई तो किसान मारा गया और अगर फसल अच्छी हुई तो भाव नहीं मिलता तब भी किसान मारा गया। इस साल बजट के बाद प्रधानमंत्री ने किसानों को वायदा किया था कि सरकार उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) दिलाने की विशेष व्यवस्था करेगी। पिछले 2 महीने से प्रधानमंत्री अपने हर भाषण में किसान को उनकी फसल का उचित दाम दिलाने का दावा कर रहे हैं। 

सरकार के इस दावे की जांच करने के लिए ‘‘एम.एस.पी. सत्याग्रह’’ के तहत पिछले 10 दिनों से स्वराज अभियान के जय किसान आंदोलन और अन्य किसान संगठनों के साथियों सहित मैं अलग-अलग राज्यों की मंडियों में गया। हर मंडी में बाजार भाव की जांच की, किसानों, व्यापारियों और सरकारी अफसरों से बात की और सरकारी खरीद को देखा। शुरूआत कर्नाटक की यादगीर मंडी से हुई, फिर आंध्र प्रदेश में अदोनी और तेलंगाना में सूर्यपेट, फिर राजस्थान में श्रीगंगानगर और रायसिंहनगर तथा हरियाणा में रेवाड़ी मंडी में जांच की। इस बीच देश के बाकी इलाकों की मंडियों की खबर भी लेता रहा। 

हालांकि अभी तो रबी की खरीद की शुरूआत ही है लेकिन अब तक हमें कोई एक भी मंडी ऐसी नहीं मिली जहां सभी किसानों की पूरी फसल सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य पर या इससे अधिक पर खरीदी गई हो। अब तक पिछले खरीफ मौसम की तीन फसलें यानी अरहर (तूर दाल), मूंगफली और कपास बिक रही थीं। अब तक सबसे बेहतर स्थिति कर्नाटक में तूर दाल की दिखाई दी, जहां लगभग आधी फसल राज्य सरकार द्वारा घोषित विशेष दाम यानी 6000 रुपए पर खरीदी गई। वहां भी किसानों की शिकायत थी कि सरकारी खरीद जल्द ही बंद कर दी गई और उन्हें खुले बाजार में 4000 रुपए से भी कम दाम पर फसल बेचनी पड़ी। मूंगफली की खरीद के बारे में भी कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के किसानों की शिकायत थी कि थोड़ी-सी खरीद के बाद सरकार ने अपनी खरीद बंद कर दी। समर्थन मूल्य 4450 रुपए था, लेकिन किसान को यह 3600 से 3700 रुपए के बीच में बेचनी पड़ी। कहने को कपास का दाम एम.एस.पी. से अधिक चल रहा है लेकिन असमय बारिश और गुलाबी बोलवर्म नामक कीड़े के कारण अधिकांश फसल एम.एस.पी. पर बिकने लायक ही नहीं थी। 

रबी मौसम की फसलों में अभी सरसों, चना और जौ बाजार में पहुंचना शुरू हुआ है। गेहूं और मसूर में अभी देर है। इस बार चने की शानदार फसल हुई है लेकिन इसका और बड़े पैमाने पर विदेशों से हुए आयात का नतीजा यह है कि किसान का चना सरकार द्वारा घोषित समर्थन मूल्य 4400 रुपए से लगभग 1000 रुपए कम पर बिक रहा है। जौ की फसल राजस्थान में तैयार खड़ी है और सरकारी दाम 1410 रुपए से कम से कम 200 नीचे यानी 1200 रुपए या उससे भी कम पर बिक रही है। सरसों में इस बार दाम में उछाल आने की अपेक्षा थी लेकिन अब तक यह फसल सरकारी समर्थन मूल्य 4000 रुपए के मुकाबले 3500 से 3700 रुपए के बीच बिक रही है यानी अब तक इस मौसम में एक भी फसल में किसान को प्रधानमंत्री के वायदे के अनुरूप भाव नहीं मिला है। 

जब बाजार भाव सरकारी समर्थन मूल्य से कम हो तो सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह अपनी गारंटी को पूरा करे और बाजार में खरीद शुरू करे लेकिन जमीन पर यह सफल होता दिखाई नहीं पड़ता है। जौ की फसल के मामले में  राजस्थान सरकार ने खरीद करने से इंकार कर दिया है। श्रीगंगानगर में इस सवाल पर किसानों ने बड़ा आंदोलन शुरू कर दिया है। चना और सरसों की खरीद की घोषणा तो कई राज्यों में हुई है लेकिन हर तरफ  सरकारी खरीद में तरह-तरह के लोच हैं। सरकारी खरीद इतनी देर से शुरू हो रही है कि तब तक अधिकांश किसान अपनी फसल सस्ते दाम पर बेच कर लुट चुके होंगे। किसान कहते हैं कि सरकारी खरीद में तो किसान नहीं, व्यापारी का फायदा है। वे किसान से खरीदी सस्ती फसल को सरकारी भाव पर बेच देते हैं। कितनी फसल खरीदी जाए, इस पर राज्य सरकारों ने सीमा बांध रखी है। एक तरफ  तो सरकार किसानों को अधिक उत्पादन का आह्वान करती है तो दूसरी तरफ ज्यादा उपज की उन्हें यह सजा मिलती है कि वह खरीदी नहीं जाएगी।

हर राज्य में सरकारी खरीद के लिए रजिस्ट्रेशन, आधार कार्ड, बैंक पासबुक, कृषि अधिकारी का प्रमाण पत्र, गिरदावरी और न जाने कितनी कागजी कार्रवाई में उलझा कर रखा जाता है। बटाई या ठेके पर खेती करने वाले छोटे किसान के पास ये दस्तावेज हो नहीं सकते इसलिए उनकी फसल की सरकारी खरीद नहीं होती। जहां सरकार खरीद कर भी लेती है वहां महीने-दो महीने तक किसान को पैसे का भुगतान नहीं किया जाता यानी कि कुल मिलाकर सरकारी खरीद का तंत्र ऐसा बनता है कि किसान झक मार कर सस्ते में अपनी फसल बाजार में बेचने पर मजबूर हो जाता है। ‘‘एम.एस.पी. सत्याग्रह’’ के इस पहले चरण ने तो यही सिखाया है कि प्रेम सिंह चव्हाण जैसे किसानों की त्रासदी की जड़ में बाजार नहीं सरकार है, अर्थव्यवस्था का खोट नहीं, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है। यानी कि किसान जब तक अपनी ताकत नहीं दिखाता, तब तक उसे अपनी फसल का सही दाम हासिल नहीं होगा। यहां महाराष्ट्र में ही नासिक से मुंबई तक हुआ किसान मार्च देश में एक  बड़े किसान आंदोलन की आहट  देता है।-योगेन्द्र यादव


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